मैं, बच्चियाँ और हाफ़िज़ साहब |
दरवाज़े के भीतर क़दम पड़ते ही जश्न का माहौल दिखता है। छोटी-छोटी बच्चियाँ सलवार-कुर्ती पहने सिर पर दुपट्टा डाले और हाथों में मेहँदी लगाए चहक रही हैं। एक बड़ा-सा हॉल की तरह बरामदा, जहाँ सभी लड़कियाँ अपने में मस्त हैं। बड़ा अच्छा लगा देखकर कि यतीमख़ाना और इतनी रौनक! चारों तरफ़ चहल-पहल!
दरवाज़े के अन्दर घुसते ही इस यतीमख़ाना के संचालक मो. हाफ़िज़ मिन्नतुल्लाह से सामना होता है। उनसे मैंने कहा कि आपके यतीमख़ाना को देखना चाहते हैं। उन्होंने कहा ''इसे यतीमख़ाना न कहें, ये बच्चियों का घर है। ये यतीम कैसे? मैं इनका पिता हूँ।'' सुनकर मन में ख़ुशी की एक लहर-सी दौड़ गई। वे बताते हैं कि 31 दिसम्बर को उन बच्चियों में से किसी एक की शादी है। फिर आवाज़ देते हैं ''नूरजहाँ! इधर आ बेटा!'' ''इसी की शादी है मैडम, शादी की तैयारी में हम सभी लगे हुए हैं। वह देखिए उधर अनाज साफ़ हो रहा है। ये देखिए... रज़िया... जुलेखा... आओ! इधर आओ सामने, दिखाओ अपनी मेहँदी, दिखाओ मैडम को, मैडम देखिए इन सबको, कितनी ख़ुश हैं ये। ऐ रोशनी! सामने आओ! देखिए मैडम आपस में ये सब सज-धज रही हैं। ऐ रजिया! आओ बेटा सामने आओ! देखिए आपस में ही ये ख़ुद से लगाईं हैं।'' सभी बच्चियाँ आकर चारों तरफ़ से हम सभी को घेर लेती हैं। वे अपनी-अपनी मेहँदी दिखा रही हैं। उधर एक बुज़ुर्ग महिला बैठकर शादी का जोड़ा तैयार कर रही है। सामने एक और हॉल की तरह आँगन है जिसपर छत भी है, वहाँ 4-5 औरतें रात का खाना बना रही हैं। साथ ही कल शादी के लिए पकवान भी बना रही हैं। एक सुकून-सा लगा मन में यह सब देखकर। कहीं से नहीं लग रहा कि ये बच्चियाँ अनाथ हैं।
हाफ़िज़ साहब ने बताया कि यहाँ जितनी भी बच्ची है, सभी यतीम नहीं है। कल जिसकी शादी होनी है उसके माता-पिता दोनों जीवित हैं। बग़ल के कमरे के सामने एक बहुत बुज़ुर्ग जो शरीर से लाचार दिखते हैं, उन्हें दिखाते हुए वे बताते हैं कि ये उसके अब्बा हैं, बेटी की शादी में न्योता दिया था, उसी में आए हैं। मैं हतप्रभ रह जाती हूँ। वे मेरी बात समझ जाते हैं, कहते हैं ''मैडम, क्या करें, ये सभी इतने ग़रीब हैं कि इनकी बच्चियों को हमलोग रख लेते हैं, कम-से-कम इनकी परवरिश और तालीम तो हो जाती है।'' ''अब देखिए इसी में किसी की क़िस्मत अच्छी हुई तो मन के लायक शौहर भी मिल जाता है इनको। नूरजहाँ को देखिए, अच्छा लड़का मिल गया, शादी कर देंगे, फिर मेरी जवाबदेही ख़त्म।'' ''इसकी शादी में 70-75 हज़ार का ख़र्चा है, सभी ख़र्च हम ख़ुद कर रहे हैं, माँ-बाप बेचारे क्या कर सकते, चंदा-पानी से ये सब हो जाता है।''
हाफ़िज़ साहब से पूछती हूँ ''ये सभी पढ़ने में इतनी होशियार हैं, क्यों नहीं इनको स्कूल भेजते?'' वे कहते हैं ''क्या करना इनको स्कूल जाकर? दीनी-तालीम और दुनियावी-तालीम (बहिश्ते ज़ेबर) ले लें यही काफ़ी है, फिर शादी-ब्याह कर अपने शौहर के घर चली जाएँ, पढ़-लिखकर क्या करना है?'' मैं कहती हूँ ''पढ़-लिख लेंगी तो अपने पैर पर खड़ी तो हो सकती हैं।'' वे कहते हैं ''अगर पढ़ना चाहें, तो मैं रोकता नहीं, पास के ही सरकारी स्कूल में भेज सकता हूँ, लेकिन ज़रूरत क्या है? जो छोटी बच्चियाँ हैं वे दीनी और दुनियावी तालीम ले ही रही हैं, जो थोड़ी बड़ी हैं उनको सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, पापड़ बनना, मेहँदी लगाना, घरेलू काम इत्यादि सिखाया जाता है, ज़्यादा पढ़कर क्या करेंगी ये।''
बच्चियों के साथ मैं |
चम्पानगर के एक संकरी गली में 4.75 कट्ठा ज़मीन में यह ''बच्चियों का घर'' बना हुआ है। इसकी स्थापना वर्ष 1972 में हुई और पुनर्स्थापना 2006 में की गई। डॉ. जाकिर हुसैन जो भारत के तीसरे राष्ट्रपति थे, की सलाह और सुझाव पर इस यतीमख़ाने का निर्माण हुआ और इसका नाम भी उन्होंने ही सुझाया था ''बच्चियों का घर''; क्योंकि यतीमख़ाना शब्द उन्हें पसन्द नहीं था, इसे एक घर के रूप में वे देखना चाहते थे। आज यह सब देखकर सच में लगता है कि ये यतीमख़ाना नहीं बल्कि उन सभी बच्चियों का घर है, जो समाज और नियति द्वारा किसी-न-किसी रूप में प्रताड़ित हैं।
यह घर अभी भी निर्माणाधीन है। 3 बड़े-बड़े कमरे हैं, 2 बड़ा-सा हॉल है, छत पर भी कमरा बना हुआ है। सुविधानुसार सभी कुछ यहाँ है। यहाँ 6-7 साल की उम्र से लेकर विवाह पूर्व तक की बच्चियाँ रहती हैं। लगभग 54 बच्चियाँ अभी यहाँ रह रही हैं। सभी लड़कियाँ ज़मीन पर पुआल और उसके ऊपर कम्बल बिछाकर सोती हैं। सभी लड़की के पास एक-एक टीन का बक्सा है, जो एकमात्र उनकी अमानत है, जिसे यहाँ भर्ती करते समय अपने घर से लाना होता है। इसमें उन्हें अपनी ज़रूरत का हर सामान रखना होता है।
यह पूछने पर कि यहाँ भर्ती करने का आधार क्या होता है, क्या सिर्फ़ मुस्लिम बच्चियों को ही पनाह मिलती है, हाफ़िज़ साहब बताते हैं ''यहाँ सिर्फ़ मुस्लिम बच्ची ही आती है, जिसे मस्जिद के इमाम द्वारा सत्यापित करने के बाद रखा जाता है। जिस क्षेत्र, मोहल्ला या गाँव की लड़की होती है, वहाँ का वार्ड कमिश्नर, मौलवी, मुखिया या थाना प्रभारी सत्यापित करते हैं। यहाँ आस-पास के शहर जैसे बाँका, मुंगेर, कटिहार, सहरसा इत्यादि की बच्चियाँ आती हैं।
हाफ़िज़ साहब कहते हैं ''मैडम, आप जानती हैं, यहाँ सांसद शहनवाज़ साहब दो बार आ चुके हैं और मंत्री अश्वनी चौबे भी एक बार आए थे; लेकिन इस घर के लिए कोई कुछ नहीं करता। सभी आते हैं और सहायता की बात कर चले जाते हैं, सहायता आज तक कहीं से नहीं मिली'', ''क्या करें मैडम, हम लोग अपने ही बल पर ये चला रहे हैं।'' ''चंदा, ज़कात, फ़ितरा, अतीया और इम्दाद की रक़म से यहाँ का ख़र्चा चलता है। आज भी मेरे लोग गए हैं जमात में चंदा के लिए, शादी है बेटी की, पैसा तो चाहिए ही न।'' मैं निःशब्द हो जाती हूँ और चुपचाप हाफ़िज़ साहब को देखती रहती हूँ। वे कहते हैं ''मैडम शादी में आइएगा न?'' एक बार नूरजहाँ के जन्मदाता को देखती हूँ फिर उसके इस पिता को, जो इन सभी के पिता हैं और एक पिता का फ़र्ज़ बख़ूबी निभा रहे हैं।
जारी...
- जेन्नी शबनम (16.3.2011)
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nishabd! ais abhi ho raha he! khair jo bhi he,
ReplyDeletesundar prastuti!
''क्या करें मैडम, हम लोग अपने हीं बल पर ये चला रहे हैं'', ''चंदा, जकात, फितरह, अतियात और इमदादी की रकम से यहाँ का खर्चा चलता है, आज भी मेरे लोग गए हैं जमात में चन्दा केलिए, शादी है बेटी की, पैसा तो चाहिए हीं न|'' मैं निःशब्द हो जाती हूँ, और चुपचाप मिन्न्तुल्लाह साहब को देखती रहती हूँ| वो कहते हैं ''मैडम शादी में आइयेगा न?'' एक बार नूरजहाँ के जन्मदाता को देखती हूँ फिर उसके इस पिता को जो इन सभी के पिता हैं और एक पिता का फ़र्ज़ बखूबी निभा रहे हैं|
ReplyDeletejiivan me dukh hae drd hai
to ..मिन्न्तुल्लाह साहब ..jaese log bhi hai
prastutikaran bahut khub rahaa ..
sach me main bhi nihshabd!!....aapka ye chehra...dekh kar...kahin andar me kuchh hua............!
ReplyDeletedi bahut bahut shubhkamnayen..
अपने बच्चों के लिये तो सब जीते है लेकिन दुसरो के बच्चो के लिये जिने वाले इस शख्श को हमारा सलाम. दुसरों के लिये जीना ही जीवन को सार्थक बनाता है. थोडी सोच बद्लकर बच्चियो की पढाई के बारे मे सोचे तो और भी खुशी होगी. प्रेरणादायक आलेख.
ReplyDeleteअपने लिये और अपने बच्चो के लिये तो सब करते है. लेकिन दुसरो के बच्चो को अपना समझने वाले इस शख्श को हमारा सलाम. आज भी ऐसे लोगों ने मानवता को जिवित रखा है. थोडी सोच बदलकर बच्चियो की पढाई पर तवज्जो दें तो और भी खुशी होगी. प्रेरणादायक आलेख.
ReplyDeleteजहां इतना प्यार ..अपनापन और ज़िम्मेदारी हो वह जगह घर ही होगी यतीमखाना नहीं .....मिन्तुल्लाह साहेब को आदाब .....नूरजहाँ तो अपने शौहर के घर पहुँच गयी होगी ....खूब खुश रहे ...आबाद रहे.....ये दुआ है. जो बच्चियां रह गयी हैं वहां उन्हें बहुत-बहुत प्यार और आशीर्वाद .
ReplyDeleteजेन्नी जी ! जाने क्यों मिन्न्तुल्लाह साहब की बात से सहमत होने को दिल करता है .कि क्या करेंगी पढलिख कर ...हमारे देश में एक ग्रेजुएट का भविष्य भी क्या है जो इन्हें कोई रोजगार मिल जायेगा.इससे तो अच्छा है कि वे दुनिअदारी और घरेलू धंधे ही सीखें.
ReplyDeleteमिन्न्तुल्लाह साहब जैसे लोग काश और कुछ हो जाएँ.
बहुत अच्छी पोस्ट.
bahut bhaya padna sach duniya mai bhale insano ki kami nahi....aap aisi jagah jati hai achha laga.
ReplyDeleteबहुत अच्छी रपट !
ReplyDeleteशानदार एवम जानदार ब्लोग !
बधाई हो !
जय हो !