''ओ अमृता! देख, तेरे शाह की कंजरी मेरे घर आ गई है। तेरी शाहनी तो ख़ुश होगी न! उसका शाह अब उसके पास वापस जो आ गया। वह देख उस बदज़ात को, तेरे शाह से ख़ूब ऐंठे और अब मेरे शाह की बाँहें थाम ली है। नहीं-नहीं तेरी उस कंजरी का भी क्या दोष, मेरे शाह ने ही उसे पकड़ लिया है। वह करमजली तो तब भी कंजरी थी जब तेरे शाह के पास थी, अब भी कंजरी है जब मेरे शाह के पास है।''
झिंझोड़ते हुए मैं बोल पड़ी ''क्या बकती है? कुछ भी बोलती है। तेरा शाह ऐसा तो नहीं। देख तेरे लिए क्या-क्या करता है। गाड़ी-बँगला, गहना-ज़ेवर, नौर-चाकर... फिर भी ऐसा बोलती है तू।'' ''ज़रूर तुझे कुछ ग़लतफ़हमी हुई है। अमृता को पढ़ते-पढ़ते कहीं तू उसकी कहानियों को अपने जीवन का हिस्सा तो नहीं मान रही है। किसी झूठ को सत्य मानकर अपना ही जी जला रही है तू। वह कहानी है पगली, तेरी ज़िन्दगी नहीं।''
फफककर रो पड़ी वह। कहने लगी ''तू तो बचपन से जानती है न मुझे। जब तक कुछ पक्का न जान लूँ तब तक यक़ीन नहीं करती। और यह सब बोलूँ भी तो किससे?'' ''जानती हूँ वह कंजरी मेरा घर-बार लूट रही है, लेकिन मैं कुछ बोल भी नहीं सकती। कोई शिकायत न करूँ इसलिए पहले ही मुझपर ऐसे-ऐसे आरोप मढ़ दिए जाते हैं कि जी चाहता है ख़ुदकुशी कर लूँ।'' ''तू नहीं जानती उस कंजरी के सामने कितनी जलील हुई हूँ। वह उसका ही फ़ायदा उठा रही है। पर उसका भी क्या दोष है। मेरी ही तक़दीर... अपना ही सिक्का खोटा हो तो...!''
मैं हतप्रभ! मानों मेरे बदन का लहू जम गया हो। यों लगा जैसे कोई टीस धीरे-धीरे दिल से उभरकर बदन में पसर गई हो। न कुछ कहते बना न समझते न समझाते। दिमाग मानो शून्य हो गया। मैं तो तीनों को जानती हूँ, किसे दोष दूँ? अपनी उस शाहनी को जिसे बचपन से जानती थी, उसके शाह को, या उसके शाह की उस कंजरी को?
याद है मुझे कुछ ही साल पहले सुबह-सुबह वह मेरे घर आई थी। उसके हाथ में अमृता प्रीतम की लिखी कहानियों का एक संग्रह था, जिसकी एक कहानी 'शाह की कंजरी' पढ़ने के लिए वह मुझे बार-बार कह रही थी और मैं बाद में पढ़ लूँगी कहकर उस किताब को ताखे पर रखकर भूल गई। एक दिन फिर वह सुबह-सुबह मेरे घर आई, और उस कहानी का ज़िक्र किया कि मैंने पढ़ी या नहीं। मेरे न कहने के बाद वह रुआँसी हो गई और कहने लगी कि अभी-के-अभी मैं वह कहानी पढूँ, तब तक वह रसोई का मेरा काम सँभाल देगी। मुझे भी अचरज हुआ कि आख़िर ऐसा भी क्या है उस कहानी में। यों अमृता को काफ़ी पढ़ा है मैंने और उन्हें पढ़कर लिखने की प्रेरणा भी मिली है; पर इस कहानी में ऐसा क्या है कि मुझे पढ़ाने के लिए वह परेशान है। मुझे लगा कि शायद कुछ अच्छा लिख सकूँ इसलिए पढ़ने के लिए वह मुझे इतना ज़ोर दे रही है।
कहानी जब पढ़ चुकी तो उसने पूछा कि कैसी लगी कहानी। मैंने कहा कि बहुत अच्छी लगी 'शाह की कंजरी'। उसकी आँखों में पानी भर आया और बिलख-बिलखकर रोने लगी। मैं भी घबरा गई कि बात-बेबात ठहाके लगाने वाली को क्या हो गया है। अपने शाह और उसकी कंजरी के लिए जीभरकर अपना भड़ास निकालने के बाद वह अपनी तक़दीर को कोसने लगी। अब तक मैं भी अपने को सँभाल चुकी थी। उसे जीभरकर रोने दिया। क्योंकि रोने के अलावा न वह कुछ कर सकती थी, न मैं कोई झूठी तसल्ली दे सकती थी।
सोचती हूँ, तक़दीर भी कैसा खेल खेलती है। अमृता को पढ़ते-पढ़ते जैसे वह उसकी कहानी की पात्र ही बन गई। अमृता की शाहनी तो पूरे ठसक से अपने घर में रहती थी, और कंजरी शाह के पैसे से होटल में। पर मेरी यह शाहनी अपने घर में रहकर भी घर में नहीं रहती। क्योंकि उसके घर पर उसका मालिकाना तो है, मगर उसके शाह पर कंजरी का मालिकना है और कंजरी पूरे हक़ और निर्लज्जता से उसी घर में रहती है। शाह ने वह सारे अधिकार उस कंजरी को दे दिए हैं, जिसे सिर्फ़ शाहनी का होना था। जब उसका मालिक ही बंधक हो तो... उफ़! सच, कितनी बदनसीब है वह।
मेरा मन करता है कि चीख-चीखकर कहूँ ''ओ अमृता! तू अपने शाह से कह कि अपनी कंजरी को लेकर दूर चला जाए; मेरी शाहनी को ऐसा शाह मंज़ूर नहीं।'' ''भले वह नसीबोंवाली नहीं, पर इतनी बेग़ैरत भी न बना उसे। उसके शाह ने एक-एककर सारे पर क़तर दिए और अब कहता है कि उसके पर नहीं, इसलिए उसे पर वाली कंजरी चाहिए।''
- जेन्नी शबनम (8.3.2014)
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gambheer sundar prastuti .
ReplyDeleteमित्रों।
ReplyDeleteतीन दिनों तक देहरादून प्रवास पर रहा। आज फिर से अपने काम पर लौट आया हूँ।
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आपकी इस सुन्दर प्रविष्टि् की चर्चा आज रविवार (09-03-2014) को आप रहे नित छेड़, छोड़ता भाई मोटा ; चर्चा मंच 1546 पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
BADHIYA BYAAN !
ReplyDeleteतेरे शाह की कंजरी मेरे घर आ गई है ..उम्दा..अच्छा लगा पढ़कर.
ReplyDeleteAdabhut hai jee
ReplyDeleteज़िन्दगी भी कुछ इसी तरह के अहसास लिए होती है . हर इंसान की ज़िन्दगी में इस तरह की कहानिया है .. आपने बहुत अच्छा लिखा है . सच में ..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (11-03-2014) को "सैलाव विचारों का" (चर्चा मंच-1548) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ओह ! अत्यंत मार्मिक ! काश किसी शाहनी की किस्मत ऐसी न हो !
ReplyDeleteबहुत अच्छी पोस्ट |
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर और दिल को छू देने वाली कथा है। पात्र को स्वयं से जी लेना मानो नियति का खेल है " अमृता को पढ़ती-पढ़ती वो उसकी कहानी की पात्र ही बन गई है जैसे । अमृता की शाहनी तो पूरे ठसक से अपने घर में रहती थी, और कंजरी शाह के पैसे से होटल में ।"
ReplyDeleteबहुत मर्मस्पर्शी रचना...
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ReplyDeleteये खेल नहीं आसां--प्यार की पीर--पीना है--तिल-तिल,जहर का.
सरल-सहज अभिव्यक्ति.
प्यार की राह--आसान नहीं यह एक पिम्जरा है जहां परवाज राजी होता है खुद अपने ही पंख कटाने को.
ReplyDeleteमार्मिक अभिव्यक्ति
(शाह की शाहनी०
आपने अम्रता जी की कहानी को लेकर जो ताना-बाना बुना वह अद्भुत है.उसको एक नई दिशा देकर पाठक को नए सिरे से सोचने को मजबूर किया है.
ReplyDeleteमेरे इस पोस्ट पर सराहनीय प्रतिक्रिया देकर आप सभी ने जो मान और प्रोत्साहन दिया है इसके लिए मैं आप सभी की दिल से आभारी हूँ. यूँ ही सहयोग और आशीष की उम्मीद रहेगी. सादर.
ReplyDeletemarmik...
ReplyDeleteहर भाव ,हर दृश्य को साकार करती आपकी लेखनी को नमन !
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत बसंती हवा सी मन को छूती निकल गई
ReplyDeleteसुन्दर पोस्ट.....
ReplyDeleteआप को होली की बहुत बहुत शुभकामनाएं...
नयी पोस्ट@हास्यकविता/जोरू का गुलाम
जेन्नी शबनम ने 'तेरे शाह की कंजरी ' के माध्यम से सिअ व्यथा को आकार दिया है , वह मन-मस्तिष्क को मथ देने वाली है । इतने प्रभावी गद्य के लिए बहुत बधाई !!
ReplyDeletevery good and fine lekhani
ReplyDeletemanohar.news@gmail.com
very good and fine lekhani
ReplyDeletebahut sunder likha hai, mere aansu beh rhe hain ..ab aur kya likhun.
ReplyDeleteshubhkamnayen
एक नयी तरह का कहानी विन्यास
ReplyDeleteबहुत भावुक और मार्मिक
बेहतरीन प्रस्तुति
बधाई
दिल को छूती कहानी। कितनी बार कहानी के पात्र जिंदगी में नजर आते हैं और कितनी बार हम खुद ऐसे पात्र बन जाते हैं।
ReplyDeleteआप सभी के स्नेह और सम्मान के लिए ह्रदय से आभार!
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर लिखावट। भाव सीधे-सीधे उकेरा है आपने। स्वयं शून्य
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