वर्ष 2019, जून की बात है। मेरी ब्लॉगर मित्र श्रीमती रेखा श्रीवास्तव जी का सन्देश प्राप्त हुआ कि वे कुछ ब्लॉगारों के 'अधूरे सपनों की कसक' शीर्षक से अपने सम्पादन में एक पुस्तक-प्रकाशन की योजना बना रही हैं; अतः मैं अपने अधूरे सपनों की कसक लिखकर भेजूँ। अपने कुछ अधूरे सपनों को याद करने लगी, जो अक्सर मुझे टीस देते हैं। यों सपने तो हज़ारों देखे, मगर कुछ ऐसी तक़दीर रही मानो नींद में सपना देखा और जागते ही सब टूट गया। कुछ सपने ऐसे भी देखे, जिनको पूरा करने की दिशा में न कोई कोशिश की, न एक क़दम भी आगे बढ़ाया। कुछ सपने जिनके लिए कोशिश की, वे अधूरे रह गए। मेरे कुछ अधूरे सपने 'अधूरे सपनों की कसक' पुस्तक में शामिल है, जिसे यहाँ प्रेषित कर रही हूँ, इस विश्वास के साथ कि कोई मुझे पढ़े, तो वे अपने सपनों को पूरा करने में अवश्य लग जाए, अन्यथा उम्र भर टीस रह जाएगी। अगर सपने पूर्ण न हो सकें, तो कम-से-कम यह संतोष तो रहेगा कि हमने कोशिश तो की। अन्यथा आत्मविश्वास ख़त्म होने लगता है और जीवन की दुरूह राहों से समय से पहले भाग जाने को मन व्यग्र रहता है।
मेरा सपना
***
अपने छूटे
सब सपने टूटे,
जीवन बचा।
सपने देखने की उम्र कब आई कब गुज़र गई, समझ न सकी। 1978 में जब मैं 12 वर्ष की थी, पिता गुज़र गए। तब अचानक यूँ बड़ी हो गई, जिसमें सपनों के लिए कोई जगह नहीं बची। पिता के गुज़र जाने के बाद एक-एक कर मैंने शिक्षा की उच्च डिग्रियाँ हासिल की, और तब भविष्य के लिए कुछ सपने भी सँजोने लगी।
कैसी पहेली
ज़िन्दगी हुई अवाक्
अनसुलझी।
मेरे पिता यूनिवर्सिटी प्रोफ़ेसर थे। बचपन में उनकी ज़िन्दगी को देखकर उनकी तरह ही बनने का सपना देखने लगी, जब मैं कॉलेज में पढ़ती थी।1993 में बिहार पब्लिक सर्विस कमीशन में राजकीय महिला पॉलिटेकनिक में व्याख्याता के पद के लिए आवेदन किया था। मेरा स्थायी पता तब भी भागलपुर ही था और उसी पते पर पत्राचार होता था। उन दिनों मैं गुवाहाटी में अपने ससुराल में रह रही थी। मुझे अपने प्रमाण पत्रों के साथ निश्चित तिथि को बुलाया गया था। गुवाहाटी में होने के कारण मैं वक़्त पर पटना न जा सकी; क्योंकि मेरा बेटा उस समय कुछ माह का ही था। कुछ महीने के बाद दोबारा कॉल लेटर आया कि मैं अपने प्रमाण पत्रों के साथ उपस्थित होऊँ। मैं जब तक पटना आई, तब तक वह तिथि भी बीत गई। फिर भी मैंने निवेदन किया कि चूँकि मैं भागलपुर में नहीं थी अतः उपरोक्त तिथि पर उपस्थित न हो सकी, इसलिए एक बार पुनः विचार किया जाए। संयोग से मेरे आवेदन पर विचार हुआ और मुझे सभी प्रमाण पत्र जमा करने और कॉल लेटर की प्रतीक्षा करने को कहा गया। ऐसा दुर्भाग्य रहा कि मुझे उसी दौरान दिल्ली लौट जाना पड़ा और मिली हुई नौकरी मेरे हाथ से निकल गई।अब तक इस बात का पछतावा है कि मैं उस समय पटना से बाहर क्यों गई।मेरे स्थान पर किसी और को नौकरी मिल गई होगी, इस बात की ख़ुशी है, पर अपने सपने के अधूरे रह जाने का मलाल भी बहुत है।
ताकती रही
जी गया कोई और
ज़िन्दगी मेरी।
1995 में 'बिहार एलिजिबिलिटी टेस्ट फॉर लेक्चरशिप' (बी.इ.टी. / B.E.T.) की लिखित परीक्षा मैंने पास की। इंटरव्यू से पहले पता चला कि बिना पैसे दिए इंटरव्यू में सफल नहीं हो सकते हैं। मैंने अपने विचार के विरुद्ध और वक़्त के अनुसार पचास हज़ार रुपये का प्रबंध किया। चूँकि उन दिनों हमारी आर्थिक स्थिति बहुत ही ख़राब थी, इसलिए यह नौकरी मुझे हर हाल में चाहिए थी तथा मेरे पसंद का कार्य भी था। लेकिन ऐसा कोई व्यक्ति मुझे न मिल सका, जो पैसे लेकर नौकरी दिला पाने की गारंटी देता। मुझे यह डर भी था कि यदि पैसे भी चले गए और नौकरी भी न मिली, तो उधार के पैसे कैसे वापस लौटाऊँगी। यूँ मेरी माँ और भाई से लिए पैसे मुझे नहीं लौटाने थे लेकिन ससुराल पक्ष के एक रिश्तेदार से लिए पैसे मुझे लौटाने ही होते। अंततः घूस के लिए मैंने पैसे नहीं दिए। इंटरव्यू दिया और मैं सफल रही।कुल 15 सीट के लिए वैकेन्सी थी और मुझे 12वाँ स्थान मिला था। मैं बहुत ख़ुश थी कि बिना घूस दिए मेरा चयन हो गया और मैं अपने सपने को पूरा कर पाई। बाद में पता चला कि सिर्फ़ 11 लोगों को ही लिया गया और शेष 4 सीट को वैकेंट छोड़ दिया गया। मुमकिन है पैसे नहीं देने के कारण हुआ हो या फिर राजनितिक हस्तक्षेप के कारण। मेरे सपने टुकड़ों-टुकड़ों में बिखर गए। जब-जब 'बी.इ.टी.' का प्रमाणपत्र और पॉलिटेक्निक का कॉल लेटर देखती हूँ, तो मन के किसी कोने में ऐसा कुछ दरकता है, जिसकी आवाज़ कोई नहीं सुनता; लेकिन वह कसक मुझे चैन से सोने नहीं देती है।
ओ मेरे बाबा!
तुम हो गए स्वप्न
छोड़ जो गए।
यूँ तो मेरी ज़िन्दगी में बहुत सारी कमियाँ रह गईं, जिनकी टीस मन से कभी गई नहीं। पिता की मृत्यु के बाद उनके मृत शरीर का अन्तिम दर्शन, उनका अन्तिम स्पर्श नहीं कर पाई, यह कसक आजीवन रहेगी। जीवन में एक बहुत बड़ा पछतावा यह भी है कि समय-समय पर मैंने ठोस क़दम क्यों न उठाया। वक़्त के साथ कुछ सपने ऐसे थे, जिसे मैं पाना चाहती थी; परन्तु उम्र बढ़ने के साथ-साथ मेरे जीवन में हार और ख़ुद को खोने का सिलसिला शुरू हो गया। आज जब पाती हूँ कि जीवन में सब तरफ़ से हार चुकी हूँ और असफलता से घिर चुकी हूँ, तो अपनी हर मात और कसक मुझे चैन से सोने नहीं देती है। पिता नास्तिक थे मैं भी हूँ, पर अब क़िस्मत जैसी चीज़ में खुद को खोने और खोजने लगी हूँ। नदी के प्रवाह में कभी बह न सकी, अपनी पीड़ा किसी से कह न सकी।
रिसता लहू
चाक-चाक ज़िन्दगी
चुपचाप मैं।
- जेन्नी शबनम (29.6.2019)
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ऐसी कई सच्चाइयां बिखरी पड़ी हैं रेत में
ReplyDeleteफ़िर भी हम आसमां की ओर देखते हैं
किसी को कोई शिकायत नहीं है रोशनी से
सूरज का सुबह निकलना और चांद का रात में
अंधेरा कहां है अंधेरे से हमेशा ही पूछते हैं।
सब सपने कहाँ पूरे होते हैं ,इस बुक में पढ़ा था इसको पहले भी अधूरे सपनों की कसक ...चैन से सोने नहीं देती सच है
ReplyDeleteवाह । मैंने पुस्तक में सबके ख्वाबों को पढा था और यही महसूस किया था कि हम सब कहीं न कहीं एक जैसे हैं । रेखा दीदी , ने बहुत बेहतरीन उपहार दिया ये ब्लॉगर्स को ।
ReplyDeleteइस किताब में मेरा भी एक अधूरा सपना प्रकाशित हुआ है।
ReplyDeleteसच मे अधूरे सपने की कसक ताउम्र रहती है।
जीवन के आधे अधूरे सपने सच में बड़े बेचैन करते हैं....आपके सपने और फिर उनका पल भर में हाथ से खिसकना पढकर बड़ा दुख हुआ...ऐसे ही मेरी रचना के चन्द पंक्तियां जो यही कहने की कोशिश है कि बीते सपने यूँ जीवन में बार-बार याद आते हैं
ReplyDeleteदिन ढ़लने को आया देखो
सांझ सामने आयी.....
सुबह के सपने ने जाने क्यूँ
ली मन में अंगड़ाई......
बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण सृजन है आपका।
कुछ सपने जो आधे -अधूरे
ReplyDeleteयत्र-तत्र बिखरे मन में यूँ
जाने कब होंगे पूरे .....?
मेरे सपने जो आधे -अधूरे
दिन ढ़लने को आया देखो
सांझ सामने आयी.....
सुबह के सपने ने जाने क्यूँ
ली मन में अंगड़ाई......
ये अधूरे सपने यदा टदा यादों के रूप में सामने आ ही जाते हैं और एक कसक छोड़ देते हैं जीवन में।
बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण सृजन।
आदरणीय,
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग "ग़ज़लयात्रा" में आपका स्वागत है। इसमें आप भी शामिल हैं-
https://ghazalyatra.blogspot.com/2020/12/blog-post_70.html?m=1
गंगा | कुछ ग़ज़लें | कुछ शेर | डॉ. वर्षा सिंह
ग़ज़लों में गंगा की उपस्थिति
- डॉ. वर्षा सिंह
Blogger सुशील कुमार जोशी said...
ReplyDeleteऐसी कई सच्चाइयां बिखरी पड़ी हैं रेत में
फ़िर भी हम आसमां की ओर देखते हैं
किसी को कोई शिकायत नहीं है रोशनी से
सूरज का सुबह निकलना और चांद का रात में
अंधेरा कहां है अंधेरे से हमेशा ही पूछते हैं।
November 17, 2020 at 8:37 AM Delete
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वाह! बहुत खूबसूरत पंक्तियाँ. आभार सुशील जी.
Blogger रंजू भाटिया said...
ReplyDeleteसब सपने कहाँ पूरे होते हैं ,इस बुक में पढ़ा था इसको पहले भी अधूरे सपनों की कसक ...चैन से सोने नहीं देती सच है
November 18, 2020 at 8:50 AM Delete
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हाँ रंजू जी, अधूरे सपने चैन से सोने नहीं देते...पर यही जीवन है. आभार आपका.
Blogger अजय कुमार झा said...
ReplyDeleteवाह । मैंने पुस्तक में सबके ख्वाबों को पढा था और यही महसूस किया था कि हम सब कहीं न कहीं एक जैसे हैं । रेखा दीदी , ने बहुत बेहतरीन उपहार दिया ये ब्लॉगर्स को ।
November 18, 2020 at 9:54 AM Delete
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हाँ अजय जी. हम सबके जीवन में कुछ न कुछ कमी रह गई, और इस तरह हम सभी एक जैसे ही हैं. तभी तो रेखा जी ने हम सभी को एक साथ पुस्तक में जोड़कर उपकृत किया. कमसे कम हम एक दूसरे का अधूरा स्वप्न जाँ तो सकते हैं. प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया.
Blogger Jyoti Dehliwal said...
ReplyDeleteइस किताब में मेरा भी एक अधूरा सपना प्रकाशित हुआ है।
सच मे अधूरे सपने की कसक ताउम्र रहती है।
November 20, 2020 at 10:23 AM Delete
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हम सभी के वे सपने इस पुस्तक में हैं, जो अब पूरे नहीं होने हैं. इसकी कसक के साथ ही जीना है. आभार.
Blogger Sudha Devrani said...
ReplyDeleteजीवन के आधे अधूरे सपने सच में बड़े बेचैन करते हैं....आपके सपने और फिर उनका पल भर में हाथ से खिसकना पढकर बड़ा दुख हुआ...ऐसे ही मेरी रचना के चन्द पंक्तियां जो यही कहने की कोशिश है कि बीते सपने यूँ जीवन में बार-बार याद आते हैं
दिन ढ़लने को आया देखो
सांझ सामने आयी.....
सुबह के सपने ने जाने क्यूँ
ली मन में अंगड़ाई......
बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण सृजन है आपका।
November 22, 2020 at 3:07 PM Delete
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सुधा जी, अधूरे सपने की कसक लिए ताउम्र चलना है. इसके सिवा कुछ कर नहीं सकते. बहुत सुन्दर पंक्तियाँ लिखी हैं आपने. आभार.
Blogger Sudha Devrani said...
ReplyDeleteकुछ सपने जो आधे -अधूरे
यत्र-तत्र बिखरे मन में यूँ
जाने कब होंगे पूरे .....?
मेरे सपने जो आधे -अधूरे
दिन ढ़लने को आया देखो
सांझ सामने आयी.....
सुबह के सपने ने जाने क्यूँ
ली मन में अंगड़ाई......
ये अधूरे सपने यदा टदा यादों के रूप में सामने आ ही जाते हैं और एक कसक छोड़ देते हैं जीवन में।
बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण सृजन।
November 22, 2020 at 3:10 PM Delete
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यह कसक चैन तो लेने न देगी. जब तब याद आकर बेचैन कर देती है. बहुत सुन्दर पंक्तियाँ लिखी आपने, बधाई. आभार.
Blogger Dr Varsha Singh said...
ReplyDeleteआदरणीय,
मेरे ब्लॉग "ग़ज़लयात्रा" में आपका स्वागत है। इसमें आप भी शामिल हैं-
https://ghazalyatra.blogspot.com/2020/12/blog-post_70.html?m=1
गंगा | कुछ ग़ज़लें | कुछ शेर | डॉ. वर्षा सिंह
ग़ज़लों में गंगा की उपस्थिति
- डॉ. वर्षा सिंह
December 11, 2020 at 8:49 PM Delete
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आभार वर्षा जी.