Saturday, March 8, 2014

47. तेरे शाह की कंजरी

''ओ अमृता! देख, तेरे शाह की कंजरी मेरे घर आ गई है। तेरी शाहनी तो ख़ुश होगी न! उसका शाह अब उसके पास वापस जो आ गया। वह देख उस बदज़ात को, तेरे शाह से ख़ूब ऐंठे और अब मेरे शाह की बाँहें थाम ली है। नहीं-नहीं तेरी उस कंजरी का भी क्या दोष, मेरे शाह ने ही उसे पकड़ लिया है। वह करमजली तो तब भी कंजरी थी जब तेरे शाह के पास थी, अब भी कंजरी है जब मेरे शाह के पास है।'' 
 
झिंझोड़ते हुए मैं बोल पड़ी ''क्या बकती है? कुछ भी बोलती है। तेरा शाह ऐसा तो नहीं। देख तेरे लिए क्या-क्या करता है। गाड़ी-बँगला, गहना-ज़ेवर, नौर-चाकर... फिर भी ऐसा बोलती है तू।'' ''ज़रूर तुझे कुछ ग़लतफ़हमी हुई है। अमृता को पढ़ते-पढ़ते कहीं तू उसकी कहानियों को अपने जीवन का हिस्सा तो नहीं मान रही है। किसी झूठ को सत्य मानकर अपना ही जी जला रही है तू। वह कहानी है पगली, तेरी ज़िन्दगी नहीं।''
 
फफककर रो पड़ी वह। कहने लगी ''तू तो बचपन से जानती है न मुझे। जब तक कुछ पक्का न जान लूँ तब तक यक़ीन नहीं करती। और यह सब बोलूँ भी तो किससे?'' ''जानती हूँ वह कंजरी मेरा घर-बार लूट रही है, लेकिन मैं कुछ बोल भी नहीं सकती। कोई शिकायत न करूँ इसलिए पहले ही मुझपर ऐसे-ऐसे आरोप मढ़ दिए जाते हैं कि जी चाहता है ख़ुदकुशी कर लूँ।'' ''तू नहीं जानती उस कंजरी के सामने कितनी जलील हुई हूँ। वह उसका ही फ़ायदा उठा रही है। पर उसका भी क्या दोष है। मेरी ही तक़दीर... अपना ही सिक्का खोटा हो तो...!'' 
 
मैं हतप्रभ! मानों मेरे बदन का लहू जम गया हो। यों लगा जैसे कोई टीस धीरे-धीरे दिल से उभरकर बदन में पसर गई हो। न कुछ कहते बना न समझते न समझाते। दिमाग मानो शून्य हो गया। मैं तो तीनों को जानती हूँ, किसे दोष दूँ? अपनी उस शाहनी को जिसे बचपन से जानती थी, उसके शाह को, या उसके शाह की उस कंजरी को?  
 
याद है मुझे कुछ ही साल पहले सुबह-सुबह वह मेरे घर आई थी। उसके हाथ में अमृता प्रीतम की लिखी कहानियों का एक संग्रह था, जिसकी एक कहानी 'शाह की कंजरी' पढ़ने के लिए वह मुझे बार-बार कह रही थी और मैं बाद में पढ़ लूँगी कहकर उस किताब को ताखे पर रखकर भूल गई। एक दिन फिर वह सुबह-सुबह मेरे घर आई, और उस कहानी का ज़िक्र किया कि मैंने पढ़ी या नहीं। मेरे न कहने के बाद वह रुआँसी हो गई और कहने लगी कि अभी-के-अभी मैं वह कहानी पढूँ, तब तक वह रसोई का मेरा काम सँभाल देगी। मुझे भी अचरज हुआ कि आख़िर ऐसा भी क्या है उस कहानी में। यों अमृता को काफ़ी पढ़ा है मैंने और उन्हें पढ़कर लिखने की प्रेरणा भी मिली है; पर इस कहानी में ऐसा क्या है कि मुझे पढ़ाने के लिए वह परेशान है। मुझे लगा कि शायद कुछ अच्छा लिख सकूँ इसलिए पढ़ने के लिए वह मुझे इतना ज़ोर दे रही है।  
 
कहानी जब पढ़ चुकी तो उसने पूछा कि कैसी लगी कहानी। मैंने कहा कि बहुत अच्छी लगी 'शाह की कंजरी'। उसकी आँखों में पानी भर आया और बिलख-बिलखकर रोने लगी। मैं भी घबरा गई कि बात-बेबात ठहाके लगाने वाली को क्या हो गया है। अपने शाह और उसकी कंजरी के लिए जीभरकर अपना भड़ास निकालने के बाद वह अपनी तक़दीर को कोसने लगी। अब तक मैं भी अपने को सँभाल चुकी थी। उसे जीभरकर रोने दिया। क्योंकि रोने के अलावा न वह कुछ कर सकती थी, न मैं कोई झूठी तसल्ली दे सकती थी। 
 
सोचती हूँ, तक़दीर भी कैसा खेल खेलती है। अमृता को पढ़ते-पढ़ते जैसे वह उसकी कहानी की पात्र ही बन गई। अमृता की शाहनी तो पूरे ठसक से अपने घर में रहती थी, और कंजरी शाह के पैसे से होटल में। पर मेरी यह शाहनी अपने घर में रहकर भी घर में नहीं रहती क्योंकि उसके घर पर उसका मालिकाना तो है, मगर उसके शाह पर कंजरी का मालिकना है और कंजरी पूरे हक़ और निर्लज्जता से उसी घर में रहती है। शाह ने वह सारे अधिकार उस कंजरी को दे दिए हैं, जिसे सिर्फ़ शाहनी का होना था। जब उसका मालिक ही बंधक हो तो... उफ़! सच, कितनी बदनसीब है वह। 
 
मेरा मन करता है कि चीख-चीखकर कहूँ ''ओ अमृता! तू अपने शाह से कह कि अपनी कंजरी को लेकर दूर चला जाए; मेरी शाहनी को ऐसा शाह मंज़ूर नहीं।'' ''भले वह नसीबोंवाली नहीं, पर इतनी बेग़ैरत भी न बना उसे उसके शाह ने एक-एककर सारे पर क़तर दिए और अब कहता है कि उसके पर नहीं, इसलिए उसे पर वाली कंजरी चाहिए।''  
 
 
- जेन्नी शबनम (8.3.2014)
__________________

27 comments:

  1. मित्रों।
    तीन दिनों तक देहरादून प्रवास पर रहा। आज फिर से अपने काम पर लौट आया हूँ।
    --
    आपकी इस सुन्दर प्रविष्टि् की चर्चा आज रविवार (09-03-2014) को आप रहे नित छेड़, छोड़ता भाई मोटा ; चर्चा मंच 1546 पर भी है!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete
  2. BADHIYA BYAAN !

    ReplyDelete
  3. तेरे शाह की कंजरी मेरे घर आ गई है ..उम्दा..अच्छा लगा पढ़कर.

    ReplyDelete
  4. ज़िन्दगी भी कुछ इसी तरह के अहसास लिए होती है . हर इंसान की ज़िन्दगी में इस तरह की कहानिया है .. आपने बहुत अच्छा लिखा है . सच में ..

    ReplyDelete
  5. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (11-03-2014) को "सैलाव विचारों का" (चर्चा मंच-1548) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete
  6. ओह ! अत्यंत मार्मिक ! काश किसी शाहनी की किस्मत ऐसी न हो !

    ReplyDelete
  7. बहुत ही सुन्दर और दिल को छू देने वाली कथा है। पात्र को स्वयं से जी लेना मानो नियति का खेल है " अमृता को पढ़ती-पढ़ती वो उसकी कहानी की पात्र ही बन गई है जैसे । अमृता की शाहनी तो पूरे ठसक से अपने घर में रहती थी, और कंजरी शाह के पैसे से होटल में ।"

    ReplyDelete
  8. बहुत मर्मस्पर्शी रचना...

    ReplyDelete

  9. ये खेल नहीं आसां--प्यार की पीर--पीना है--तिल-तिल,जहर का.
    सरल-सहज अभिव्यक्ति.

    ReplyDelete
  10. प्यार की राह--आसान नहीं यह एक पिम्जरा है जहां परवाज राजी होता है खुद अपने ही पंख कटाने को.
    मार्मिक अभिव्यक्ति
    (शाह की शाहनी०

    ReplyDelete
  11. आपने अम्रता जी की कहानी को लेकर जो ताना-बाना बुना वह अद्भुत है.उसको एक नई दिशा देकर पाठक को नए सिरे से सोचने को मजबूर किया है.

    ReplyDelete
  12. मेरे इस पोस्ट पर सराहनीय प्रतिक्रिया देकर आप सभी ने जो मान और प्रोत्साहन दिया है इसके लिए मैं आप सभी की दिल से आभारी हूँ. यूँ ही सहयोग और आशीष की उम्मीद रहेगी. सादर.

    ReplyDelete
  13. हर भाव ,हर दृश्य को साकार करती आपकी लेखनी को नमन !

    ReplyDelete
  14. बेहद खूबसूरत बसंती हवा सी मन को छूती निकल गई

    ReplyDelete
  15. सुन्दर पोस्ट.....
    आप को होली की बहुत बहुत शुभकामनाएं...
    नयी पोस्ट@हास्यकविता/जोरू का गुलाम

    ReplyDelete
  16. जेन्नी शबनम ने 'तेरे शाह की कंजरी ' के माध्यम से सिअ व्यथा को आकार दिया है , वह मन-मस्तिष्क को मथ देने वाली है । इतने प्रभावी गद्य के लिए बहुत बधाई !!

    ReplyDelete
  17. very good and fine lekhani
    manohar.news@gmail.com

    ReplyDelete
  18. very good and fine lekhani

    ReplyDelete
  19. bahut sunder likha hai, mere aansu beh rhe hain ..ab aur kya likhun.

    shubhkamnayen

    ReplyDelete
  20. एक नयी तरह का कहानी विन्यास
    बहुत भावुक और मार्मिक
    बेहतरीन प्रस्तुति
    बधाई

    ReplyDelete
  21. दिल को छूती कहानी। कितनी बार कहानी के पात्र जिंदगी में नजर आते हैं और कितनी बार हम खुद ऐसे पात्र बन जाते हैं।

    ReplyDelete
  22. आप सभी के स्नेह और सम्मान के लिए ह्रदय से आभार!

    ReplyDelete
  23. बहुत ही सुन्दर लिखावट। भाव सीधे-सीधे उकेरा है आपने। स्वयं शून्य

    ReplyDelete