प्रकाशक: हिन्द-युग्म ब्लू, नोएडा, सन- 2020
मूल्य- 120/-रु., पृष्ठ- 112, ISBN NO. : 978-93-87464-73-5
भूमिका- रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ एवं संगीता गुप्ता
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शब्दों में सिमटे हुए लम्हों के सफ़र
आपके इस जीवन में यथार्थ की धरातल पर भोगे हुए अच्छे-बुरे पलों की पड़ताल करती कविताओं का यह एक गुलदस्ता है जिसमें एक संवेदनशील स्त्री के बनते-बिखरते अरमानों का शब्दांकन है। ये कविताएँ अपने वक़्त की जुगाली करती हुई वर्तमान की धरातल पर उसका डिसेक्शन करती हैं और विचारों की हाँडी में इसे पकाकर परोस देती हैं। कविताएँ यूँ तो ख़ामोशी की पड़ताल करती हैं; लेकिन इसकी आगोश में अब चीख, क्रंदन और आन्दोलनों के स्वर भी शामिल हुए हैं।
आपका यह प्रथम काव्य-संग्रह इन सात भागों में विभाजित है- जा तुझे इश्क़ हो, अपनी कहूँ, रिश्तों का कैनवास, आधा आसमान, साझे सरोकार, जिंदगी से कहा-सुनी और चिंतन। इसे आपने अपने पूज्य माताजी एवं पिताजी को सादर समर्पित किया है। इस संग्रह का केन्द्रीय भाव- ‘स्त्रियों की आवाज़ को बुलंद करना है’। यह संग्रह उनके भोगते हुए वर्तमान और भूतकाल की पीड़ा से ऊपर उठकर एक स्वर्णिम भविष्य रचना चाहती है।
इस जीवन में कोई किसी की जिंदगी नहीं जी सकता; लेकिन वह ज़रूर चाहता है कि अगला व्यक्ति उसकी तरह व्यवहार करे, उसके इशारे पर उठे-बैठे और हँसे-रोए, जो संभव ही नहीं, ख़ासकर किसी युगल के जीवन में, स्त्रियों के लिए तो बिल्कुल भी नहीं। इनका जीवन पुरुषों के मुक़ाबले काफ़ी सुकोमल और चिन्तनमना होता है। कविता के द्वारा इस दर्द को सहने हेतु एक श्राप देने की कोशिश आपने की है, वह भी बड़ी अजीब है कि ''जा तुझे इश्क हो!''
...ग़ैरों के दर्द को महसूस करना और बात है / दर्द को ख़ुद जीना और बात / एक बार तुम भी जी लो, मेरी ज़िंदगी / जी चाहता है / तुम्हें शाप दे ही दूँ- / ''जा तुझे इश्क हो!''
जीवन की गाड़ी के दोनों पहिए गर साथ चलें तो गृहस्थी बेहतर चलती है, लेकिन यदि एक की राह में पगडंडी हो और एक की राह में आकाश हो, तो ये पंक्तियाँ सहज ही जन्म लेती हैं-
...अबकी जो आओ, तो मैं तुमसे सीख लूँगी / ख़ुद को जलाकर भाप बनना / और बिना पंख आसमान में उड़ना / अबकी जो आओ / एक दूसरे का हुनर सीख लेंगे / मेरी पगडंडी और तुम्हारा आसमान / दोनों को मुट्ठी में भर लेंगे / तुम मुझसे सीख लेना... / मैं सीख लूँगी...।
जब कोई अपनी बातों की गठरी किसी अपने या साहित्य के आँचल में खोलती है, तो उसकी अपनी आपबीती कुछ यूँ प्रकट हो ही जाती है-
...दर्द में आँसू निकलते हैं, काटो तो रक्त बहता है / ठोकर लगे तो पीड़ा होती है, दग़ा मिले तो दिल तड़पता है / ...मेरे जज़्बात मुझसे अब रिहाई माँगते हैं / ... / हाँ, मैं सिर्फ़ एक शब्द नहीं / साँसे भारती हाड़-मांस की / मैं भी जीवित इंसान हूँ।
कुछ देर और ठहर जाने पर पता चलता है कि गाँव की ख़ुशबू साथ लिए वो नन्ही लड़की शहर चली गई, जहाँ शायद वह पत्थरों में चुन दी गई। आज भी इन कविताओं में कवयित्री के अतीत के अंतहीन दर्द को महसूस किया जा सकता है, विशेषकर जब उसे 'बेचारी' शब्द का संबोधन सुनने को मिलता है, तब यह दर्द फफोले की तरह सीने में अक्सर उभर आता है। इसी दौर में वह पुकार उठती है एक छोटी बच्ची बनकर, अपने बाबा को यह कहते हुए कि- ''बाबा आओ देखो! तुम्हारी बिटिया रोती है।'' इसी बिटिया की सभी चाहतें उसके गुल्लक में बंद हैं; बरसों से सोचती थी कि इनसे वह अपने सपने खरीदेगी, लेकिन यह मुमकिन नही हो पाया और वह लिख पड़ी-
...गुल्लक और पैसे, मेरे सपनों की यादें हैं... / चलन से मैं भी उठ गई और ये पैसे भी मेरे... / एक ही चुनरी में बँधे सब साथ जीते हैं... / ...मेरे पैसे, मेरे सपने, गुल्लक के टुकड़े और मैं।
रिश्तों को सँभालने का ज़्यादा दायित्व चाहे-अनचाहे स्त्रियों पर थोप दिया जाता है। इसी परम्परा को निभाते हुए जेन्नी जी अपने पिताजी और माताजी की यादों की निशानियाँ सहेजती हैं और अपने पुत्र के लिए लिखती हैं-
''...अपनी तमाम संवेदनाएँ तुममें भर दूँ /...तुम जीवन-युद्ध में डटे रहोगे / जो तुम्हें किसी के विरुद्ध नहीं / बल्कि स्वयं को स्थापित करने के लिए करना है...'' और अपनी पुत्री के लिए लिखती हैं- ...सिर्फ़ अपने दम पर / सपनों को पंख लगाकर / हर हार को जीत में बदल देना / तुम क्रांति-बीज बन जाना!'' तथा ''...दूसरों... / ताकि धरातल पर, जीवन की सुगंध फैले / और तुम्हारा जीवन परिपूर्ण हो / जान लो / सपने और जीवन / यथार्थ के धरातल पर ही / सफल होते हैं।''
वाक़ई इस दौर में माताओं के ही हिस्से में रह गया है कि वे अपनी संतानों को सुसंस्कारित बनाएँ; पुरुष प्रधान इस युग की यही एक बड़ी विडम्बना है कि वे स्वयं इस ओर से पूर्णतः ग़ैरज़िम्मेदार रहते हैं। यद्यपि रिश्तों के संधान के बारे में यह कहा जाता है कि- ये त्याग की मज़बूत धरातल पर टिके होते हैं और स्वार्थ की मामूली आँधी में भरभराकर टूट जाते हैं।
वर्तमान दौर का सबसे बड़ा स्लोगन है- ''बेटी बचाओ - बेटी पढ़ाओ''। हमें इसकी ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि हमने तमाम स्त्रियों को भोग्या समझा और कन्या के लालन-पालन को सबसे बड़ा सिरदर्द; फलतः एक नई समस्या हमारे समक्ष खड़ी हुई- कन्या भ्रूण हत्या, तथा जन्म हुआ एक पैशाचिक कृत्यों वाले समय का। ऐसे दौर में हमारी आधी आबादी आज हमारे समक्ष स्वतंत्रता के लिए आंदोलित और मुखरित हुई जो स्वाभाविक ही है। ऐसी ही साथियों के लिए जेन्नी जी लिखती हैं एक आंदोलित कविता- ‘मैं स्त्री हूँ’। आपने वाजिब सवाल उठाया है कि आख़िर क्यों अलग है स्त्रियों और पुरुषों के गणित, विज्ञान और उनके जीवन का फार्मूला? इसे समझने के लिए दोनों को एक जैसा होना ही होगा - बहुत सुन्दर पंक्तियाँ। आपने 'झाँकती खिड़की' कविता के ज़रिए किसी लड़की की इच्छाओं को व्यक्त किया है -
''...कौन पूछता है, खिड़की की चाह / अनचाहा-सा कोई / धड़धड़ाता हुआ पल्ला ठेल देता है / खिड़की बाहर झाँकना बंद कर देती है / आस मर जाती है / बाहर एक लम्बी सड़क है / जहाँ आवागमन है ज़िंदगी है / पर, खिड़की झाँकने की सज़ा पाती है / अब न वह बाहर झाँकती है / न उम्र के आईने को ताकती है।''
अपनी कविताओं में आप स्त्रियों के पक्ष में वज़नदार तरीके से पक्षधरता को निभाते हुए लिखती हैं-
''...घर भी अजनबी, और वो मर्द भी / नहीं है औरत के लिए, कोई कोना / जहाँ सुकून से, रो भी सके।''
''... / ओ पापी कपूतों की अम्मा! / तेरे बेटे की आँखों में जब हवस दिखा था / क्यों न फोड़ दी थी उसकी आँखें...।''
इस समय हमें ज़रूरत है एक साझे सरोकार की, जब हम यह कहने से नहीं हिचकें कि ''मेरा भी जाता है, मुझे भी लेना-देना है, ये मेरे परिवार से है।'' इस युग में हम सिर्फ़ शासक होकर ज़िंदा नहीं रह सकते और न ही ये मान सकते कि-
''... / शासक होना ईश्वर का वरदान है / शोषित होना ईश्वर का शाप!''
''... / ओ संगतराश! / कुछ ऐसे बुत भी बनाओ / जो आग उगल सके / पानी को मुट्ठी में समेट ले / हवा का रुख़ मोड़ दे / ... / गढ़ दो, आज की दुनिया के लिए / कुछ इंसानी बुत!''
आपने भागलपुर के दंगों की आँखों देखी लिखी है, जहाँ इंसानों को आपने हैवान बनते देखा है, जहाँ आपने रिश्तों को खून से लहूलुहान देखा है और इतनी विभीषिका के बीच आपने अपने आपके भीतर की मनुष्यता को बचाए रखा है, ये सबसे बड़ी बात है। इस तरह के तीन वाक़यों से मैं भी गुज़रा हूँ, तो समझ सकता हूँ कि इस दौर में कैसे ज़िंदा रहा जाता है। वाक़ई जब हमें दूसरों के दर्द का अहसास होता है तभी हम सही मायने में इंसान हैं, वर्ना यहाँ ज़िंदा तो घूमती-फिरती लाशें भी हैं। ‘मालिक की किरपा’ कविता ग़रीबी में पलते अंधविश्वास पर करारी चोट है।
कोई भी साहित्यकार के पास ये एक बड़ी पूँजी होती है कि वे अपने वक़्त और ज़िंदगी की आँखों में आँखें डालकर बात कर सके, साथ ही अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा कह सके।
''... / सब के पाँव के छाले / आपस में मूक संवाद करते हैं /अपने-अपने, लम्हों के सफ़र पर निकले हम / वक़्त को हाज़िर नाज़िर मानकर / अपने हर लम्हे को यहाँ दफ़न करते हैं / चलो अब अपना सफ़र शुरू करते हैं।''
वाक़ई ज़िंदगी एक बेशब्द किताब की तरह है, जहाँ शब्द हमारे ज़ुबाँ से झरते हैं, यही हमारा पासवर्ड भी है; यूँ ही कोई आकर हमें कुरेदकर हमारी इस किताब को मुफ़्त में नहीं पढ़ सकता। इस ज़िंदगी में हमें अपने लिबास सहेजते हुए कहना ही होगा- ‘कहो ज़िंदगी’ और लिखना ही होगा रोज़ एक ख़त अपने ही नाम का, क्योंकि चारों ओर काला जादू पसरा हुआ है-
''... / मैंने किसी का, कुछ भी तो न छीना, न बिगाड़ा / फिर मेरे जीवन में, रेगिस्तान कहाँ से पनप जाता है / कैसे आँखों में, आँसू की जगह, रक्त-धार बहने लगती है / कौन पलट देता है, मेरी क़िस्मत / कौन है, जो काला जादू करता है?''
वर्तमान युग में जीवन के लिए चिन्तन एक ज़रूरी पक्ष है, जिसमें हम अपने खोए-पाए का हिसाब रखते हैं कि कब हमें कितना हँसना-हँसाना है और कब हमें रोना है, हमारे जीवन की धुरी क्या है? प्रेम का रंग क्या है? मेरी आत्मा उसकी आत्मा से अलग कैसे है? इन्हीं सब प्रश्नों के इर्द-गिर्द हमारी ज़िंदगी किसी चकरघिन्नी की तरह घूमते रहती है। ऐसे ही हालातों में ये शब्द गढ़े जाते हैं-
''हँसी बेकार पड़ी है, यूँ ही कोने में कहीं / ख़ुशी ग़मगीन रखी है, ज़ीने में कहीं / ज़िंदगी गुमसुम खड़ी है, अँगने में कहीं / अपने इस्तेमाल की आस लगाए / ठिठके सहमे से हैं सभी।''
मैं वाली इस दुनिया में हम कहाँ समझ पाते हैं कि-
''... / हर पल मेरे बदन में हज़ारों मछलियाँ / ऐसे ही जनमती और मरती हैं / उसकी और मेरी तक़दीर एक है / फ़र्क महज़ ज़ुबान और बेज़ुबान का है।''
आपकी कविता ज़िंदगी की खुरदरी सतह पर संवेदनाओं का गीत है, अपने आसपास के सामजिक सरोकारों की पड़ताल है, दबी ज़ुबान से बोले जाने वाले प्रश्नों को खुलेपन से कहने का साहस रखती है। इन कविताओं में एक स्त्री का स्वाभिमान बोलता है कि कैसी-कैसी परिस्थितियों के साथ उसे दो-चार होना होता है, जो उसके और समाज के लिए विचारणीय बिंदु है। आपके शब्द जीवंत होकर सीधे ही पाठकों को खदबदाने का साहस रखते हैं और ये अपने लम्हों के मुनीम भी हैं।
अच्छी रचनाओं के इस पठनीय संग्रह के लिए आपको बधाई एवं शुभकामनाएँ!
होली - 2021
रमेश कुमार सोनी
कबीर नगर, रायपुर
छत्तीसगढ़ - 492099
संपर्क - 7049355476 / 9424220209
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बहुत सुन्दर समीक्षा।
ReplyDeleteबधाई हो।
सोनी जी की समीक्षा से आपके सृजन की एक झलक मिली है। आभार उनका, अभिनंदन आपका।
ReplyDeleteलम्हों का सफर के लिए पुनः बधाई । अच्छा लिखने के लिए अच्छा मन भी होना आवश्यक है और ये सब अच्छे साहित्य के अध्ययन से मिलता है।
ReplyDeleteसुंदर एवं सम्यक समीक्षा।आपको तथा रमेश कुमार सोनी जी को हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteबढ़िया समीक्षा - बधाई
ReplyDeleteबहुत सुंदर,सटीक विश्लेषण। रमेश कुमार सोनी जी एवं जेन्नी जी को सुंदर सृजन के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर-सार्थक समीक्षा है, रमेश जी को बहुत बधाई...साथ ही इतने उम्दा संग्रह के लिए आपको भी बधाई...|
ReplyDeleteलम्हों का सफर नाम ही बहुत उम्दा है साथ ही इतनी सुंदर एवं सार्थक समीक्षा के लिए रमेश कुमार सोनी जी को बहुत बधाई एवं आपको भी इस काव्य संग्रह की बहुत बहुत बधाई।
ReplyDelete
ReplyDeleteRam Chandra Verma
10:52 (11 hours ago)
to me
रमेश कुमार सोनी जी ने जिस अद्भुत अन्दाज़ में आपके कविता संग्रह 'लम्हों का सफ़र' की समीक्षा की है वह वाक़ई क़ाबिले-तारीफ़ है। मुझे नहीं लगता इससे बढ़िया समीक्षा लिखी जा सकती है। कविताओं में से कितने सारे सटीक उद्धरण निकाल कर अपनी अनूठी शैली में जो जो उन्होंने कहा,अप्रतिम है और वे ही ऐसा सब कह सकते हैं।
ऐसे प्यारे अन्दाज़े-बयाँ के लिये उनका बहुत बहुत शुक्रिया और आभार तथा आपको ढेर सारी मुबारकबाद और दिली-दुआएँ। साहिल
रमेश कुमार सोनी जी ने आपके कविता संग्रह 'लम्हों का सफ़र' की समीक्षा बहुत रोचक ढंग से की है। इसे पढ़ कर लम्हों के सफ़र की तमाम कविताओं के प्रति जिज्ञासा जगती है। निश्चय ही बेहतरीन संग्रह होगा यह।
ReplyDeleteआपके सृजन की गहराई अभिव्यक्ति की ऊंचाइयों को छूने
की क्षमता रखती है।
आपके ब्लॉग में उपस्थित कविताएं इस बात का प्रमाण हैं।
बहुत बधाई आदरणीया जेन्नी शबनम जी 🙏
बहुत धन्यवाद रमेश कुमार सोनी जी 🙏
आप की पोस्ट बहुत अच्छी है आप अपनी रचना यहाँ भी प्राकाशित कर सकते हैं, व महान रचनाकरो की प्रसिद्ध रचना पढ सकते हैं।
ReplyDeleteBlogger डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर समीक्षा।
बधाई हो।
April 8, 2021 at 7:16 AM Delete
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आभार आपका शास्त्री जी.
Blogger जितेन्द्र माथुर said...
ReplyDeleteसोनी जी की समीक्षा से आपके सृजन की एक झलक मिली है। आभार उनका, अभिनंदन आपका।
April 8, 2021 at 10:57 AM Delete
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बहुत बहुत शुक्रिया जितेन्द्र जी.
Blogger Ramesh Kumar Soni said...
ReplyDeleteलम्हों का सफर के लिए पुनः बधाई । अच्छा लिखने के लिए अच्छा मन भी होना आवश्यक है और ये सब अच्छे साहित्य के अध्ययन से मिलता है।
April 9, 2021 at 10:12 AM Delete
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आपने मेरी पुस्तक की इतनी सुन्दर समीक्षा की है, मैं कृतज्ञ हूँ. आभार आपका.
Blogger शिवजी श्रीवास्तव said...
ReplyDeleteसुंदर एवं सम्यक समीक्षा।आपको तथा रमेश कुमार सोनी जी को हार्दिक बधाई।
April 9, 2021 at 3:53 PM Delete
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बहुत बहुत आपका आभार शिवजी श्रीवास्त जी.
Blogger Udan Tashtari said...
ReplyDeleteबढ़िया समीक्षा - बधाई
April 9, 2021 at 4:41 PM Delete
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धन्यवाद समीर जी.
Blogger Sudershan Ratnakar said...
ReplyDeleteबहुत सुंदर,सटीक विश्लेषण। रमेश कुमार सोनी जी एवं जेन्नी जी को सुंदर सृजन के लिए हार्दिक बधाई।
April 9, 2021 at 6:30 PM Delete
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आपका बहुत आभार आदरणीया रत्नाकर जी.
Blogger प्रियंका गुप्ता said...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर-सार्थक समीक्षा है, रमेश जी को बहुत बधाई...साथ ही इतने उम्दा संग्रह के लिए आपको भी बधाई...|
April 9, 2021 at 7:52 PM Delete
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बहुत बहुत धन्यवाद प्रियंका जी.
Blogger Pallavi saxena said...
ReplyDeleteलम्हों का सफर नाम ही बहुत उम्दा है साथ ही इतनी सुंदर एवं सार्थक समीक्षा के लिए रमेश कुमार सोनी जी को बहुत बधाई एवं आपको भी इस काव्य संग्रह की बहुत बहुत बधाई।
April 12, 2021 at 11:00 AM Delete
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पल्लवी जी, यह नाम मेरे कविताओं के ब्लॉग का नाम है, इसी लिए पुस्तक का नाम भी यही रखा. बहुत धन्यवाद आपका.
Blogger डॉ. जेन्नी शबनम said...
ReplyDeleteRam Chandra Verma
10:52 (11 hours ago)
to me
रमेश कुमार सोनी जी ने जिस अद्भुत अन्दाज़ में आपके कविता संग्रह 'लम्हों का सफ़र' की समीक्षा की है वह वाक़ई क़ाबिले-तारीफ़ है। मुझे नहीं लगता इससे बढ़िया समीक्षा लिखी जा सकती है। कविताओं में से कितने सारे सटीक उद्धरण निकाल कर अपनी अनूठी शैली में जो जो उन्होंने कहा,अप्रतिम है और वे ही ऐसा सब कह सकते हैं।
ऐसे प्यारे अन्दाज़े-बयाँ के लिये उनका बहुत बहुत शुक्रिया और आभार तथा आपको ढेर सारी मुबारकबाद और दिली-दुआएँ। साहिल
April 14, 2021 at 10:32 PM Delete
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आदरणीय रामचन्द्र 'साहिल' जी, आपका बहुत बहुत धन्यवाद, आपने मेरे इस संग्रह को पढ़कर बहुत सुन्दर समीक्षा की थी. और अब सोनी जी की समीक्षा पर आपकी सार्थक प्रतिक्रिया से लिखने का मनोबल बढ़ता है. सादर.
Blogger Dr Varsha Singh said...
ReplyDeleteरमेश कुमार सोनी जी ने आपके कविता संग्रह 'लम्हों का सफ़र' की समीक्षा बहुत रोचक ढंग से की है। इसे पढ़ कर लम्हों के सफ़र की तमाम कविताओं के प्रति जिज्ञासा जगती है। निश्चय ही बेहतरीन संग्रह होगा यह।
आपके सृजन की गहराई अभिव्यक्ति की ऊंचाइयों को छूने
की क्षमता रखती है।
आपके ब्लॉग में उपस्थित कविताएं इस बात का प्रमाण हैं।
बहुत बधाई आदरणीया जेन्नी शबनम जी 🙏
बहुत धन्यवाद रमेश कुमार सोनी जी 🙏
April 16, 2021 at 12:32 PM Delete
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वर्षा सिंह जी, मेरी रचनाओं और पुस्तक को प्यार देने के लिए हृदय से धन्यवाद.
Blogger Admin said...
ReplyDeleteआप की पोस्ट बहुत अच्छी है आप अपनी रचना यहाँ भी प्राकाशित कर सकते हैं, व महान रचनाकरो की प्रसिद्ध रचना पढ सकते हैं।
April 18, 2021 at 7:37 PM Delete
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जी, धन्यवाद.