Sunday, January 30, 2022

92. मम्मी को याद करते हुए

वक्ता के रूप में 

मम्मी ने एक दिन मुझसे कहा, "मेरे जीवन को तुमसे ज़्यादा कोई नहीं जानता-समझता है, मेरे जीवन के बारे में भी कुछ लिखो।" मैंने हँसकर कहा, "तुम्हारी ज़िन्दगी पर तो फ़िल्म बन सकती है मम्मी। काश! किसी को हम जानते तो कहते कि कहानी लिखे और सिनेमा बनाए। कम-से-कम उस एक दृश्य में तो तुमको ज़रूर दिखाए जिस दिन तुम्हारा रिटायरमेंट हुआ तो तुम्हारे सहकर्मी और छात्राएँ रो रही थीं। तुम्हारे अधेड़ावस्था का चरित्र हम और युवावस्था का चरित्र ख़ुशी (मेरी बेटी) निभाए।" मम्मी मेरी बातों पर ख़ूब हँसने लगी और बोली "वाह! यह तो बहुत अच्छा आइडिया है, लेकिन मेरे जैसे पर कोई क्यों सिनेमा बनाएगा? जो सम्भव है वह सोचो न! तुम इतना अच्छा लिखती हो, मेरे बारे में तुम जो भी सोचती हो, वह सब लिखो।" मैंने कहा, "मम्मी! तुम मानसिक पीड़ा में जीती रही हो। हम लिखेंगे तो सारा सच ही लिखेंगे, तुम पढ़ोगी और बीते कष्टप्रद दिनों को याद करोगी, और रोज़ रोती रहोगी।" मम्मी के जीवन के हर पहलू, उतार-चढ़ाव, सुख-दुःख, अच्छे-बुरे वक़्त से मैं पूर्णतः वाक़िफ़ रही हूँ। 

प्राचार्य पद से रिटायर होने के दिन

3-4 वर्ष की उम्र से ही मुझमें उम्र से ज़्यादा समझ थी। मैं बहुत गम्भीर और संकोची स्वभाव की थी। उस उम्र से हर कार्य को मैं अपने तरीक़े से सोचकर, बहुत स्थिर और तल्लीनता से करती थी; भले ही समय ज़्यादा लग जाए। हड़बड़ी में किसी तरह कार्य को पूरा करना मेरे स्वभाव में नहीं है। जो भी कार्य करूँ, मेरे मुताबिक़ परफ़ेक्ट होना चाहिए, अन्यथा मैं करती ही नहीं हूँ। इस आदत के कारण मैंने पाया कम, गँवाया ज़्यादा है। 

पापा की मृत्यु के बाद जैसे अचानक मैं वयस्क हो गई और हर परिस्थिति को समझकर विश्लेषण करने लगी। यही वज़ह है कि सही समय पर मम्मी पर मैं कुछ भी लिख न सकी। जब भी थोड़ा लिखती, भावुक हो जाती और डिलीट कर देती थी। मैं नहीं चाहती थी कि मम्मी अपने दुःखद पलों को बार-बार याद करें। मम्मी को मानसिक और भावनात्मक पीड़ा इतनी ज़्यादा मिली कि मैं लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थी। मेरी कुछ कविताएँ जो मम्मी को अपने जीवन से जुड़ी हुई लगतीं, बार-बार पढ़कर ख़ूब रोती थीं, विशेषकर वृद्धावस्था और अकेलेपन की रचनाएँ। मम्मी हमेशा कहतीं- "तुम तब से लिखती हो, हमको पता कैसे नहीं चला? मेरी जैसी स्थिति और परिस्थिति में लोग क्या महसूस करते हैं, तुम कैसे इतना सोचकर लिख लेती हो?" मैं मुस्कुराकर कहती, "पता नहीं मम्मी, कैसे लिख लेते हैं हम। पर सोचो, माँ को नहीं पता कि बेटी लिखती है, लेकिन बेटी को माँ का सब कुछ पता है।" मैं जब भी भागलपुर जाती और मम्मी से मिलती थी, तो हँसना, बोलना, गाना, खाना जारी रहता था। कोई भी दुःखद बात हो जाती, तो मम्मी अपने असहाय होने पर बहुत रोती थीं। जीवन का बीता हर एक पल मम्मी को हमेशा याद रहा। 

सुलह केन्द्र में सलाहकार

प्रतिभा सिन्हा, महज़ मेरी माँ का नाम नहीं, बल्कि ऐसी शख़्सियत का नाम है, जिनकी पहचान आदर्श शिक्षक, कर्मठ प्राचार्य और सामाजिक सरोकारों से जुड़े संगठनों में एक कर्मठ नेत्री के रूप में है। जब से मैंने होश सँभाला उन्हें घर, बच्चे, परिवार, विद्यालय और सामजिक कार्यों में व्यस्त देखा है। मम्मी के जीवन के उतार-चढ़ाव में सुख-दुःख, संघर्ष, सम्मान, अपमान, हिम्मत सब शामिल रहा है। नौकरी के साथ-साथ सामाजिक सरोकारों से सम्बन्धित संगठनों से सम्बद्धता, हर सम्भव लोगों की सहायता करना, चाहे वह आर्थिक हो या पारिवारिक, भागलपुर के सुलह केन्द्र में सलाहकार, इत्यादि न जाने कितने कार्य हैं जो मम्मी लगातार करती रहीं। 

वर्ष 2010 से उनके पैरों में बहुत तक़लीफ़ रहने लगी और धीरे-धीरे चलने में असमर्थ होती गईं। इसके बावजूद 2017 तक उनके किसी भी कार्य में अवरोध नहीं आया, वे सक्रिय रहीं। वर्ष 2018 में मम्मी दिल्ली आईंं। यहाँ दो बार हार्ट अटैक आया। इसके बाद वे धीरे-धीरे कमज़ोर होती चली गईं। देहान्त के दो साल पहले से चलने में असमर्थ और अपनी हर दिनचर्या के लिए दूसरों पर निर्भर हो गई थीं। हर दूसरे-तीसरे महीने उनका शुगर और सोडियम कम हो जाता था। अस्पताल में भर्ती होना फिर 10-12 दिन में ठीक होकर घर आना, मानो यह उनके जीवन का हिस्सा बन गया। एक बार लगातार 2 महीना तक अस्पताल में रहना पड़ा, जब उनके कमर में बहुत दर्द हुआ और चलने में असमर्थ हो गईं। ऐसे में मम्मी जीवन से निराश हो चुकी थीं। मैं, मेरा भाई, मम्मी के मित्र, सहकर्मी, छात्र-छात्राएँ, रिश्तेदारों आदि से मिलने पर मम्मी जैसे खिल जाती और अपनी सारी पीड़ा भूल जाती थीं। 

भारत भ्रमण के दौरान

मम्मी अपने जीवन-संघर्ष से हारने लगतीं या किसी घटना के कारण अवसाद में होतीं, तो मैं अक्सर कहती थी "मम्मी! तुम अपनी मालिक हो, कोई तुमसे न सवाल करेगा न किसी को जवाब देने के लिए बाध्य हो। कभी किसी से कुछ नहीं लिया, जीवन भर लोगों की सहायता ही करती रही हो। तुम्हारे बच्चे स्थापित हैं, सबकी फ़िक्र छोड़ो, सिर्फ़ अपनी फ़िक्र करो। तुम्हारा अपना पैसा है मेहनत से कमाया हुआ, भरपूर जियो, खूब घूमो, ख़ूब आराम से जीवन जियो, जो मन में आए करो।" परन्तु मम्मी ने कभी भी बेफ़िक्र होकर जीवन नहीं जिया। उस समय की मध्यमवर्गीय परिवेश की माँ, विशेषकर एकल और विधवा स्त्री अपने से ज़्यादा अपने बच्चों के लिए फ़िक्रमन्द रहती थीं। मेरी फ़िक्र ने मम्मी के स्वास्थ्य को और भी ज़्यादा प्रभावित किया। उच्च शिक्षा लेकर भी मैं आर्थिक रूप से निर्भर हूँ, इस बात का अफ़सोस मुझे रहता है और मम्मी करती रहती थीं। सच है कि परिस्थितियाँ कब बदल जाए कोई नहीं जानता। मम्मी बहुत ख़ुश थीं कि मैं लेखिका और कवयित्री बन गई हूँ। मम्मी के सामने मेरी एक पुस्तक 'लम्हों जा सफ़र' प्रकाशित हुई, जो मम्मी के पास थी। दूसरी किताब 'प्रवासी मन' प्रकाशित हुई, लेकिन मम्मी को मैं दे नहीं सकी। मेरी तीसरी किताब 'मरजीना' प्रकाशित हुई, जिसे मैंने मम्मी को समर्पित किया है 

मम्मी की तस्वीर के साथ मेरी पुस्तकें
मैं कॉलेज में पढ़ती थी। एक दिन मैंने मम्मी से कहा "तुम दूसरी शादी क्यों नहीं की? कोई तो रहता तुम्हारे साथ, जब तुम बहुत बूढ़ी हो जाती। दादी उम्रदराज़ हो गई है, शादी के बाद हम भी चले जाएँगे, तब तुम अकेली पड़ जाओगी।" दादी यह सुनकर हँसने लगी। मम्मी ने कहा, "क्या बोलती हो, कुछ भी अनाप-शनाप सोचती और बोलती हो। दूसरी शादी क्यों करते भला? अगर मेरी दूसरी शादी होती, तो क्या तुम्हारी शादी हो पाएगी? तुम्हारी शादी के लिए अभी कितने ऑफर आते हैं, पर कोई नहीं चाहेगा कि ऐसी लड़की से शादी हो जिसकी विधवा माँ ने दूसरी शादी की हो। मेरे पास नौकरी है, ढेरों काम है, तुम्हारी दादी है, तुम दोनों बच्चे हो, शादी का औचित्य क्या था?" मम्मी के जवाब से मैं संतुष्ट नहीं थी। मैं सचमुच चाहती थी कि मम्मी के जीवन में रंग हो। मम्मी का रंगहीन साड़ी पहनना, बिन्दी-चूड़ी नहीं पहनना मुझे बहुत अखरता था। पहले वे काजल लगाती थीं और कान में बड़ी-सी बाली पहनती थीं, पापा के देहान्त के बाद बन्द कर दीं। मम्मी ने दीवाली-होली सब कुछ रस्म के तौर पर निभाना शुरू कर दिया; हालाँकि पापा कोई भी त्योहार नहीं मनाते थे, पर हमें रोकते नहीं थे।
 
मेरी शादी में मम्मी 
मैं कम बोलती और शांत रहती थी, लेकिन मुझे ख़ुश रहना पसन्द था। मैं होली, दीवाली, ईद, नया साल, क्रिसमस, जन्मदिन, स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस या अन्य कोई ख़ास दिन ख़ूब शौक से मनाती थी। मम्मी को लेकर ज़बरदस्ती सिनेमा देखने जाती। होली में दादी-मम्मी और नाना को रँग देती थी। दादी-मम्मी ग़ुस्सा होतीं, पर मैं कहाँ सुनती थी किसी की। मम्मी को ज़बरदस्ती रंगीन साड़ी पहनाती थी। मेरे अनुसार चूड़ी, बिन्दी, बिछिया आदि सुहाग की निशानी नहीं, बल्कि सौंदर्य प्रसाधन है। पर मम्मी कभी नहीं पहनीं। 
 
मुझे वह पल याद है जब पापा की मृत्यु हुई मम्मी की स्थिति बहुत ख़राब हो गई, उनको नींद की सूई दी जा रही थी उसी अर्ध-बेहोशी में किसी स्त्री ने मम्मी के हाथ में ही काँच की सभी चूड़ियाँ तोड़ दीं और नहलाकर सफ़ेद साड़ी पहना दी। मुझे बेहद ग़ुस्सा आया, पर उस समय मेरी कौन सुनता। हमारे समाज और संस्कृति ने मम्मी को विधवापन झेलने को मज़बूर किया। हालाँकि मम्मी मेरी बातों को समझती थीं, लेकिन उनके मन में सदियों का बैठा मानसिक अवरोध था कि 'लोग क्या कहेंगे'। मैं कहती थी कि जिसे जो कहना है कहने दो, अपने मन का करो। परन्तु मम्मी न कभी बिन्दी लगाई न रंगीन काँच की चूड़ियाँ पहनीं। वर्ष 1963 में मेरे दादा के देहान्त के बाद से दादी ने भी कभी सफ़ेद के अलावा किसी और रंग को नहीं अपनाया। मुझे यह सब बेहद क्रूर लगता है। 

भैया के जन्म के बाद मम्मी
भारत भ्रमण पर पापा-मम्मी
मम्मी का पूरा नाम प्रतिभा सिन्हा और घर का नाम सुशीला है। विवाहोपरान्त प्रतिभा सिन्हा ही नाम रहा; क्योंकि मेरे पापा इस बात के विरुद्ध थे कि शादी के बाद स्त्री का नाम बदला जाए या पति का उपनाम जोड़ा जाए। मम्मी का जन्म बिहार के सीतामढ़ी ज़िला के सुप्पी ब्लॉक के सोनौल सुब्बा गाँव में 21 दिसम्बर 1944 को हुआ। उनके पिता बैकुण्ठ नारायण सिन्हा, सोनौल के एक प्राइमरी स्कूल में शिक्षक थे और माँ रामधारी देवी गृहिणी थीं। बड़ी बहन उर्मिला देवी गृहिणी और बहनोई भूपनारायण प्रसाद रेलवे में कार्यरत थे, अवकाश प्राप्ति के बाद मोतिहारी में रहने लगे; अब वे दोनों इस संसार में नहीं हैं। बड़े भाई श्री कृष्णदेव नारायण सिन्हा बिहार सरकार में ऑडिटर थे और भाभी श्रीमती राममणि सिन्हा स्कूल में शिक्षक थीं; वे मोतिहारी में रहते हैं। मम्मी के दो मामा हैं, जो मोतिहारी में रहते थे। बड़े मामा धर्मदेव नारायण सिन्हा जज थे तथा छोटे मामा विष्णुदेव नारायण सिन्हा वकील और स्वतंत्रता सेनानी थे। मम्मी की सातवीं कक्षा तक की शिक्षा गाँव से हुई। आगे की पढ़ाई के लिए मम्मी अपने बड़े  मामा जो उन दिनों बेगूसराय में ज़िला जज थे, के घर रहने आ गईं और वहीं से 1961 में मैट्रिक किया। मेरे मामा की पोस्टिंग 1959 में दरभंगा में हुई और  उनकी शादी 1960 में हुई। मम्मी अपने भाई-भाभी के पास रहने आ गईं और दरभंगा विश्वविद्यालय से 1962 में प्री यूनिवर्सिटी (मेरे समय का इंटरमीडिएट) किया।

3 जून 1962 को दरभंगा में मम्मी की शादी हुई, तब वे दरभंगा विश्वविद्यालय में बी.ए. पार्ट-1 में पढ़ती थीं हम दोनों भाई-बहन के जन्म के कारण उनकी पढ़ाई में एक साल का व्यवधान आया और 1967 में टी.एन.बी.कॉलेज, भागलपुर से बी.ए.ऑनर्स किया। मेरे पापा डॉ. कृष्ण मोहन प्रसाद अपने पढ़ाई के दिनों में अपने गाँव कोठियाँ (अब शिवहर ज़िला) के नज़दीक अदौरी स्कूल में क़रीब एक साल शिक्षक रहे। 1961 में गिरिडीह कॉलेज, राँची विश्वविद्यालय में फिर 1963 में भागलपुर विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र विभाग में प्रोफ़ेसर बने। मम्मी ने भागलपुर विश्वविद्यालय से 1969 में राजनीति शास्त्र में एम.ए. किया। पापा उसी विभाग में शिक्षक और मम्मी उनकी छात्रा। मैं मम्मी को छोड़ती नहीं थी, चाहे मम्मी को पढ़ने जाना हो या मीटिंग; हालाँकि हम दोनों भाई-बहन के देख-रेख के लिए दो लोग रहते थे। मैं मम्मी को बहुत ज़्यादा दिक्क़त देती थी, परन्तु मेरे सिद्धांतवादी पापा ने मम्मी को सहूलियत नहीं दी। पापा के विभागाध्यक्ष ने पापा से कहा कि मम्मी क्लास न करें और पापा घर में नोट्स दे दें। परन्तु पापा के लिए सभी छात्र एक बराबर हैं, किसी एक को सुविधा क्यों? मम्मी पढ़ने के लिए अक्सर अपनी मित्र श्रीमती लक्ष्मी गुप्ता, जिनका घर (मायका) कोतवाली चौक पर है, के घर चली जाती थीं। मम्मी ने 1971 में टी.एन.बी.लॉ.कॉलेज से बी.एल. किया। 1974 में राजकीय शिक्षण प्रशिक्षण महाविद्यालय, भागलपुर से बी.एड. और 1982 में एम.एड. किया। 

 
पापा के सहयोग से मम्मी ने मार्च 1967 में भागलपुर में गांधी शांति प्रतिष्ठान केन्द्र की स्थापना की और उसकी फाउण्डर सेक्रेटरी जिसे चीफ़ वर्कर कहते हैं, बनी। फिर 1972 में गांधी शांति प्रतिष्ठान केन्द्र के सचिव-पद से इस्तीफ़ा दे दिया। 1972 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (C P I) में शामिल हो गईं। 22 नवम्बर 1972 को बिहार महिला समाज से जुड़ी और भागलपुर शाखा की सचिव बनीं। वे बिहार महिला समाज की राज्य सचिव रहीं और छह बार भारतीय महिला फेडरेशन की राष्ट्रीय परिषद् की सदस्य रहीं। 
 
आनन्द मोहन सहाय, जो आज़ाद हिन्द फ़ौज़ के सेक्रेटरी जनरल थे और शारदा देवी वेदालंकार, जो सुन्दरवती कॉलेज की संस्थापक प्राचार्य थीं, के सहयोग से 23 दिसंबर 1975 को टी.एन.बी. कॉलेजिएट स्कूल में शिक्षक के रूप में मम्मी की बहाली हुई। उसके बाद 1988 में बिहार सेवा आयोग द्वारा प्राचार्य के पद पर नियुक्ति हुई और प्रोजेक्ट गर्ल्स हाई स्कूल धौनी, बाँका में पदस्थापित हुईं। बीच में एक साल के लिए नाथनगर गर्ल्स हाई स्कूल में पोस्टिंग हुई थी। फिर मोक्षदा बालिका इन्टर स्कूल, भागलपुर में 12.1.2004 से 31.12.2008 तक प्राचार्य रहीं और वहीं से रिटायर हुईं। मोक्षदा स्कूल के सहकर्मी श्री दयानन्द जायसवाल, जो बाद में मोक्षदा के प्राचार्य बने, के सम्पादन में 2013 में संभाव्य नाम से हिन्दी पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ, जिसका अनुमोदन मम्मी ने किया। 2015 में पत्रिका का नाम बदलकर 'सुसंभाव्य' किया गया ताथा मम्मी मृत्युपर्यन्त पत्रिका की संरक्षिका रहीं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, महिला समाज, गांधी शांति प्रतिष्ठान केन्द्र, भारतीय जननाट्य संघ, राष्ट्र सेवा दल, परिधि, शिक्षक संघ, पेंशनर समाज, कानूनी सहायता-सुलह केन्द्र आदि ढेरों संगठनों से मम्मी आजीवन जुड़ी रहीं और 2017 तक पूर्ण सक्रिय रहीं। 

 

मम्मी को याद करने में मम्मी-पापा के विवाह की चर्चा न हो यह कैसे मुमकिन है। मम्मी-पापा की शादी बहुत अनोखी थी। पापा का घर कोठियाँ धर्मपुर  धर्मागत गाँव, जो शिवहर ज़िला (पहले मुज़फ्फ़रपुर फिर सीतामढ़ी ज़िला) मुख्यालय से लगभग 2 किलोमीटर दूर है। समीप के गाँव पुरनहिया के डुमर गाँव के किसी समृद्ध परिवार से शादी के लिए पापा पर बहुत दबाव था। यहाँ तक कि वे लोग पी-एच.डी. का ख़र्च देने को तैयार थे। सोनौल सुब्बा से सटा हुआ एक गाँव है घरबारा, जहाँ मम्मी के रिश्ते के मुनि चाचा रहते थे, जो पापा के रिश्ते में भी कुछ थे। उन्होंने मेरे मामा को शादी की बात करने भेजा। पापा ने अपने पिता और घर के किसी भी सदस्य को मामा से बात करने नहीं दिया। वे सारा दिन मामा के साथ बिताए और अपने सिद्धांत और शर्तों के बारे में स्पष्टतः बताया। पापा का परिवार परम्परावादी है, तो उन्हें आशंका थी कि घरवाले कुंडली मिलाएँगे, मुहूरत देखेंगे, पारम्परिक शादी चाहेंगे। पापा के रिश्ते में भतीजा और मम्मी के रिश्ते में भाई श्री राजकमल शिरोमणि, जो बाद में अँगरेज़ी के प्रोफ़ेसर बने, के साथ मम्मी को दरभंगा के सिनेमा हॉल में भेजा गया, पापा ने मम्मी को दूर से देखा, मम्मी को इस बात की जानकारी नहीं दी गई। एक महीने बाद पापा ने रजिस्ट्री चिट्ठी भेजकर मामा को बुलाकर कहा कि अगर मम्मी में मेरिट हो और वे आगे पढ़ेंगी, तो वे शादी के लिए तैयार हैं। लेकिन शादी उनके शर्त के मुताबिक़ होगी। पापा द्वारा चयनित राजनीति शास्त्र, गृहविज्ञान और अँगरेज़ी के पाँच प्रश्नों के साथ मम्मी की परीक्षा लेने पापा की बड़ी भाभी और भाई हरिमोहन प्रसाद दरभंगा आए। मम्मी ने प्रश्नों के उत्तर उनके सामने लिखे और लिफ़ाफ़े में चिपकाकर दे दिया। मम्मी मेरिट-टेस्ट में पास हो गईं। मम्मी ख़ुश थीं कि शादी से पढ़ाई में बाधा नहीं होगी। नाना-मामा ने शादी की सभी शर्तों को मान लिया। मामा ने चुपचाप पापा की कुंडली बनवाई और कुंडली-मिलान कराया, जिसके अनुसार 36 में से 32 गुण मिल गए थे। 

विवाह के बाद की तस्वीर की पेन्टिंग
शादी की शर्तें मुख्यतः ये थीं कि मेरे दादा शादी में नहीं जाएँगे, खादी की एक साड़ी और सिन्दूर की पुड़िया पापा लेकर जाएँगे, दहेज या लेन-देन की कोई बात नहीं होगी, मायके से एक या दो से ज़्यादा गहना नहीं देना है, कपड़ा सिर्फ़ मम्मी को देना है जो खादी का हो, मम्मी को बैग भी दें तो खादी भण्डार का ही। लहेरियासराय में मम्मी की बड़ी मामी की बड़ी बहन रहती थीं। उनके घर से शादी हुई। पापा खादी का सफ़ेद धोती-कुरता-बंडी पहनकर चार दोस्तों के साथ रिक्शे पर आए। विधि के तौर पर भी उन्होंने न एक रूपया लिया न एक कपड़ा। वहाँ के लोगों को बहुत अजीब लगा कि यह कैसा लड़का है। पर सभी संतुष्ट थे कि लड़का प्रोफ़ेसर है। विदा होते समय पापा ने घूँघट लेने से मना कर दिया। जब गाँव पहुँचने वाले थे, तो गाँव का एक लड़का सुरजिया जो बारात में गया था, मम्मी को बोला कि घूँघट कर लीजिए। घर के ठीक सामने पापा ने पुस्तकालय बनवाया था, मम्मी को लेकर सबसे पहले वे वहीं गए। फिर घर लेकर गए जहाँ दुल्हन के आने पर कोई ख़ास विधि नहीं हुई, न ही कोई ख़ास भोज। पापा की हिदायत थी कि ऐसा कुछ नहीं करना है।
सुबह मेरी दादी किशोरी देवी आईं, तो पाँव में मिट्टी सना था, मम्मी ने पैर छुए। उसी समय पापा के चचेरे बड़े भाई रामेश्वर प्रसाद आए, तो पापा के कहने पर मम्मी ने उनके भी पैर छूए। फिर तो ख़ूब हंगामा हुआ कि दुल्हिन ने भसुर (जेठ) का पैर छू लिया; जिसे पाप माना जाता है। मम्मी को यह सब बहुत अजीब लग रहा था कि पापा ऐसे क्यों कर रहे हैं। सुबह-सुबह ख़ाली पाँव, खादी का हाफ़ पैंट, खादी की गंजी पहनकर मम्मी को लेकर पापा गाँव में घूमने चल दिए। पूरे गाँव में हंगामा मच गया कि कन्हैया जी (पापा का घर का नाम) नई दुल्हिन को लेकर सरेहे-सरेहे पूरे गाँव में घूमा रहे हैं, और वह भी बिना घूँघट। मेरे दादा सूरज प्रसाद ने मम्मी से कहा कि वे सर पर आँचल रख ले, तो पापा ने मम्मी से कहा कि अगर मेरे साथ रहना है, तो मेरे साथ चलना होगा। दादा और पापा में वैचारिक मतभेद हमेशा से रहा है। पापा के अनुसार मम्मी रहने लगीं। शादी के 10 दिन बाद मम्मी के बड़े मामा की बड़ी बेटी की शादी बेगूसराय से हुई, जहाँ वे दोनों शादी के बाद पहली बार कहीं अकेले गए। फिर पापा ने मम्मी को दरभंगा पहुँचा दिया क्योंकि पढ़ाई करनी थी।
पापा का परिवार भले ही धार्मिक और परम्परावादी था, पर पापा बचपन से ही अलग विचारधारा के थे। वे बहुत छोटी उम्र से सोच से नास्तिक, परम्पराओं के विरोधी और स्वभाव से गांधीवादी थे। हालाँकि उस उम्र में उन्हें गांधी या गांधीवाद पता भी नहीं था। पापा 11 वर्ष की उम्र में वर्ष 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में सोशलिस्ट पार्टी में सक्रिय होकर हिस्सा लिए और अपने चचेरे बड़े भाई लक्ष्मेश्वर प्रसाद के साथ ट्रेन की पटरी उखाड़कर बच निकले थे। छात्र जीवन में ही वे गांधीवाद के प्रबल समर्थक बने और समाजवाद से जुड़ गए। मम्मी का परिवार पूरी तरह धार्मिक और परम्परावादी था, तो मम्मी की सोच उसी अनुसार थी। मम्मी को तब न गांधीवाद पता था न नास्तिकता, पर इतना जानती थी कि पापा विद्वान हैं, जो कहते हैं वह सही होगा। शादी के बाद पहली तीज पर पापा ने स्पष्ट कह दिया कि आपको तीज नहीं करनी है। लेकिन मम्मी को ईश्वर में आस्था थी, उन्होंने छुपकर तीज किया; जिसका पता पापा को कभी नहीं चला। वर्ष 1963 में मम्मी दरभंगा से भागलपुर आईं और पूरे रास्ते पापा की हिदायतें, नियम, विचार सुनती-समझती रहीं। तब नाथनगर के कर्णगढ़ में पापा रहते थे। नाथनगर के पुरानी सराय मोहल्ले में मम्मी की चाची सुमित्रा देवी रहती थीं, जो शिक्षक थीं। वे दोनों अक्सर उनके घर चले जाते थे। 
बाएँ से मम्मी, मैं, भैया, फूफेरा भाई, दादी
वर्ष 1975 में हम सभी गाँव गए। बहुत ज़्यादा बाढ़ आ गई थी, तो मुझे और मेरे भाई को गाँव में छोड़कर पापा-मम्मी भागलपुर लौट आए। उन्हीं दिनों मम्मी बहुत बीमार हो गईं। पटना में मम्मी की चचेरी बहन प्रेमा प्रसाद (चाची सुमित्रा देवी की बेटी) जो स्कूल में शिक्षक थीं तथा उनके पति गोपाल प्रसाद सी.आई.डी. में कार्यरत थे, रहते थे। मम्मी के बीमार होने की सूचना पाकर मौसा उनको पटना ले गए। थोड़ी स्वस्थ होने के बाद मम्मी भागलपुर आईं और अपने बड़े मामा की बड़ी बेटी श्रीमती रेणुका सिन्हा, जिनके पति गौर किशोर प्रसाद उस समय रेलवे मजिस्ट्रेट थे और स्टेशन परिसर में रहते थे, के पास रहने चली गईं। हमलोग बाढ़ के कारण भागलपुर लौट नहीं सके, तो हम दोनों भाई-बहन दादी के पास रहकर गाँव में पढ़ने लगे।
 
जून 1976 में मम्मी फिर से बीमार हुईं। पापा उन दिनों गाँव आए हुए थे। मौसी सपरिवार बाहर गई थीं। डॉ. क्वाड्रेस जो उस समय की मशहूर डॉक्टर थीं, ने एक दिन भी देर करने से मना कर दिया और यूट्रेस रिमूवल के ऑपरेशन का टाइम दे दिया। मम्मी अस्पताल में भर्ती हुईं। वे उस समय अकेली थीं, तो उन्होंने छुपकर बाहर जाकर ऑपरेशन के सामान ख़रीदे; सबको टेलीग्राम किया। पापा किसी काम से शिवहर गए, तो टेलीग्राम मिला। पापा वहीं से चले गए, किसी के द्वारा हमलोग को ख़बर भेज दिया कि वे भागलपुर जा रहे हैं। मम्मी तब तक अस्पताल से मौसी के घर आ चुकी थीं। हमारी वार्षिक परीक्षा के बाद मम्मी गाँव आईं और मुझे लेकर भागलपुर आ गईं, भैया को गाँव में ही रहकर पढ़ने को पापा ने कहा था। 
 
वर्ष 1977 की गर्मी के दिनों में पापा बीमार हो गए। उन्हें जॉन्डिस हुआ, जो बाद में लिवर सिरोसिस हो गया। स्वतंत्रता सेनानी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता किशोरी प्रसन्न सिंह, जिन्हें हम सभी किशोरी भाई कहते हैं, पापा-मम्मी को बहुत मानते थे। किशोरी भाई ने अपनी पत्नी के नाम पर हाजीपुर में सुनीति आश्रम बनाया था, वहाँ उन्होंने पापा-मम्मी को आकर रहने के लिए कहा। मैं भी साथ गई। एक महीना हमलोग आश्रम में किशोरी भाई के साथ रहे। पापा की तबीयत में कोई सुधार न हुआ। फिर वे दिल्ली के एम्स में एक माह भर्ती रहे। अंततः 18 जुलाई 1978 को पापा सदा के लिए चले गए। मम्मी पूरी तरह से टूट गईं। उनकी उम्र उस समय 33 वर्ष की थीं। मानसिक, आर्थिक, सामाजिक परेशानियों से एक साथ घिर गईं। संघर्ष का दौर शुरू हो चुका था। मेरा भाई अमिताभ सत्यम् चूँकि पढ़ाई में तीक्ष्ण था अतः गाँव के उसके विद्यालय के शिक्षकों के आग्रह पर वह गाँव में रहकर मैट्रिक किया। फिर वह आई.आई.टी. कानपुर और स्कालरशिप पर अमेरिका चला गया। धीरे-धीरे हम सभी की ज़िन्दगी समय के साथ अपनी-अपनी पटरी पर चल पड़ी। 
समय ने मम्मी को बहुत छला है। अपनी मृत्यु के एक वर्ष पूर्व से पापा काफ़ी बदल गए थे। मेरी शादी और भाई की पढ़ाई की बात मम्मी-पापा अक्सर करते थे। एक दिन पापा मुझे और मम्मी को लेकर बाज़ार गए और मम्मी के लिए बहुत ख़ूबसूरत शिफॉन की दो साड़ी ख़रीदे। फिर हमलोग कचौड़ी गली गए और वहाँ नाश्ता किए। वे घर के काम की सहूलियत के लिए कैरो गैस, प्रेशर कूकर, लोहे का आलमीरा ख़रीदे। मैं सोचती थी कि आज दलिया की जगह रोटी-तरकारी या चूड़ा-घुघनी हम खा रहे हैं और पापा कुछ नहीं बोले। शुरू से ही हमारे यहाँ हर महीने भोज ज़रूर होता था जिसमें पूरी, तरकारी, भुजिया, पुलाव, खीर इत्यादि बनता था। लेकिन सामान्य दिनों में हमलोग दलिया-दही या घी और भात-दाल तरकारी खाते थे। सूती, ऊनी या सिल्क हो, पर खादी के अलावा और कोई कपड़ा हमारे यहाँ नहीं आता था, सिवा हमलोगों के स्कूल यूनिफॉर्म को छोड़कर। मम्मी को भी अब खादी बहुत पसन्द आ गया था। 

मम्मी के मेहनत से बने मकान में फूल और मम्मी 
पापा को घूमने का बहुत शौक था और वे अलग-अलग ट्रिप में सबको घूमाते थे। कभी सिर्फ़ मम्मी को लेकर गए, कभी नाना, नानी, मम्मी को लेकर गए, कभी दादी, दादी की माँ और हम भाई-बहन को लेकर गए, तो कभी सिर्फ़ भैया को लेकर गए। सबसे कम मैं ही घूमी हूँ पापा के साथ। परन्तु मम्मी के साथ मैं शुरू से लगभग हर जगह जाती थी। चाहे कोई मीटिंग हो या कॉन्फ्रेंस या धरना-प्रदर्शन। पापा को फोटो खींचने और ख़ुद साफ़ करने का शौक था। वर्ष 1967 में हमलोग नया बाज़ार के यमुना कोठी में किराए पर आ गए, जहाँ 2009 तक मम्मी रहीं। वह घर बहुत बड़ा था और बरामदा भी बहुत लम्बा-चौड़ा था। पापा ने मम्मी की तस्वीरें, जो वे ख़ुद खींचकर साफ़ करते थे, को बड़ा कराके फ़्रेम कराया सभी कमरे और बरामदा में टाँग दिया। चारों तरफ़ सिर्फ़ मम्मी-ही-मम्मी। कुछ तस्वीरें गांधी जी और स्वतंत्रता सेनानियों की भी थीं
पापा की अपनी एक भी तस्वीर नहीं थी। मम्मी को लगभग पूरा भारत पापा ने घुमाया। भैया ने मम्मी को दो बार अमेरिका घुमाया। मम्मी के जितने भी शौक थे सभी पूरे हुए, सिर्फ़ लंदन जाना रह गया, जो बीमारी के कारण न हो सका। भागलपुर में अपना मकान जिसमें सामने गार्डन हो, और ख़ूब सारे फूल हों, मम्मी की यह कामना भी पूरी हुई। बहुत कम समय तक मम्मी स्वस्थ होकर अपने घर का आनन्द उठा सकी, इस बात का बहुत दुःख है मुझे। पर ख़ुशी है कि जितना भी समय स्वस्थ होकर वहाँ रही, बहुत ख़ुश रही। 
2004

मम्मी पूरी तरह गांधीवादी, साम्यवादी, समाज सेवक, शिक्षक, प्राचार्य बन गई थीं। उन्होंने यह सब अपने विचार, मेहनत और हिम्मत से किया। पापा भी यही चाहते थे कि कोई भी विचार मम्मी ख़ुद समझें और मन से अपनाएँ। मम्मी अपने आगे बढ़ने और शिक्षित होने का सारा श्रेय पापा को देती हैं, अन्यथा इस मुक़ाम तक नहीं पहुँचती। मम्मी बताती थीं कि गांधी शांति प्रतिष्ठान केन्द्र में पहली बार जब भाषण देना था, मम्मी डर से थर-थर काँप रही थी। पापा ने भाषण लिखा और मम्मी के पीछे खड़े होकर बोलते गए, मम्मी दुहराती गई। धीरे-धीरे मम्मी इतनी सक्षम हो गई कि एक बार मंच पर गई तो किसी भी मुद्दे पर बिना रुके घंटो बोल सकती थीं। 

अन्तिम छह माह पापा का बहुत ख़राब बीता था। मम्मी या अन्य कोई नहीं समझ सका कि पापा को लिवर सिरोसिस है जो ठीक नहीं होगा। डॉक्टर को भी आश्चर्य होता था कि जो चाय तक नहीं पीता है उसका लिवर कैसे इतना ख़राब हुआ। पापा और हम सभी पूर्ण रूप से शाकाहारी थे और प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार स्वास्थप्रद खाना खाते थे। अन्तिम दिनों में मम्मी से वह सब खाना बनवाने लगे जो पापा कभी नहीं खाते थे। जब उनकी तबीयत बहुत ख़राब रहने लगी तो मम्मी की ज़िद पर एलोपैथ के डॉ. पवन कुमार अग्रवाल, जो नया बाज़ार में रहते थे और मौसा के घनिष्ट मित्र थे, को दिखाने लगे। लेकिन पापा की बीमारी इतनी बढ़ गई थी कि किसी भी पैथी से ठीक होना नामुमकिन हो गया। मम्मी में सभी बदलाव आए लेकिन पूर्णतः नास्तिक नहीं बन पाई। वह शिव की पूजा करती रहीं। लेकिन न भगवान् शिव न कोई डॉक्टर पापा को बचा सके। अब मम्मी का सामजिक प्रताड़ना के साथ आर्थिक और मानसिक कष्ट का समय आ गया था। 
जवान विधवा के साथ समाज का रवैया बहुत ग़लत होता है, मम्मी को आजीवन इसका सामना करना पड़ा। हाँ! यह ज़रूर है कि कुछ रिश्तेदारों, मित्रों, सहकर्मियों ने मम्मी की बहुत मदद की। मेरी दादी तो मम्मी की सास से माँ बन गईं और 102 साल की आयु में अपनी मृत्यु तक मम्मी को हर तरह से सहारा देती रहीं। समाज का घिनौना चरित्र समय के साथ मम्मी भले भूल गईं और लोगों को माफ़ किया; लेकिन मुझे सब याद है कि किसने मम्मी को क्या कहा, किसने अपमान किया, किसने रुलाया। मुझे हर एक घटना याद है, जिसने मेरे या मम्मी के जीवन को बहुत प्रभावित किया है। पापा का न होना शुरू के एक-दो साल बहुत अखरा था, लेकिन मम्मी साथ थीं तो सब सामान्य हो गया। विवाहोपरान्त पापा का न होना मेरे लिए बहुत कष्टदायक रहा। मम्मी का जीवन जिन लोगों ने कष्टप्रद बनाया है, मैं आश्वस्त हूँ कि अपने इसी जन्म में उनके कर्म का फल देखूँगी। कर्म का फल मिलना किसी भगवान का नियम नहीं बल्कि प्रकृति का नियम है और यह तय है। 
मम्मी के लिए मैं कुछ नहीं कर सकी, यह टीस मुझे झकझोरती है। मेरे कारण मम्मी ने बहुत अपमान सहा है, यह बात मैं भूल नहीं सकती। मम्मी चुप होकर, दबकर सब कुछ सहन करती रहीं। जब भी मैं दुःखी होती तो मम्मी मुझसे कहती "चिन्ता नहीं करो, हम हैं न!" देह से लाचार थीं, लेकिन मुझमें जीने की हिम्मत बढ़ाती रहती थीं। अब मैं क्या करूँ? अपनी पीड़ा किससे साझा करूँ? मम्मी की मृत्यु के बाद से मैं निडर हो गई हूँ। मेरे पास अब खोने को कुछ नहीं रहा। सभी रिश्ते-नाते अपने-अपने जीवन में व्यस्त हैं, मेरी परवाह करने वाली सिर्फ़ मम्मी थीं, जो अब नहीं हैं। मुझे महसूस होता है मानो मरकर मम्मी मुझमें समा गईं और मुझे बेख़ौफ़ बना गईं। 

आज मम्मी को पंचतत्व में विलीन हुए एक साल हो गए हैं। आज बहुत दुःखी हूँ, मम्मी नहीं हैं और मैं उन पर लिख रही हूँ; जो अब न पढ़ सकेंगी न उनके प्रति मेरे विचार को शब्द रूप में देख पाएँगी। यह जगत् और वह जगत् बहुत रहस्यमय है दार्शनिकों को पढ़ती हूँ, समझने का प्रयास करती हूँ; लेकिन मेरी समझ से परे है। मम्मी! अगर तुम मुझे देख सकती हो, सुन सकती हो, समझ सकती हो, तो मेरे मन की अवस्था समझना। अब चारों तरफ़ एक सन्नाटा है जिसमें तुम्हारी बेटी हँसते-हँसते धीरे-धीरे गुम हो रही है। 
 
मैं तुमसे सदैव कहती थी "हमसे पहले तुम इस संसार से नहीं जाना, तुम्हारे सिवा कोई नहीं, जो हमको समझता हो।" तुम मेरी इस बात पर कितना ग़ुस्सा होती थी "तुम मर जाओगी और हम ज़िन्दा रहेंगे!" हमको छोड़कर तुम चली ही गई मम्मी, मैं अनाथ हो गई। कहने को तो हज़ारों रिश्ते हैं, जिन्हें मैं जी रही हूँ, निभा रही हूँ, लेकिन मेरा वजूद किसी के लिए ज़रूरी नहीं; यह तुमसे ज़्यादा कोई नहीं जानता है। जानती हूँ मृत्यु के बाद सारे बन्धन मिट जाते हैं, फिर भी चाहती हूँ कि जिस संसार में अब तुम हो वहाँ बहुत ख़ुश रहना और अगर दूसरा जन्म हो, तो ऐसे परिवेश में हो जहाँ सबको बराबर का अधिकार हो।
 

एक अच्छे दिन में मम्मी इस संसार से विदा हुई, जिस दिन महात्मा गांधी ने शहादत दी। आज महात्मा गांधी की 74वीं पुण्यतिथि है और मम्मी की पहली पुण्यतिथि। महात्मा गांधी को हार्दिक नमन! इस आलेख के द्वारा मम्मी को श्रद्धांजलि! 
अंतिम स्पर्श / दाह-संस्कार से पूर्व 
- जेन्नी शबनम (30.1.2022)
(मम्मी की प्रथम पुण्यतिथि)
___________________


33 comments:

  1. नमन है मेरा ...
    माँ की यादें जीवन भर साथ चलती हैं ... माँ भी हमेशा साथ ही रहती है ...

    ReplyDelete
  2. विनर्म श्रद्धांजलि...

    ReplyDelete
  3. ऐसे कई मौकों पर मां याद न आए, ऐसे कैसे हो सकता है, जीवन भर मां का साथ रहता है और वह भले ही भौतिक रूप से हमारे बीच न रहे, लेकिन आत्मिक रूप में वह ताउम्र हमारे बीच रहती है
    मां को सादर श्रद्धांजलि।

    ReplyDelete

  4. जेन्नी जी आपने जिस तरह अपनी मम्मी को याद किया काम लोग करते हैं। आपके मम्मी पापा निसंदेह विलक्षण प्रतिभा वान थे। किसी सी बच्चे को ऐसे माँ -बाप पा कर गर्व होगा। समाज का चेहरा भी आपने साहस बेनक़ाब की किया है। मम्मी चाहे अब आपके साथ शारीरिक तौर पर नहीं हैं लेकिन उनकी दुआएं हमेशा आपके साथ रहेंगी। बहुत प्रेरक संस्मरण। विनम्र श्रद्धांजलि!!

    ReplyDelete
  5. बहुत घटनापूर्ण जीवन रहा माँ का और आपका भी.सुशिक्षित और सुसंस्कृत परिवेश में रह कर जीवन के जो अनुभव आपने पाये वे जीवन के साथ आपके लेखन को भी समृद्ध करेंगे.समय बीत गया लेकिन उसके अवशेष रहेंगे -व्यक्तित्व को जिन परिस्थितियों ने गढ़ा,वे किसी-न-किसी रूप में साथ रहेंगे ही;माँ कहीं नहीं गईं संस्कार,स्मृति,और आचार-व्यवहार में किसी रूप में उनकी विद्यमानता रहेगी - माँ और बेटी को विलगाना संभव ही नहीं.
    जेन्नी जी,मन को आश्वस्त कीजिये,वे जहां रहें परम शान्ति से रहें‍!

    उनकी पुण्य स्मृति को हमारा नत-शिर वन्दन‍!!

    ReplyDelete
  6. प्रणाम जी! विन्रम नमन| पूरा नही पढ पाया, लेकीन बहुत सुन्दर लिखा है| एक गुजरे जमाने की महत्त्वपूर्ण यादें बहुत प्यार से आपने संजोईं हैं और सादर की हैं| बहुत धन्यवाद|

    ReplyDelete
  7. माँ को विनम्र श्रद्धांजलि🙏🙏🙏🙏
    माँ की पुण्यतिथि पर बहुत ही प्रेरक एवं हृदयस्पर्शी संस्मरण....ये समाज तो लकीर का फकीर चाहता है ऐसे लीग से हटकर जीने वाले विरले ही होते हैं फिर समाज उन्हें क्यों बक्सेगा...फिर भी आपके मम्मी पापा अपने समय के पूर्ण नायक नायिका थे
    कोटिश नमन ऐसे पुण्यात्माओं को।

    ReplyDelete
  8. अत्यंत भावपूर्ण एवं मर्मस्पर्शी आलेख जेन्नी जी। माँ कहीं नहीं जाती उसके दिए संस्कार शिक्षा आचार-व्यवहार के रूप में वह सदा हमारे भीतर, हमारे मन में रहती है। आपने माँ को अनूठी श्रद्धांजलि दी है। सादर नमन।

    ReplyDelete
  9. बहुत ही भावपूर्ण पोस्ट ।माँ पर कितना भी लिखा जाय कम है।माँ की स्मृतियों को शत शत नमन।

    ReplyDelete
  10. माँ के जीवन के विविध पक्षों को उद्घाटित करता हुआ आपका यह भावपूर्ण लेख एक सम्पूर्ण युग की प्रतिध्वनियों को व्यक्त कर रहा है.वे प्रतिध्वनियाँ जो उस युग की नारी को हँसाती भी हैं रुलाती भी हैं और उन्हें विद्रोही भी बनाती हैं।आपकी पूज्य माताजी में जहाँ मातृ-पक्ष की परम्पराएँ हैं वहीं आपके पिता से ग्रहण की गई प्रगति चेतना भी है,वे परम्परा और प्रगति का एक साथ निर्वाह करती रहीं पर एक विद्रोही चेतना और जिजीविषा उन्हें सदैव सक्रिय किए रही वही संस्कार उन्होंने आप लोगों को दिए।सुंदर भावांजलि है आपकी।पूज्य माँ को नमन।शत शतनमन।

    ReplyDelete
  11. माँ बेटी का बड़ा भावुक सम्बन्ध होता है .. बहुत ही सुन्दर लिखा आपने .. कोई पोस्ट कभी छूट भी जाती हो मुझसे... पर माँ की पोस्ट पढ़ने से नहीं छुट सकती .. मैंने भी मम्मी पर बहुत लिखा है ... पोस्ट करूंगी... माताजी को नमन.. उनका आशीर्वाद सबपर बना रहे !

    ReplyDelete

  12. Mahavir उत्तराँचली
    Sun, 6 Feb, 08:17 (6 days ago)
    to jenny

    आदरणीय, नमन

    सम्पूर्ण चित्र खिंच कर आपने आदरणीय माताश्री को जीवित कर दिया है।
    इसको और विस्तृत करके लघु पुस्तिका के रूप में प्रकाशित करें! प्रथम पुण्य स्मृति पर सादर नमन!

    by
    mahavirUttranchali

    ReplyDelete
  13. Blogger दिगम्बर नासवा said...

    नमन है मेरा ...
    माँ की यादें जीवन भर साथ चलती हैं ... माँ भी हमेशा साथ ही रहती है ...

    January 31, 2022 at 10:41 AM Delete
    _____________________________________

    सही कहा दिगम्बर जी. आभार.

    ReplyDelete
  14. Blogger Shah Nawaz said...

    विनर्म श्रद्धांजलि...

    January 31, 2022 at 10:52 AM Delete
    ___________________________________

    शुक्रिया शाह नवाज़ जी.

    ReplyDelete
  15. Blogger कविता रावत said...

    ऐसे कई मौकों पर मां याद न आए, ऐसे कैसे हो सकता है, जीवन भर मां का साथ रहता है और वह भले ही भौतिक रूप से हमारे बीच न रहे, लेकिन आत्मिक रूप में वह ताउम्र हमारे बीच रहती है
    मां को सादर श्रद्धांजलि।

    February 1, 2022 at 1:14 PM Delete
    _______________________________________________

    कविता जी, हर ख़ास मौक़े पर माँ की याद बहुत सताती है. यही सोचती हूँ कि शायद वे मुझे देख-सुन रही होंगी. आभार.

    ReplyDelete
  16. Blogger विकास नैनवाल 'अंजान' said...

    विनम्र श्रद्धांजलि...

    February 2, 2022 at 9:22 PM Delete
    _________________________________________

    हार्दिक धन्यवाद विकास जी.

    ReplyDelete
  17. नीरज गोस्वामी said...


    जेन्नी जी आपने जिस तरह अपनी मम्मी को याद किया काम लोग करते हैं। आपके मम्मी पापा निसंदेह विलक्षण प्रतिभा वान थे। किसी सी बच्चे को ऐसे माँ -बाप पा कर गर्व होगा। समाज का चेहरा भी आपने साहस बेनक़ाब की किया है। मम्मी चाहे अब आपके साथ शारीरिक तौर पर नहीं हैं लेकिन उनकी दुआएं हमेशा आपके साथ रहेंगी। बहुत प्रेरक संस्मरण। विनम्र श्रद्धांजलि!!
    February 2, 2022 at 9:51 PM
    ____________________________________

    नीरज जी, जानती हूँ कि बहुत कुछ लिखना सही नहीं होता, लेकिन यही सच है. यह मेरा सौभाग्य है कि मैं ऐसे माता-पिता की संतान हूँ, जिन्होंने समाज में एक स्थान अर्जित किया है. मुझमें लेखन और चिन्तन की क्षमता भी मुझे इनसे ही मिली हैं. बस ये दोनों अब यादों में रह गए हैं. सराहनीय प्रतिक्रिया के लिए आभार आपका.

    ReplyDelete
  18. Blogger प्रतिभा सक्सेना said...

    बहुत घटनापूर्ण जीवन रहा माँ का और आपका भी.सुशिक्षित और सुसंस्कृत परिवेश में रह कर जीवन के जो अनुभव आपने पाये वे जीवन के साथ आपके लेखन को भी समृद्ध करेंगे.समय बीत गया लेकिन उसके अवशेष रहेंगे -व्यक्तित्व को जिन परिस्थितियों ने गढ़ा,वे किसी-न-किसी रूप में साथ रहेंगे ही;माँ कहीं नहीं गईं संस्कार,स्मृति,और आचार-व्यवहार में किसी रूप में उनकी विद्यमानता रहेगी - माँ और बेटी को विलगाना संभव ही नहीं.
    जेन्नी जी,मन को आश्वस्त कीजिये,वे जहां रहें परम शान्ति से रहें‍!

    उनकी पुण्य स्मृति को हमारा नत-शिर वन्दन‍!!

    February 3, 2022 at 12:02 AM Delete
    __________________________________________________

    प्रतिभा जी, आपकी संवेदनापूर्ण प्रतिक्रया के लिए आभार. मेरी माँ के संघर्ष से मैंने जीवन को बहुत क़रीब से समझा है, यह मेरे और मेरे लेखन के लिए सचमुच बहुत अच्छी बात है. हमेशा महसूस करती हूँ कि मम्मी यहीं कहीं हैं और मेरे साथ हैं. चाहती हूँ कि जहाँ रहें बहुत ख़ुश रहें. सादर धन्यवाद आपका.

    ReplyDelete
  19. Blogger Niranjan Welankar said...

    प्रणाम जी! विन्रम नमन| पूरा नही पढ पाया, लेकीन बहुत सुन्दर लिखा है| एक गुजरे जमाने की महत्त्वपूर्ण यादें बहुत प्यार से आपने संजोईं हैं और सादर की हैं| बहुत धन्यवाद|

    February 3, 2022 at 11:44 AM Delete
    __________________________________________

    आपने जितना पढ़ा उसके लिए धन्यवाद निरंजन जी. लिखते-लिखते बहुत बड़ा हो गया, काफ़ी कम करने पर भी इतना रह गया. यादें होती ही ऐसी हैं.

    ReplyDelete
  20. Blogger मुकेश कुमार सिन्हा said...

    विनम्र श्रद्धांजलि...

    February 3, 2022 at 12:17 PM Delete
    _________________________________________

    धन्यवाद मुकेश.

    ReplyDelete
  21. Blogger Sudha Devrani said...

    माँ को विनम्र श्रद्धांजलि🙏🙏🙏🙏
    माँ की पुण्यतिथि पर बहुत ही प्रेरक एवं हृदयस्पर्शी संस्मरण....ये समाज तो लकीर का फकीर चाहता है ऐसे लीग से हटकर जीने वाले विरले ही होते हैं फिर समाज उन्हें क्यों बक्सेगा...फिर भी आपके मम्मी पापा अपने समय के पूर्ण नायक नायिका थे
    कोटिश नमन ऐसे पुण्यात्माओं को।

    February 3, 2022 at 3:43 PM Delete
    ___________________________________________________

    सही कहा सुधा जी. मेरे लिए मेरे मम्मी-पापा सचमुच नायक रहे हैं. सोचने समझने और अभिव्यक्त करने की क्षमता भी मुझमें उनसे ही आई है. मेरे मम्मी-पापा को सम्मान देने के लिए आपका हृदय से आभार.

    ReplyDelete
  22. Blogger Sudershan Ratnakar said...

    अत्यंत भावपूर्ण एवं मर्मस्पर्शी आलेख जेन्नी जी। माँ कहीं नहीं जाती उसके दिए संस्कार शिक्षा आचार-व्यवहार के रूप में वह सदा हमारे भीतर, हमारे मन में रहती है। आपने माँ को अनूठी श्रद्धांजलि दी है। सादर नमन।

    February 4, 2022 at 6:12 PM Delete
    _____________________________________________

    आदरणीया रत्नाकर जी, मम्मी-पापा के विचार मुझमें समाहित हो चुके हैं, यह मेरे लिए गर्व की बात है, और मैं यह अक्सर महसूस भी करती हूँ. आपकी स्नेहपूर्ण प्रतिक्रिया के लिए आपका आभार.

    ReplyDelete
  23. Blogger जयकृष्ण राय तुषार said...

    बहुत ही भावपूर्ण पोस्ट ।माँ पर कितना भी लिखा जाय कम है।माँ की स्मृतियों को शत शत नमन।

    February 4, 2022 at 6:43 PM Delete
    _________________________________________

    सही कहा आपने. कितना कुछ लिखना रह गया. बातें यादें ख़त्म ही नहीं होतीं. धन्यवाद जयकृष्ण जी.

    ReplyDelete
  24. Blogger शिवजी श्रीवास्तव said...

    माँ के जीवन के विविध पक्षों को उद्घाटित करता हुआ आपका यह भावपूर्ण लेख एक सम्पूर्ण युग की प्रतिध्वनियों को व्यक्त कर रहा है.वे प्रतिध्वनियाँ जो उस युग की नारी को हँसाती भी हैं रुलाती भी हैं और उन्हें विद्रोही भी बनाती हैं।आपकी पूज्य माताजी में जहाँ मातृ-पक्ष की परम्पराएँ हैं वहीं आपके पिता से ग्रहण की गई प्रगति चेतना भी है,वे परम्परा और प्रगति का एक साथ निर्वाह करती रहीं पर एक विद्रोही चेतना और जिजीविषा उन्हें सदैव सक्रिय किए रही वही संस्कार उन्होंने आप लोगों को दिए।सुंदर भावांजलि है आपकी।पूज्य माँ को नमन।शत शतनमन।

    February 6, 2022 at 5:26 PM Delete
    _______________________________________________

    आदरणीय शिवजी जी, मम्मी-पापा के जीवन से मैं उस वक़्त के जीवन और विचार को समझ सकी हूँ. यह भी समझ सकी कि उन दोनों के लिए अपने-अपने परिवेश से बाहर आकर एक अलग तरह का जीवन जीना और अपना सोच कायम करना कितना कठिन रहा होगा. जिजीविषा होने के कारण अंतिम समय के कुछ पहले तक मम्मी न सिर्फ़ सक्रिय रही बल्कि हार के बाद जीतने का हौसला कम नहीं होने देती थी. सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आपका आभार.

    ReplyDelete
  25. Anonymous Sangita Puri said...

    माँ बेटी का बड़ा भावुक सम्बन्ध होता है .. बहुत ही सुन्दर लिखा आपने .. कोई पोस्ट कभी छूट भी जाती हो मुझसे... पर माँ की पोस्ट पढ़ने से नहीं छुट सकती .. मैंने भी मम्मी पर बहुत लिखा है ... पोस्ट करूंगी... माताजी को नमन.. उनका आशीर्वाद सबपर बना रहे !

    February 10, 2022 at 11:49 PM Delete
    ___________________________________________

    माँ का रिश्ता होता ही ऐसा है कि उनके जाने के बाद ऐसी रिक्ति आती है जो चुभती है दिखती नहीं. अपनी माँ पर लिखे आपके आलेख का इंतज़ार रहेगा. हार्दिक धन्यवाद संगीता जी.

    ReplyDelete
  26. Mahavir उत्तराँचली
    Sun, 6 Feb, 08:17 (6 days ago)
    to jenny

    आदरणीय, नमन

    सम्पूर्ण चित्र खिंच कर आपने आदरणीय माताश्री को जीवित कर दिया है।
    इसको और विस्तृत करके लघु पुस्तिका के रूप में प्रकाशित करें! प्रथम पुण्य स्मृति पर सादर नमन!

    by
    mahavirUttranchali

    February 12, 2022 at 9:42 PM Delete
    _______________________________________

    महावीर जी, आपने बहुत अच्छी सलाह दी है. कोशिश रहेगी कि पुस्तिका के रूप में अपने माता-पिता की यादों को संकलित कर सकूँ. आपका बहुत बहुत आभार.

    ReplyDelete
  27. बहुत दिल से लिखी आपकी इस पोस्ट के लिए दिल से ढेरों बधाई और आपके मम्मी पापा की यादों को सादर नमन

    ReplyDelete
  28. Very beautifully written, it really touched my heart and soul.Your mother was a legend,hats off to her and you.I feel immensely proud to be associated with you. - Sunita Aggarwal

    ReplyDelete
  29. प्रियंका गुप्ता said...

    बहुत दिल से लिखी आपकी इस पोस्ट के लिए दिल से ढेरों बधाई और आपके मम्मी पापा की यादों को सादर नमन
    March 13, 2022 at 3:10 PM
    ____________________________________________________

    बहुत बहुत शुक्रिया प्रियंका जी, आपने बहुत दिल से पढ़ा इसे.

    ReplyDelete
  30. Blogger Unknown said...

    Very beautifully written, it really touched my heart and soul.Your mother was a legend,hats off to her and you.I feel immensely proud to be associated with you. - Sunita Aggarwal

    March 19, 2022 at 7:33 PM Delete
    ______________________________________

    बहुत बहुत धन्यवाद सुनीता.

    ReplyDelete
  31. प्रिय जेनी
    18 जुलाई का खुशनुमा आयोजन और तुम्हारे रचनात्मक व्यक्तित्व का वांछित रूप सब आंखों में तैर आया।मरजीना नाम मेरे जीवन में भी एक महत्वपूर्ण नाम है ।व्याख्या जानकर बड़ा अच्छा लगा।
    इस बीच तुम्हारी मम्मी के ऊंचे व्यक्तित्व के बारे में भी पढ़ा।तुम्हारी जैसी बेटी पर उनकी आत्मा कितना संतोष पा रही होगी।
    मेरी ओर से तुम्हें बहुत प्यार और शुभकामनाएं।

    ReplyDelete