छत्तीसगढ़
में नसबंदी के दौरान 14 स्त्रियों की मौत ने एक बार फिर सोचने के लिए विवश
किया कि हमारे देश में आम स्त्रियों की क़ीमत क्या है। न उनके जीवन
का कोई मोल, न उनकी मृत्यु का कोई अर्थ! हम ज़बरदस्त ग़ैरबराबरी से जूझ रहे
ऐसे संवेदनहीन और असभ्य समाज का हिस्सा बनते जा रहे हैं, जो वर्चस्व,
सत्ता और प्रतिस्पर्धा को एकमात्र जीने का मूल मंत्र बना चुका है। अजीब ये
है कि इन सबमें उसके सामने केवल स्त्री खड़ी है।
छत्तीसगढ़ के इस हादसे के परिपेक्ष में यह सोचना होगा कि स्वास्थ्य शिविर
में जाकर चिकित्सा कराने वाला तबक़ा कौन है। यह समाज का वह वर्ग है जिसे
सरकारी खानापूर्ति की भरपाई के लिए लक्ष्य-पूर्ति का साधन बना दिया जाता
है। असुरक्षित और अस्वस्थ माहौल में सीमित संसाधनों के द्वारा चिकित्सा
करना या शल्य-क्रिया को अंजाम देना निश्चय ही अमानवीय अपराध है।
दुर्भाग्यपूर्ण है कि यह अपराध वैधानिक तरीक़े से हो रहा है; क्योंकि
शिविरों के हालात का अनुमान जनसाधारण को है। निर्धन जनता या ऐसे क्षेत्र के
निवासी जहाँ स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव है, इन स्वास्थ्य केन्द्रों और
शिविरों पर निर्भर होते हैं और अपनी जान ख़तरे में डालने को मज़बूर होते
हैं।
समाज कल्याण से जुड़ी सरकारी योजनाओं के तहत लगने वाले नसबंदी शिविरों का
सच किसी से छिपा नहीं है। इन शिविरों में एक-एक दिन में सौ-सौ ऑपरेशन किए
जाते हैं। एक वरिष्ठ चिकित्सक होता है, जिसके अंतर्गत कई प्रशिक्षु होते
हैं जो यह काम निबटाते हैं। यह शिविर जहाँ भी लगता है वहाँ न आधुनिक ऑपरेशन
थियेटर होता है, न आपातकालीन चिकित्सा के लिए कोई यंत्र, न स्वच्छ
वातावरण। यह हमारे भारत का सच है कि इन शिविरों में सिर्फ़ वही स्त्रियाँ या
पुरुष जाते हैं, जो आर्थिक रूप से अत्यंत कमज़ोर होते हैं। जिनकी आर्थिक
स्थिति ज़रा भी ठीक है, भले वे दिहाड़ी मज़दूर ही क्यों न हों, निजी अस्पताल
में ही जाकर इलाज कराते हैं। इस सच से न हमारे देश की जनता इंकार कर सकती
है, न सरकार।
यह
सोचने का विषय है कि स्त्रियाँ ही आबादी बढ़ाने और रोकने का दण्ड क्यों
भुगतती हैं? स्त्रियों की ही नसबंदी क्यों, पुरुष की क्यों नहीं? क्या यह
नसबंदी पुरुषों के लिए ज़्यादा सुरक्षित और कारगार नहीं? स्त्रियों की
नसबंदी का ऑपरेशन पुरुषों की तुलना में जटिल और मुश्किल होता है।जबकि पुरुष
की नसबंदी स्त्रियों की तुलना में बहुत सरल है, जिसमें न तो कोई जटिल
प्रक्रिया है न किसी तरह का कोई ख़तरा, न ऑपरेशन के बाद लम्बी अवधि तक
विश्राम की आवश्यकता।
स्त्रियों
पर ही संतानोत्पत्ति और नसबंदी का सारा कारोबार आधारित क्यों है? क्या
बिना पुरुष के स्त्रियाँ बच्चा पैदा करती हैं? जब पुरुष के बिना
संतानोत्पत्ति संभव नहीं, फिर नसबंदी पुरुष क्यों नहीं कराते? न सिर्फ़
अशिक्षित बल्कि शिक्षित पुरुषों का भी मानना है कि नसबंदी कराने से पौरुष
ताक़त में कमी आ जाती है। जबकि वैज्ञानिक रूप से साबित हो चुका है कि यह सच
नहीं सिर्फ़ अज्ञानता है। पुरुष नसबंदी के कई फ़ायदों में एक अहम् फ़ायदा यह
भी है कि किसी कारण से यदि फिर से संतान चाहें तो संतान संभव है। लेकिन
स्त्री के मामले में ऐसा संभव नहीं है।
हमारी परम्पराओं का हमारे जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। अपनी पढ़ाई
के दौरान मुझे परिवार नियोजन विषय पर कुछ महिलाओं से बातचीत करने का मौक़ा
मिला, जिसमें एक स्तब्ध करने वाला सच सामने आया। एक स्त्री ने बताया कि
उसके पति के नसबंदी कराने के बाद भी उसे बच्चा हुआ।डॉक्टर ने कहा कि
सामान्यतः ऐसा नहीं होता है, लेकिन कभी-कभी कुछ अपवाद हो जाते हैं।
डॉक्टर के कहने के बाद भी उसका पति उसके चरित्र पर शक करता रहता है। एक
दूसरी स्त्री जो काफ़ी पढ़ी-लिखी थी उसका कहना था कि अगर किसी कारण उसके पति
का नसबंदी ऑपरेशन असफल हुआ और वह गर्भवती हो गई, तो आजीवन उसे शक से देखा
जाएगा, इससे बेहतर है कि स्त्री स्वयं ही ऑपरेशन करा ले। एक छोटा-सा तो
ऑपरेशन है, आजीवन एक डर और इल्जाम से तो बचा जा सकता है।एक अविवाहित आधुनिक
स्त्री का कहना था कि दो बच्चे के बाद ऑपरेशन करा लो, क्या पता पति का
ऑपरेशन सफल न हुआ तो एक और बच्चे का बोझ सहो, या फिर गर्भपात काराओ, इतने
झमेले से तो अच्छा है कि स्त्री ही ऑपरेशन कराके हमेशा के लिए झंझट से
मुक्त हो जाए और पति के शक से भी छुटकारा रहेगा। यों सभी स्त्रियों की राय
यही थी कि स्त्री को ही ऑपरेशन करा लेना चाहिए अन्यथा फिर से गर्भवती होना
या गर्भपात कराना पड़ सकता है।
इन सभी पहलुओं पर विचार करें तो कहीं-न-कहीं हमारा समाज, हमारी सोच, हमारी
मान्यताएँ और परम्पराएँ इन सबके लिए दोषी हैं। हमारा पुरुष समाज जो स्त्री
का चरित्र उसके बदन में खोजता है और उसके बदन पर ही अपना चरित्र गँवाता है,
फिर भी उस स्त्री के लिए ज़रा-सी ज़हमत उठाना नहीं चाहता है।
जबकि पुरुष नसबंदी में न पीड़ा होती है, न वक़्त लगता है; ऑपरेशन के एक
घंटे के बाद पुरुष काम पर वापस जा सकता है। सरकारी प्रचार-प्रसार के बाद भी
पुरुष इस बात को समझ नहीं पाते कि नसबंदी के बाद भी उसकी यौन-शक्ति वैसी
ही रहेगी। कोई भी पुरुष सहजता से ऑपरेशन नहीं कराता है। यह सिर्फ़ अशिक्षित
समाज का चेहरा नहीं, बल्कि शिक्षित और प्रगतिशील बिरादरी का भी चेहरा है।
हमारे समाज की संकीर्ण मानसिकता का परिणाम है कि न सिर्फ़ वे 14 स्त्री मारी
गईं, बल्कि 14 परिवार बिखर गया और उनके बच्चे माँ के प्यार-दुलार से वंचित
हो गए। इस घटना को दुर्घटना या लापरवाही कहकर आरोपी चिकित्सकों को कटघरे
में खड़ा किया जाए, कानूनी सज़ा दी जाए या मृत स्त्रियों के परिवार को
मुआवज़ा दिया जाए; पर क्या इन सबसे उन मृत स्त्रियों को वापस लाया जा सकता
है? क्या स्त्रियों के साथ हो रहे इन अपराधों और अमानवीय अत्याचारों का
खात्मा कभी सम्भव है? क्या यों ही शोषित वर्ग की शोषित स्त्रियाँ बली चढ़ती
रहेंगी?
- जेन्नी शबनम (1.12.2014)
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विचारणीय आलेख...
ReplyDeleteआपके आलेख में कई बात है जिनसे मैं सहमत हूँ
ReplyDeleteसदियों की रूड़ीवादी मानसिकता है जेन्नी जी. बदलने में न जाने कितना वक्त लगेगा अभी. दुखद है पर दिल्ली अभी बहुत दूर है :(
ReplyDeleteबहुत अच्छे विचार !
ReplyDeleteपुरुष प्रधान समाज की सच्चाई को प्रदर्शित करता सार्थक लेख..
ReplyDeleteयह स्त्रियों ही नहीं, समग्रता में मनुष्यता का संहार है. जनसंहार कहा जाना चाहिए इसे. वैश्वीकरण के नाम पर आए बेलगाम पूंजीवाद ने हमें चिकित्सा और शिक्षा व्यवस्था के नाम पर जो निर्मम दुकानदारी दी है, उसका यह एक नमूना भर है. इसे स्त्री-पुरुष के नज़रिये से नहीं, दमनकर्ता और दमित के नज़रिये से देखना होगा.
ReplyDeleteपुरुष प्रधान समाज में सब दर्द स्त्रियों को ही सहना होता है..बहुत सारगर्भित आलेख...
ReplyDeleteआपका विश्लेषण बहुत सही है और मैं आपसे सहमत हूँ lरोबोट टेस्ट हटा दें l
ReplyDeleteबहुत ही गंभीर मुद्दे पर आपका आलेख साधुवाद |हमारे देश की सरकारों के लिए इंसानों की कीमत बस चंद रूपये होती है कभी अपराधियों के खिलाफ ठोस कार्रवाई नहीं होती है |भ्रष्टाचार और भी अधिक जिम्मेदार है नकली दवाये खाद्य सामग्री सभी बाज़ार में बिना रोक टोक उपलब्ध हैं सरकारें और अफसर पैसा बटोरने में मस्त हैं हम अगर जीवित हैं तो ईश्वर की कृपा से |
ReplyDeleteइस घटना ने कई विचारणीय मुद्दे हमारे सामने खड़े किए हैं, जिस पर अपने बड़ी गम्भीरता से चर्चा की है।
ReplyDeleteबहुत ही ज्वलन्त मुद्दे को आपने उठाया है.दिल पर ठेस लगती है ऐसी दुर्घटनाओं से जिसका कारण हद दर्जे की लापरवाही और वाह वाही लूटना ही रहा.सभी को गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है.
ReplyDeleteपुरुष और स्त्री मानसिकता की सही तस्वीर दिखाई जेन्नी जी, चौदह महिलाओं की मौत बहुत गंभीर बात है वो भी डाक्टर की लापरवाही से, इस तरह की घटनाएँ बहुत सारे सवाल खड़ी करती हैं...जागरुकता भरे आलेख के लिए बहुत बधाई !!
ReplyDeleteइस घटना सी मीडिया भरा पड़ा है , सबकी दृष्टि एक ही है । मुझे तो लगता है की स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में सभी सरकारी संस्थाएं मक्कारी और भृस्टाचार में आकंठ डूबी हुई हैं यह मौत का तांडव में तब बहुत नजदीकी से देख पाया जब मैं भारत सरकार के क्षेत्रीय प्रचार अधिकारी के पद पर गावों की पीएचसी और सीएचसी और सीएमओ दफ्तर जाकर इनके व्योरे पर रिपोर्ट तैयार करता था । नकली दवा , झोला छाप मुन्ना भाई के हाथो से मासूमो की गर्दन कैसे बचे । सब बड़ा मुश्किल और दुखदाई है , जेनी जी ।
ReplyDeleteइस पोस्ट पर टिप्पणी करना ख़तरे से ख़ाली नहीं है। इसलिये हम पतली गली से निकलते हुये सिर्फ़ तकनीकी पक्ष पर इतना कहना चाहेंगे कि वैसेक्टोमी के स्थान पर आजकल नॉन स्कैल्पल वैसेक्टोमी की जाती है जो पूर्वापेक्षा और अधिक सुरक्षित और आसान है । ऑपरेशन के समय ही दोनो पक्षों को फ़िज़ियोलॉजिकल फ़ैक्ट बता दिया जाना चाहिये कि पुरुष नसबन्दी के बाद भी जब तक वास डिफ़रेंस में शुक्राणु रहेंगे तब तक गर्भधारण सम्भव है । इसलिए पर्याप्त समय तक सहवास से बचना ही होगा । यूँ सबसे अच्छा तरीका यह है कि सीमेन टेस्ट में जब शुक्राणु की संख्या शून्य हो जाय तो सहवास सुरक्षित होगा । यदि स्त्री गर्भवती हो जाती है तो पैटरनिटी के लिये पत्नी पर संदेह करने के स्थान पर अपना सीमेन टेस्ट करवा लेना चाहिये ।
ReplyDeleteऐसे अच्छे दिन किस काम के ....
ReplyDeleteअच्छे दिनों का मतलब शायद यही है !!
ReplyDeleteप्रभावशाली आलेख है ........कहने पढ़ने से कुछ हल्का फर्क पढ़ सकता है किन्तु मानसिकता बदलना इतना आसान भी नहीं जेन्नीजी !!हाँ अलबत्ता आपका आलेख इस ओर एक सार्थक कदम है !!
ReplyDeleteSUMIT PRATAP SINGH said...
ReplyDeleteविचारणीय आलेख...
त्वरित टिप्पणी के लिए शुक्रिया सुमित जी.
vibha rani Shrivastava said...
ReplyDeleteआपके आलेख में कई बात है जिनसे मैं सहमत हूँ
आंशिक ही सही सहमति के लिए बहुत आभार विभा जी.
shikha varshney said...
ReplyDeleteसदियों की रूड़ीवादी मानसिकता है जेन्नी जी. बदलने में न जाने कितना वक्त लगेगा अभी. दुखद है पर दिल्ली अभी बहुत दूर है :(
हाँ, दिल्ली तो सच में दूर ही नहीं बहुत दूर है, जाने अभी कितने युग...
टिप्पणी के लिए धन्यवाद शिखा जी.
विजय कुमार सिंघल said...
ReplyDeleteबहुत अच्छे विचार !
टिप्पणी के लिए बहुत आभार विजय जी.
Mahesh Barmate said...
ReplyDeleteपुरुष प्रधान समाज की सच्चाई को प्रदर्शित करता सार्थक लेख..
आपका बहुत धन्यवाद महेश जी.
इष्ट देव सांकृत्यायन said...
ReplyDeleteयह स्त्रियों ही नहीं, समग्रता में मनुष्यता का संहार है. जनसंहार कहा जाना चाहिए इसे. वैश्वीकरण के नाम पर आए बेलगाम पूंजीवाद ने हमें चिकित्सा और शिक्षा व्यवस्था के नाम पर जो निर्मम दुकानदारी दी है, उसका यह एक नमूना भर है. इसे स्त्री-पुरुष के नज़रिये से नहीं, दमनकर्ता और दमित के नज़रिये से देखना होगा.
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इष्ट देव सांकृत्यायन जी,
आपने सही कहा कि इसे स्त्री पुरुष के नज़रिए से नहीं बल्कि दमनकर्ता और दमित के नज़रिए से देखना चाहिए. सरकारी तंत्र की निर्ममता स्त्री पुरुष दोनों के लिए बराबर है. मेरा सवाल है कि नसबंदी के लिए स्त्री ही क्यों, पुरुष क्यों नहीं? सार्थक टिप्पणी के लिए धन्यवाद.
Kailash Sharma said...
ReplyDeleteपुरुष प्रधान समाज में सब दर्द स्त्रियों को ही सहना होता है..बहुत सारगर्भित आलेख...
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सार्थक टिप्पणी और सराहना के लिए बहुत शुक्रिया कैलाश शर्मा जी.
कालीपद "प्रसाद" said...
ReplyDeleteआपका विश्लेषण बहुत सही है और मैं आपसे सहमत हूँ lरोबोट टेस्ट हटा दें l
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मेरे विचार से सहमत होने व टिप्पणी के लिए धन्यवाद कालीपद प्रसाद जी.
कई बार अनुपयुक्त टिप्पणी आ जाती है और ध्यान नहीं जा पाता. इसलिए टिप्पणी मॉडरेशन में किया हुआ है.
जयकृष्ण राय तुषार said...
ReplyDeleteबहुत ही गंभीर मुद्दे पर आपका आलेख साधुवाद |हमारे देश की सरकारों के लिए इंसानों की कीमत बस चंद रूपये होती है कभी अपराधियों के खिलाफ ठोस कार्रवाई नहीं होती है |भ्रष्टाचार और भी अधिक जिम्मेदार है नकली दवाये खाद्य सामग्री सभी बाज़ार में बिना रोक टोक उपलब्ध हैं सरकारें और अफसर पैसा बटोरने में मस्त हैं हम अगर जीवित हैं तो ईश्वर की कृपा से |
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हाँ बस यही कह सकते हैं. क्योंकि सरकार और सरकारी तंत्र इस कदर भ्रष्टाचार में लिप्त है कि हम सभी मूक दर्शक भर रह गए हैं विकल्पहीन. टिप्पणी के लिए बहुत आभार जयकृष्ण जी.
मनोज कुमार said...
ReplyDeleteइस घटना ने कई विचारणीय मुद्दे हमारे सामने खड़े किए हैं, जिस पर अपने बड़ी गम्भीरता से चर्चा की है।
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सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद मनोज जी.
Rakesh Kumar said...
ReplyDeleteबहुत ही ज्वलन्त मुद्दे को आपने उठाया है.दिल पर ठेस लगती है ऐसी दुर्घटनाओं से जिसका कारण हद दर्जे की लापरवाही और वाह वाही लूटना ही रहा.सभी को गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है.
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हमारी जनता को जागरूक होना ही होगा, तभी कोई उम्मीद दिख सकती है. टिप्पणी के लिए धन्यवाद राकेश जी.
ऋता शेखर मधु said...
ReplyDeleteपुरुष और स्त्री मानसिकता की सही तस्वीर दिखाई जेन्नी जी, चौदह महिलाओं की मौत बहुत गंभीर बात है वो भी डाक्टर की लापरवाही से, इस तरह की घटनाएँ बहुत सारे सवाल खड़ी करती हैं...जागरुकता भरे आलेख के लिए बहुत बधाई !!
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मेरे विचार को आपकी सहमति मिली, बहुत धन्यवाद ऋता जी.
Awadhesh Kumar said...
ReplyDeleteइस घटना सी मीडिया भरा पड़ा है , सबकी दृष्टि एक ही है । मुझे तो लगता है की स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में सभी सरकारी संस्थाएं मक्कारी और भृस्टाचार में आकंठ डूबी हुई हैं यह मौत का तांडव में तब बहुत नजदीकी से देख पाया जब मैं भारत सरकार के क्षेत्रीय प्रचार अधिकारी के पद पर गावों की पीएचसी और सीएचसी और सीएमओ दफ्तर जाकर इनके व्योरे पर रिपोर्ट तैयार करता था । नकली दवा , झोला छाप मुन्ना भाई के हाथो से मासूमो की गर्दन कैसे बचे । सब बड़ा मुश्किल और दुखदाई है , जेनी जी ।
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आपने खुद नज़दीक से यह सब देखा है; सच में कई बार लगता है कि हम सब कितने लाचार हैं. सरकारी तंत्र में इतनी बेईमानी भर गई है कि आम इंसान की ज़िन्दगी की कीमत कुछ भी नहीं और न उनके दर्द से कोई मतलब है इन्हें. बड़ी तकलीफ होती है यह सब देख कर. प्रतिक्रिया के लिए आभार अवधेश जी.
कौशलेन्द्र said...
ReplyDeleteइस पोस्ट पर टिप्पणी करना ख़तरे से ख़ाली नहीं है। इसलिये हम पतली गली से निकलते हुये सिर्फ़ तकनीकी पक्ष पर इतना कहना चाहेंगे कि वैसेक्टोमी के स्थान पर आजकल नॉन स्कैल्पल वैसेक्टोमी की जाती है जो पूर्वापेक्षा और अधिक सुरक्षित और आसान है । ऑपरेशन के समय ही दोनो पक्षों को फ़िज़ियोलॉजिकल फ़ैक्ट बता दिया जाना चाहिये कि पुरुष नसबन्दी के बाद भी जब तक वास डिफ़रेंस में शुक्राणु रहेंगे तब तक गर्भधारण सम्भव है । इसलिए पर्याप्त समय तक सहवास से बचना ही होगा । यूँ सबसे अच्छा तरीका यह है कि सीमेन टेस्ट में जब शुक्राणु की संख्या शून्य हो जाय तो सहवास सुरक्षित होगा । यदि स्त्री गर्भवती हो जाती है तो पैटरनिटी के लिये पत्नी पर संदेह करने के स्थान पर अपना सीमेन टेस्ट करवा लेना चाहिये ।
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जब पुरुष अपनी कामुकता पर नियंत्रण नहीं रख पाता और अपने ही नाते रिश्ते को कलंकित कर देता है वैसे में सुरक्षित सहवास का पाठ सिखाना क्या संभव है? एक डॉक्टर के रूप में आपने नसबंदी का पक्ष रखा है पर प्रायोगिक तौर पर यह मुमकिन कहाँ होता है. शिक्षा की हालत हमारे देश में क्या है सर्वविदित है. नसबंदी के लिए ये राजी हुए यही क्या कम है. कितना भी आसान हो स्त्री की नसबंदी का ऑपरेशन पुरुष की तुलना में कठिन है. पति के ऑपरेशन के बाद यदि पत्नी गर्भवती होती है तो पैटरनिटी के लिए सीमेन टेस्ट भी परोक्ष रूप में पत्नी के चरित्र पर संदेह का ही रूप हुआ न.
टिप्पणी के साथ ही जानकारी देने के लिए बहुत आभार कौशलेन्द्र जी.
Mukesh Kumar Sinha said...
ReplyDeleteऐसे अच्छे दिन किस काम के ....
अच्छे दिनों का मतलब शायद यही है !!
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सच अब लगता है कि अच्छे दिन यही है, हर कुकर्म अब और भी पूरे जोर पर है. निराशा, दुःख और आक्रोश एक साथ होता है. यहाँ आने के लिए धन्यवाद मुकेश.
Anupama Tripathi said...
ReplyDeleteप्रभावशाली आलेख है ........कहने पढ़ने से कुछ हल्का फर्क पढ़ सकता है किन्तु मानसिकता बदलना इतना आसान भी नहीं जेन्नीजी !!हाँ अलबत्ता आपका आलेख इस ओर एक सार्थक कदम है !!
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मानसिकता ही तो नहीं बदलती है. क्योंकि इस मामले शिक्षा अशिक्षा की बात ही नहीं न अमीरी गरीबी की बात है. अलिखित नियम बन चूका है कि जितनी पीड़ा हो बस स्त्री झेले. और दूसरी तरफ सरकार की अमानवीयता.
सार्थक टिप्पणी के लिए बहुत शुक्रिया अनुपमा जी.
आपने ठीक कहा शोषित वर्ग की स्त्री जो सबसे ज्यादा शोषित है इस तरह के अत्याचारों की वही बली चढती है। स्त्री होना ही अभिशाप है और गरीब स्त्री होना तो.......। कब संवेदनशील होंगे हम, कब जागेंगे।
ReplyDeleteआपका यह सारगर्भित आलेख मन को झिंझोड़ता है.इस लेख में उठाये गये सभी प्रश्न हमारे समाज की कुंठित सोच को ही उजागर करता है.जहां पुरुष अपनी साड़ी कुंठाए स्त्री पर थोप कर चैन की नीद सोता है और समाज के तथाकथित ठेकेदार भी इसी सोच को हमेशा पल्लवित करते दीखाई देते हैं.हमारी युवा पीढ़ी को आगे आकर इस सोच को बदलना होगा.
ReplyDeleteआपके इस सार्थक लेख के लिए मैं आपको साधुवाद कहना चाहता हूँ.
गंभीर आलेख , आभार आपका !!
ReplyDeleteAsha Joglekar said...
ReplyDeleteआपने ठीक कहा शोषित वर्ग की स्त्री जो सबसे ज्यादा शोषित है इस तरह के अत्याचारों की वही बली चढती है। स्त्री होना ही अभिशाप है और गरीब स्त्री होना तो.......। कब संवेदनशील होंगे हम, कब जागेंगे।
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यही सब से तो मन और ज्यादा व्यथित हो जाता है, हर तरफ से स्त्री ही शोषित होती है. यहाँ तो गरीबी और स्त्री दोनों एक साथ है. मेरे विचार से सहमति के लिए आपका आभार आशा जी.
ashok andrey said...
ReplyDeleteआपका यह सारगर्भित आलेख मन को झिंझोड़ता है.इस लेख में उठाये गये सभी प्रश्न हमारे समाज की कुंठित सोच को ही उजागर करता है.जहां पुरुष अपनी साड़ी कुंठाए स्त्री पर थोप कर चैन की नीद सोता है और समाज के तथाकथित ठेकेदार भी इसी सोच को हमेशा पल्लवित करते दीखाई देते हैं.हमारी युवा पीढ़ी को आगे आकर इस सोच को बदलना होगा.
आपके इस सार्थक लेख के लिए मैं आपको साधुवाद कहना चाहता हूँ.
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सरकारी असंवेदनशीलता और इसके कारण मृत्यु बड़ी दुखद धटना है. एक तरफ स्त्री पर परमपराओं की सारी जिम्मेवारी है जिसे चाहे तो पुरुष खुद पर ले सकते हैं लेकिन राहत देने की बजाय वे पीछे हट जाते हैं, दूसरी तरफ सरकार का क्रूर व्यवहार... जाने कब सोच बदलेगी. टिप्पणी के लिए बहुत आभार अशोक जी.
Satish Saxena said...
ReplyDeleteगंभीर आलेख , आभार आपका !!
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मेरे लेख पर टिप्पणी देने के लिए धन्यवाद सतीश जी.
आपका यह सारगर्भित आलेख मन को झिंझोड़ता है.इस लेख में उठाये गये सभी प्रश्न हमारे समाज की कुंठित सोच को ही उजागर करता है.जहां पुरुष अपनी सारी कुंठाए स्त्री पर थोप कर चैन की नीद सोता है और समाज के तथाकथित ठेकेदार भी इसी सोच को हमेशा पल्लवित करते दीखाई देते हैं.हमारी युवा पीढ़ी को आगे आकर इस सोच को बदलना होगा.
ReplyDeleteआपके इस सार्थक लेख के लिए मैं आपको साधुवाद कहना चाहता हूँ.
vicharniy aalekh. Aabhar
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा आपने कि यह सामूहिक नारीसंहार है।
ReplyDeleteashok andrey said...
ReplyDeleteआपका यह सारगर्भित आलेख मन को झिंझोड़ता है.इस लेख में उठाये गये सभी प्रश्न हमारे समाज की कुंठित सोच को ही उजागर करता है.जहां पुरुष अपनी सारी कुंठाए स्त्री पर थोप कर चैन की नीद सोता है और समाज के तथाकथित ठेकेदार भी इसी सोच को हमेशा पल्लवित करते दीखाई देते हैं.हमारी युवा पीढ़ी को आगे आकर इस सोच को बदलना होगा.
आपके इस सार्थक लेख के लिए मैं आपको साधुवाद कहना चाहता हूँ.
27 December 2014 at 12:23 pm
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अशोक आंद्रे जी,
मेरे लेख पर दोबारा आपकी प्रतिक्रया पाकर हर्षित हूँ. आपके स्नेह और सराहना के लिए आभार!
Maheshwari kaneri said...
ReplyDeletevicharniy aalekh. Aabhar
23 February 2015 at 4:35
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आपकी प्रतिक्रया पाकर ख़ुशी हुई, मन से आभार!
कहकशां खान said...
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा आपने कि यह सामूहिक नारीसंहार है।
24 February 2015 at 12:17 am
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प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद!