Friday, August 5, 2016

55. सिमटता बचपन

 
वैश्विक बदलाव और तकनीकी उन्नति ने जहाँ एक तरफ़ जीवन को सरल और सुविधापूर्ण बनाया है, वहीं समाज में कुछ ऐसे बदलाव भी हुए हैं, जिनके कारण जीवन की सहजता खो गई है। जैसे-जैसे समय बीत रहा है दुनिया एक-एक क़दम आगे नहीं बढ़ रही, बल्कि लम्बी-लम्बी छलाँग लगा रही है। यह परिवर्तन बेहद गहरा और तीव्र है जिसके कारण जीवन मूल्य तो खो ही रहा है, मानवीय मूल्यों में भी गिरावट आ रही है। हर तरफ़ दिख रहे सांस्कृतिक और सामाजिक क्षय के मूल में भी यही कारण है।  

आधुनिक समय में जहाँ एक तरफ़ प्रगति हो रही है और हम दुनिया को सम्पूर्णता में देख रहे हैं, वहीं कहीं-न-कहीं हमारा जीवन एकाकी और संकुचित होता जा रहा है। सामाजिक बदलाव के कारण कई परिस्थितियाँ ऐसी हो गई हैं कि बच्चे असमय बड़ों के गुण सीख रहे हैं और उनकी तरह व्यवहार कर रहे हैं। सीधे कहें तो इस दौर में बचपन कहीं खो गया है। हालाँकि आज के बच्चों को यह सब न तो अनुचित लगता है, न ही अभिभावक उम्र से पहले बच्चों के बचपन के खो जाने को ग़लत मानते हैं। वे इसे सामान्य स्थिति समझते हैं।
नए ज़माने के माता-पिता समाज और परिस्थिति के अनुरूप अपनी अतृप्त आकांक्षाओं को अपने बच्चे में पूरा होते हुए देखना चाहते हैं। फलतः उन पर मानसिक दबाव बढ़ जाता है। माता-पिता की महत्वाकांक्षा बच्चे को कम उम्र में ही बड़ा बना देती है। प्रतिस्पर्धा और प्रतियोगिता की भावना बचपन से बच्चों के मन में भर दी जाती है। अतः कम उम्र में बच्चा स्वयं को प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार कर लेता है। छोटी कक्षा के बच्चे भी परीक्षाओं में एक-एक नंबर के लिए दबाव में रहते हैं। स्कूल के बाद ट्यूशन करना आज नितान्त आवश्यक हो गया है, अन्यथा बच्चे कक्षा में पिछड़ जाएँगे। स्वयं को प्रतियोगिता के लिए तैयार कर अपने लक्ष्य को हासिल करना ही एकमात्र उनका ध्येय होता है।
प्रतियोगिता या स्पर्धा सिर्फ़ शिक्षा के क्षेत्र तक सीमित नहीं रह गई है; बल्कि खेल, गायन, नाट्य, नृत्य, कला, चित्रकारी, आदि हर क्षेत्र में है। खेलने की उम्र में बच्चे बड़ी-बड़ी प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेते हैं। माता-पिता अपनी समस्त अधूरी कामनाओं को बच्चों में पूरा करने के लिए जी-जान लगा देते हैं। हर बच्चा अपने आप में विशेष होता है, लेकिन हर बच्चा हर क्षेत्र में निपुण हो यह आवश्यक नहीं। उनमें निपुणता लाने के लिए हर सम्भव प्रयास किया जाता है। एक तरफ़ पढ़ाई में अव्वल आना है, तो दूसरी तरफ़ प्रतियोगिताओं में भी सफल होना है। इन सबसे बच्चे इतने अधिक मानसिक दबाव में होते हैं कि कभी-कभी यह दबाव उनके अवसाद का कारण बन जाता है।
 
आकांक्षाओं के बोझ तले सिमटते-सिमटते बच्चे समाज से इस तरह कट जाते हैं कि सामूहिकता के महत्व को भूल जाते हैं। सामूहिक खेल जो हमारे बच्चों के शारीरिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते थे, अब मैदानों से ग़ायब हो गए हैं। आज के ज़माने के बच्चों को अगर पढ़ने-लिखने से थोड़ा भी समय बचा, तो वे आधुनिक तकनीकी उपकरण जैसे कम्प्यूटर, मोबाइल, आई पैड आदि में व्यस्त हो जाते हैं। अतः धीरे-धीरे वे एकाकी होने लगते हैं। बच्चों के पास अब न खेलने का समय है, न नातेदारों से मिलने-जुलने का। उन्हें पिछड़ जाने का भय सताता रहता है। बच्चे बालक-बालिका न होकर जैसे वक़्त की कठपुतली बन गए हैं। इनका हर एक मिनट बँधा रहता है।   

अपने और घरवालों की आकांक्षाओं की पूर्ती हेतु बच्चे का भविष्य दाँव पर लग जाता है। बच्चे जानते हैं हर हाल में उन्हें अपने लक्ष्य को हासिल करना है। इस दौड़ में जो सफल हो गए, वे अगली दौड़ के लिए जुट जाते हैं। जो बच्चे इसमें पिछड़ जाते हैं, वे अवसादग्रस्त हो जाते हैं। कई बच्चों को जब प्रतियोगिता में पिछड़ने का अनुमान होता है, तो वे आत्महत्या तक कर लेते हैं। झूठ, चोरी, जालसाज़ी आदि ग़लत रास्ता भी इख़्तियार कर लेते हैं।

महत्वाकांक्षाएँ होना आवश्यक है जीवन के लिए, वर्ना जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा नहीं मिलती है। लेकिन आकांक्षाएँ ऐसी भी न हों कि बच्चों का बचपना ही खो जाए और वे उम्र से पहले इतने समझदार हो जाएँ कि ज़िन्दगी उलझ जाए और जीवन को सहजता से न जी सकें। आकांक्षा बच्चे के मन, समझ, बुद्धि, विवेक के अनुसार रखनी चाहिए ताकि बच्चों का बचपना बना रहे और जीवन की प्रतियोगिताओं में मानसिक बोझ से दबकर नहीं अपितु आनन्द से सहभागी बनें।

- जेन्नी शबनम (4.8.2016)
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42 comments:

  1. जेनी जी आपने बहुत बड़ा सवाल उठाया है.आज हर क्षेत्र में प्रगति के साथ-साथ कई ऐसे सवाल खड़े हो गए हैं जहां बचपन खो गया है.बच्चों की सोच में कई तरह के अवसादों ने जन्म ले लिया है.
    इसीलिये वह सोच ही नहीं पाता है कि उसे किस तरफ जाना है.उसके जीवन का लक्ष्य क्या है.
    हम सभी को इस दिशा में एक नई पहल करनी होगी ताकि वह अवसादों से परे एक सशक्त जिन्दगी को अपने तरीके से जी सके.
    आपने जो सवाल उठाये हैं इस लेख में,वे काफी विचारणीय हैं, उस पर हम सभी को कुछ ठोस कदम उठाने होंगें.
    अशोक आंद्रे

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (07-08-2016) को "धरा ने अपना रूप सँवारा" (चर्चा अंक-2427) पर भी होगी।
    --
    हरियाली तीज और नाग पञ्चमी की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. माता-पिता अपनी इच्छायें अपने बच्चों में पूरी होते देखना चाहते हैं ,बच्चे की मानसिकता ,
    उसके व्यक्तित्व के विकास और स्वाभाविक जीने की आवश्यकता ,इस महत्वाकांक्षा केआगे गौण हो जाती है .

    ReplyDelete
  4. Vidushee Lekhika Jenny Shabnam ki Prakhar Aur Urjawaan Lekhni se
    Ek Aur Vichaarneey Lekh . Mubaaraq .

    ReplyDelete
  5. विचारणीय प्रस्तुति।
    उपयोगी सुझाव दिये हैं आपने इस पोस्ट में।

    ReplyDelete
  6. shabnam ji,
    aapne bahut bada sawaal uthaaya hai, aur aaj ke is daur kee ye sabse badi samasya hai , hamne baccho se unka bachpan cheen liya hia aur ye bholl gaye hai ki anjaane me hi unhe ham kunthaaye de rahe hia . unka vartmaan to kharaab kar hi rahe hia , unka bhavishy bhi kharab kar rahe hia .

    ye bahut sochne kee baat hai .
    aapke lekhna ko saadhuwad.

    aabhar
    vijay

    ReplyDelete
  7. डा0 जैनी शस्बनाम जी बहुत ही सटीक लेख है आपका । आजकल की आकांक्षाओं के चलते बच्चों का बचपन दब सा गया है । माता पिता भूल जाते हैं उसकी उम्र जो अभी खेलने के लायक ही हूई है। हम सबको मिलकर इस बहाव को रोकना होगा । अन्यथा आँगन क्या होता है वो भी बच्चों को समझाने में दिक्कत आने लगेगी ।

    साभार !!!

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  8. //महत्वाकांक्षाएँ होना आवश्यक है.... लेकिन आकांक्षाएँ ऐसी भी न हों कि बच्चों का बचपना ही खो जाए//

    बहुत ही अर्थगर्भित सन्देश, वाह !

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  9. बाल मनोविज्ञान पर लिखा विचारोत्तेजक एवं विश्लेलेषणात्खमक लेख। आज बच्चों के बचपन की मासूमियत नष्ट होती जा रही है, उसको बचाने की गहरी चिन्ता दर्शाई गई है। अभिभावकों और शिक्षकों को यह लेख अवश्य पढ़ना और गुनना चाहिए।

    ReplyDelete
  10. अत्यंत सार्थक आलेख । वर्तमान परिवेश के बड़ी समस्या को अत्यंत सूक्ष्मतम विन्दुवार समीक्षा दी है आपने । हार्दिक नमन स्वीकार करें ।

    ReplyDelete
  11. सच में आज बच्चे समय से पहले बड़े होने लगे हैं और उनका बचपन जाने कहाँ खो गया है. माता पिता की आकांक्षाओं और प्रतियोगिताओं के तले उनका बचपन दब कर रहा गया है. बहुत ही सारगर्भित और सटीक आंकलन...

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  12. वर्टिकल विकास के दौर में हॉरिजेनटली जो खतरा बढ़ता जा रहा है वह है बचपन की स्वाभाविकता का लगातार नष्ट होते जाना। आपने एक सही मुद्दे पर लोगों का ध्यान खींचा है।

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  13. बच्चों का बचपना बना रहे, यही प्रयास होने चाहिए।
    विचारणीय एवं सार्थक चिंतन, हार्दिक बधाई।

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  14. Behad sashkt lekhan avm vichaarneey bhi ...

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  15. जो सहज था वह कठिन हो गया और जो कठिन था वह सहज हो गया । बच्चे बड़े बन रहे हैं और बड़े अपने बच्चों में एक अदद बचपन तलाश कर रहे हैं । एक सात वर्ष की बच्ची नृत्य में बड़ी-बड़ी नृत्यांगनाओं को मात देने निकली है...छह साल का एक बच्चा प्रतिदिन आठ घण्टे रियाज़ करता है, उसे बहुत बड़े-बड़े गायकों से टक्कर लेना है । शायद अब यह सब सहज होना मान लिया गया है । बच्चे कम उम्र में सयाने हो रहे हैंं और बुढ़ापे के लक्षणों से जूझ रहे हैं । किशोरों को नींद नहीं आती, भूख नहीं लगती, सुबह पेट नहीं साफ होता... बुरे-बुरे सपने आते हैंं; वे सब अपने-अपने माता-पिता के अधूरे सपनों क्प पूरा करने अभियान पर निकल पड़े हैं । सचमुच, ये बच्चे अपने माता-पिता की अधूरी ज़िन्दगी जीने की कोशिश कर रहे हैं । हाँ ! यह सवाल है कि फिर ये बच्चे अपनी ख़ुद की ज़िन्दगी कब और कैसे पूरी करेंगे ....पूरी करने को छोड़िए ....शुरू ही कब करेंगे ?
    नहीं... यह बच्चों से प्यार नहीं उनका शोषण है । बच्चों को उनके अपने बचपन के साथ जीने दो !

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  16. बहुत ही विश्लेषणात्मक आलेख आभार

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  17. सार्थक एवं सामयिक लेख !

    ~सादर
    अनिता ललित

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  18. ashok andrey said...
    जेनी जी आपने बहुत बड़ा सवाल उठाया है.आज हर क्षेत्र में प्रगति के साथ-साथ कई ऐसे सवाल खड़े हो गए हैं जहां बचपन खो गया है.बच्चों की सोच में कई तरह के अवसादों ने जन्म ले लिया है.
    इसीलिये वह सोच ही नहीं पाता है कि उसे किस तरफ जाना है.उसके जीवन का लक्ष्य क्या है.
    हम सभी को इस दिशा में एक नई पहल करनी होगी ताकि वह अवसादों से परे एक सशक्त जिन्दगी को अपने तरीके से जी सके.
    आपने जो सवाल उठाये हैं इस लेख में,वे काफी विचारणीय हैं, उस पर हम सभी को कुछ ठोस कदम उठाने होंगें.
    अशोक आंद्रे

    6 August 2016 at 8:03 AM
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    आदरणीय अशोक जी,
    मुझे लगता है कि समाज में एक बहुत बड़े बदलाव की ज़रुरत है. आज माता पिता बच्चों के साथ जिस तरह व्यवहार कर रहे हैं उसका दुष्परिणाम है कि न सिर्फ बच्चों का बचपना खो गया है बल्कि भविष्य का एक जिम्मेवार नागरिक भी नहीं बन पा रहा है. निःसंदेह एक नए सिरे से सोच की ज़रुरत है. आपने मेरे विचार पर सहमति जताई इसके लिए हार्दिक आभार. आपका स्नेह और आशीष यूँ ही मुझपर बना रहे.

    सादर.

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  19. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक said...
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (07-08-2016) को "धरा ने अपना रूप सँवारा" (चर्चा अंक-2427) पर भी होगी।
    --
    हरियाली तीज और नाग पञ्चमी की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    6 August 2016 at 11:59 AM

    रूपचन्द्र शास्त्री मयंक said...
    विचारणीय प्रस्तुति।
    उपयोगी सुझाव दिये हैं आपने इस पोस्ट में।

    10 August 2016 at 6:40 AM
    __________________________________

    आदरणीय शास्त्री जी,
    चर्चा मंच पर मेरे पोस्ट को स्थान देने के लिए आभार.
    मेरे विचार आपको विचारणीय लगे, बहुत बहुत धन्यवाद.

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  20. एक विकट परिस्थिति की ओर ध्यान आकर्षित कराता ,सचेत करता सारगर्भित आलेख !
    निसंदेह विचारणीय !! बहुत बधाई

    ReplyDelete
  21. aapke vichar ati arthpoorn, manan karne yogy v
    dhayaan dene ko majboor karne vaale hain.
    blog par aamantrn ke liye aabhaar Jenni ji,

    ReplyDelete
  22. बहुत ही उम्दा .... बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ..... Thanks for sharing this!! :) :)

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  23. Blogger प्रतिभा सक्सेना said...
    माता-पिता अपनी इच्छायें अपने बच्चों में पूरी होते देखना चाहते हैं ,बच्चे की मानसिकता ,
    उसके व्यक्तित्व के विकास और स्वाभाविक जीने की आवश्यकता ,इस महत्वाकांक्षा केआगे गौण हो जाती है .

    August 7, 2016 at 11:03 AM
    ______________________________

    आदरणीया प्रतिभा जी,
    बिल्कुल सही कहा आपने. माता पिता अपनी इच्छाओं को बच्चे में पूरी करना चाहते हैं इससे बच्चे का व्यक्तित्व स्वाभाविक रूप से विकसित नहीं हो पता है. मेरे विचारों को आपकी सहमति के लिए आभार!

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  24. PRAN SHARMA said...
    Vidushee Lekhika Jenny Shabnam ki Prakhar Aur Urjawaan Lekhni se
    Ek Aur Vichaarneey Lekh . Mubaaraq .

    August 10, 2016 at 12:01 AM
    _________________________________

    आदरणीय प्राण शर्मा जी,
    मेरी लेखनी को आपका आशीर्वाद मिला, हृदय से आभार.

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  25. Blogger गिरीश बिल्लोरे मुकुल said...
    सैल्यूट

    August 10, 2016 at 12:49 AM
    _________________________________

    आपका बहुत बहुत धन्यवाद गिरीश जी.

    ReplyDelete
  26. Blogger रूपचन्द्र शास्त्री मयंक said...
    विचारणीय प्रस्तुति।
    उपयोगी सुझाव दिये हैं आपने इस पोस्ट में।

    August 10, 2016 at 6:40 AM
    ____________________________________

    आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय रूपचन्द्र जी.

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  27. Blogger vijay kumar sappatti said...
    shabnam ji,
    aapne bahut bada sawaal uthaaya hai, aur aaj ke is daur kee ye sabse badi samasya hai , hamne baccho se unka bachpan cheen liya hia aur ye bholl gaye hai ki anjaane me hi unhe ham kunthaaye de rahe hia . unka vartmaan to kharaab kar hi rahe hia , unka bhavishy bhi kharab kar rahe hia .

    ye bahut sochne kee baat hai .
    aapke lekhna ko saadhuwad.

    aabhar
    vijay

    August 10, 2016 at 6:40 AM
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    विजय जी,
    सही है, हम खुद अपने बच्चों में कुंठाओं को जन्म दे रहे हैं. बच्चों का बचपना बना रहे और उनको सुधारने से पहले हमें खुद में बदलाव लाना होगा. आपकी सार्थक प्रतिक्रया के लिए शुक्रिया.

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  28. Blogger Harash Mahajan said...
    डा0 जैनी शस्बनाम जी बहुत ही सटीक लेख है आपका । आजकल की आकांक्षाओं के चलते बच्चों का बचपन दब सा गया है । माता पिता भूल जाते हैं उसकी उम्र जो अभी खेलने के लायक ही हूई है। हम सबको मिलकर इस बहाव को रोकना होगा । अन्यथा आँगन क्या होता है वो भी बच्चों को समझाने में दिक्कत आने लगेगी ।

    साभार !!!

    August 10, 2016 at 9:33 AM
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    बिल्कुल सही कहा हर्ष जी. हम सभी को मिलकर बच्चों से उनका बचपना न छिना जाए इस प्रयास में लगना होगा. सार्थक प्रतिक्रया के लिए आभार.

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  29. Blogger Yograj Prabhakar said...
    //महत्वाकांक्षाएँ होना आवश्यक है.... लेकिन आकांक्षाएँ ऐसी भी न हों कि बच्चों का बचपना ही खो जाए//

    बहुत ही अर्थगर्भित सन्देश, वाह !

    August 10, 2016 at 9:44 AM
    _________________________________

    योगराज जी, सही कहा आपने. आभार.

    ReplyDelete
  30. Blogger सहज साहित्य said...
    बाल मनोविज्ञान पर लिखा विचारोत्तेजक एवं विश्लेलेषणात्खमक लेख। आज बच्चों के बचपन की मासूमियत नष्ट होती जा रही है, उसको बचाने की गहरी चिन्ता दर्शाई गई है। अभिभावकों और शिक्षकों को यह लेख अवश्य पढ़ना और गुनना चाहिए।

    August 10, 2016 at 10:08 AM
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    आदरणीय काम्बोज भाई, मेरे लेखन और मेरे विचारों की आपने सराहना की, हृदय से आभार.

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  31. Blogger Naveen Mani Tripathi said...
    अत्यंत सार्थक आलेख । वर्तमान परिवेश के बड़ी समस्या को अत्यंत सूक्ष्मतम विन्दुवार समीक्षा दी है आपने । हार्दिक नमन स्वीकार करें ।

    August 10, 2016 at 11:45 AM
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    नवीन जी, आपका हार्दिक शुक्रिया.

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  32. Blogger Kailash Sharma said...
    सच में आज बच्चे समय से पहले बड़े होने लगे हैं और उनका बचपन जाने कहाँ खो गया है. माता पिता की आकांक्षाओं और प्रतियोगिताओं के तले उनका बचपन दब कर रहा गया है. बहुत ही सारगर्भित और सटीक आंकलन...

    August 10, 2016 at 1:26 PM Delete
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    आदरणीय कैलाश जी, समर्थन देने के लिए बहुत धन्यवाद.

    ReplyDelete
  33. Blogger Prem Prakash said...
    वर्टिकल विकास के दौर में हॉरिजेनटली जो खतरा बढ़ता जा रहा है वह है बचपन की स्वाभाविकता का लगातार नष्ट होते जाना। आपने एक सही मुद्दे पर लोगों का ध्यान खींचा है।

    August 10, 2016 at 2:56 PM Delete
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    सार्थक प्रतिक्रया के लिए बहुत शुक्रिया प्रेम प्रकाश जी.

    ReplyDelete
  34. Blogger DrZakir Ali Rajnish said...
    बच्चों का बचपना बना रहे, यही प्रयास होने चाहिए।
    विचारणीय एवं सार्थक चिंतन, हार्दिक बधाई।

    August 11, 2016 at 3:30 PM Delete
    _____________________________________

    बहुत शुक्रिया जाकिर जी.

    ReplyDelete
  35. Blogger सदा said...
    Behad sashkt lekhan avm vichaarneey bhi ...

    August 11, 2016 at 9:00 PM Delete
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    शुक्रिया सीमा सदा जी.

    ReplyDelete
  36. Blogger डॉ. कौशलेन्द्रम said...
    जो सहज था वह कठिन हो गया और जो कठिन था वह सहज हो गया । बच्चे बड़े बन रहे हैं और बड़े अपने बच्चों में एक अदद बचपन तलाश कर रहे हैं । एक सात वर्ष की बच्ची नृत्य में बड़ी-बड़ी नृत्यांगनाओं को मात देने निकली है...छह साल का एक बच्चा प्रतिदिन आठ घण्टे रियाज़ करता है, उसे बहुत बड़े-बड़े गायकों से टक्कर लेना है । शायद अब यह सब सहज होना मान लिया गया है । बच्चे कम उम्र में सयाने हो रहे हैंं और बुढ़ापे के लक्षणों से जूझ रहे हैं । किशोरों को नींद नहीं आती, भूख नहीं लगती, सुबह पेट नहीं साफ होता... बुरे-बुरे सपने आते हैंं; वे सब अपने-अपने माता-पिता के अधूरे सपनों क्प पूरा करने अभियान पर निकल पड़े हैं । सचमुच, ये बच्चे अपने माता-पिता की अधूरी ज़िन्दगी जीने की कोशिश कर रहे हैं । हाँ ! यह सवाल है कि फिर ये बच्चे अपनी ख़ुद की ज़िन्दगी कब और कैसे पूरी करेंगे ....पूरी करने को छोड़िए ....शुरू ही कब करेंगे ?
    नहीं... यह बच्चों से प्यार नहीं उनका शोषण है । बच्चों को उनके अपने बचपन के साथ जीने दो !

    August 12, 2016 at 12:48 AM Delete
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    आदरणीय कौशलेन्द्र जी, ये बच्चे अपने माता पिता की ख्वाहिश जी रहे हैं, ऐसे में ये बच्चे बड़े होने के बाद अपनी अधूरी ख्वाहिश अपने बच्चों में पूरी करेंगे. यही हो रहा है और बढ़ता ही जा रहा है. आज बहुत कम बच्चा अपनी मनचाही पढाई करता है या बचपना जीता है. यह सब रोकना बहुत ज़रूरी है. आभार.

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  37. Blogger जयकृष्ण राय तुषार said...
    बहुत ही विश्लेषणात्मक आलेख आभार

    August 12, 2016 at 12:06 PM Delete
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    आभार जयकृष्ण जी.

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  38. Blogger Anita Lalit (अनिता ललित ) said...
    सार्थक एवं सामयिक लेख !

    ~सादर
    अनिता ललित

    August 12, 2016 at 12:38 PM Delete
    ______________________________________

    बहुत बहुत शुक्रिया अनिता जी.

    ReplyDelete
  39. Blogger ज्योति-कलश said...
    एक विकट परिस्थिति की ओर ध्यान आकर्षित कराता ,सचेत करता सारगर्भित आलेख !
    निसंदेह विचारणीय !! बहुत बधाई

    August 15, 2016 at 10:18 AM Delete
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    बहुत बहुत शुक्रिया ज्योत्स्ना जी.

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  40. Blogger Rakesh Kumar said...
    aapke vichar ati arthpoorn, manan karne yogy v
    dhayaan dene ko majboor karne vaale hain.
    blog par aamantrn ke liye aabhaar Jenni ji,

    August 22, 2016 at 9:28 PM Delete
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    राकेश जी, आप ब्लॉग तक आए हृदय से धन्यवाद.

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  41. Anonymous HindIndia said...
    बहुत ही उम्दा .... बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ..... Thanks for sharing this!! :) :)

    November 6, 2016 at 9:29 AM Delete
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    आपका बहुत बहुत धन्यवाद.

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