मैंने जब से होश सँभाला तब से फैज़ की यह नज़्म सुनती और गुनगुनाती रही हूँ-
''हम मेहनतकश जगवालों से जब अपना हिस्सा माँगेंगे
इक खेत नहीं इक देश नहीं हम सारी दुनिया माँगेंगे...।''
बचपन में सोचती थी कि आख़िर मेहनत तो सभी करते हैं, फिर कौन किससे हिस्सा माँग रहा है? ये दुनिया आख़िर है किसकी? दुनिया है किसके पास? कोई एक जब पूरी दुनिया ले लेगा तो बाक़ी लोग कहाँ जाएँगे? अजीब-अजीब-से सवाल मन में इकट्ठे होते रहे। बड़े होने पर समझ आया कि कौन मेहनतकश है और कौन सरमायादार।
मई दिवस पर होने वाली हर बैठक में अपने माता-पिता के साथ मैं जाती थी। गोष्ठियाँ और बड़ी-बड़ी रैली होती, जिसमें शहर एवं गाँव के किसान व श्रमिक शामिल होते थे। झंडे, पोस्टर, बैनर आदि होते थे। पुरज़ोर नारे लगाए जाते थे- ''दुनिया के मज़दूरों एक हों'', ''ज़ोर ज़ुल्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है'', ''इन्क़िलाब ज़िन्दाबाद, पूँजीवाद मुर्दाबाद'' आदि। उन दिनों मई दिवस मेरे लिए जश्न का दिन होता था।
समय के साथ जब ज़िन्दगी की परिभाषा समझ में आई, तब ढेरों सवाल उगने लगे, जिनके जवाब अक्सर मुझे स्वयं ही समझ में आने लगे। जब ये दुनिया बनी होगी, तब स्त्री और पुरुष सिर्फ़ दो जाति रही होगी। श्रम के आधार पर पुरुषों की दो जातियाँ स्वतः बन गईं। एक जो श्रम करते हैं और एक जो श्रम करवाते हैं। जो श्रम नहीं करते, वे जीवन यापन के लिए बल प्रयोग द्वारा ज़र, जोरू और ज़मीन हथियाने लगे। बाद में इनके हिस्से में शिक्षा, सुविधा और सहूलियत आई। ये कुलीन वर्ग कहलाए। पुरुषों ने स्त्री को अपने अधीन कर लिया; क्योंकि स्त्री शारीरिक रूप से पुरुषों से कमज़ोर होती है। धीरे-धीरे स्त्री ने पुरुष की अधीनता स्वीकार कर ली; क्योंकि इसमें जोख़िम कम था और सुरक्षा ज़्यादा। कितना वक़्त लगा, कितने अफ़साने बने, कितनी ज़िन्दगी इन सबमें मिट गईं, कितनी जानें गईं, कितनों ने ख़ुद को मिटा दिया और अंततः सारी शक्तियाँ कुछ ख़ास के पास चली गईं। स्त्रियाँ और कामगार श्रमिक कमज़ोर होते गए और सताए जाने लगे। वे बँधुआ बन गए, उत्पादन करके भी वंचित रहे। वह वर्ग जिसके बल पर दुनिया के सभी कार्य होते हैं, सर्वहारा बन गए। इस व्यवस्था परिवर्तन ने सर्वहारा वर्ग को भीतर से तोड़ दिया। धीरे-धीरे हक़ के लिए आवाज़ें उठने लगीं, सर्वहारा के अधिकारों के लिए क्रान्ति होने लगी। मज़दूर-किसान और स्त्रियों के अधिकार के लिए हुई क्रान्तियों ने कानूनी अधिकार दे दिए, पर सामाजिक ढाँचे में ख़ास बदलाव नहीं आया। आज भी मनुष्य को मापने के दोहरे मापदण्ड हैं।
पुरुषों के दो वर्ग हैं शासक और शोषित, पर स्त्रियों का सिर्फ़ एक वर्ग है - शोषित। दुनिया की तमाम स्त्रियाँ आज भी अपने अधिकार से वंचित हैं; कुछ देश ने बराबरी का अधिकार दिया है। हर स्त्री उत्पादन का कार्य करती है। चाहे खेत में अनाज उपजाए या पेट में बच्चा। शिक्षित हो या अशिक्षित, घरलू कार्य की ज़िम्मेदारी स्त्री की ही होती है। फिर भी स्त्री को कामगार या श्रमिक नहीं माना जाता है। खेत, दिहाड़ी, चौका-बर्तन, या अन्य जगह काम करने वाली स्त्रियों को पारिश्रमिक मिलता है, पर समान कार्य के लिए पुरुषों से कम मिलता है। एक आम घरेलू स्त्री सारा दिन घर का काम करती है, संतति के साथ आर्थिक उपार्जन में मदद करती है; परन्तु उसके काम को न सिर्फ़ नज़रअंदाज़ किया जाता है बल्कि एक सिरे से यह कहकर ख़ारिज किया जाता है कि ''घर पर सारा दिन आराम करती है, खाना पका दिया तो कौन-सा बड़ा काम किया, बच्चे पालना तो उसकी प्रकृति है, यह भी कोई काम है।'' एक आम स्त्री के श्रम को कार्य की श्रेणी में रखा ही नहीं जाता है; जबकि सत्य है कि दुनिया की सभी स्त्री श्रमिक है, जिसे उसके श्रम के लिए कोई पारिश्रमिक नहीं मिलता है।
मज़दूर दिवस आते ही मज़दूरों, श्रमिकों या कामगारों की जो छवि आँखों में तैरती है उनमें खेतों में काम करने वाले, दिहाड़ी पर काम करने वाले, रिक्शा-ऑटो चालाक, कुली, सरकारी गैर सरकारी संस्था में कार्यरत चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी आदि होते हैं। हर वह व्यक्ति श्रमिक है, जो दूसरे के लिए श्रमदान करता है और बदले में पारिश्रमिक का हक़दार होता है। परन्तु आम स्त्री को श्रमिक अब तक नहीं माना गया है और न श्रमिक कहने से घर में घरेलू काम-काज करती, बच्चे पालती स्त्री की छवि आँखों में उभरती है।
मई दिवस आज भी वैसे ही मनाया जाएगा जैसे बचपन से देखती आई हूँ। कई सारे औपचारिक कार्यक्रम होंगे, बड़े-बड़े भाषण होंगे, उद्घोषणाएँ की जाएँगी, आश्वासन दिए जाएँगे, बड़े-बड़े सपने दिखाए जाएँगे। कल अख़बार नहीं आएगा; श्रमिक को साल में एक दिन काम से आराम। इन सबके बीच श्रमिक स्त्री हमेशा की तरह आज भी गूँगी-बहरी बनी रहेगी, क्योंकि माना जाता है कि यही उसकी प्रकृति और नियति है ।
समय आ गया है कि स्त्रियों के श्रम को मान्यता मिले और इसके लिए संगठित प्रयास आवश्यक है। इसमें हर उस इंसान की भागीदारी आवश्यक है, जो स्त्रियों को इंसान समझते हैं, चाहे वे किसी धर्म, भाषा, प्रांत के हों। स्त्रियों के द्वारा किए गए कार्य का पारिश्रमिक देना तो मुमकिन नहीं और न उचित है; इससे स्त्री अपने घर में श्रमिक और उसका पिता या पति मालिक बन जाएगा। अतः स्त्री के कार्य को श्रम की श्रेणी में रखा जाए और उसके कार्य की अवधि की समय सीमा तय की जाए। स्त्री को उसके श्रम के हिसाब से सुविधा मिले और आराम का समय सुनिश्चित किया जाए। स्त्री को उसके अपने लिए अपना वक़्त मिले, ताकि अपनी मर्ज़ी से जी सके और अपने समय का अपने मनमाफ़िक उपयोग सिर्फ़ अपने लिए कर सके। शायद तब हर स्त्री को उसके श्रमिक होने पर गर्व होगा और कह पाएगी ''मज़दूर दिवस मुबारक हो!''
- जेन्नी शबनम (1.5.2013)
(मज़दूर दिवस)
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कितना अच्छा हो ऐसा संभव हो जाए !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बृहस्पतिवार (02-05-2013) दो मई की दिलबाग विर्क की चर्चा - 1232 में "मयंक का कोना" पर भी होगी!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
PRABHAAVSHALEE LEKH KE LIYE AAPKO
ReplyDeleteBADHAAEE AUR SHUBH KAMNA .
waaah sarthak prastuti .... sach kaha aapne bahut kuchh kiya gaya majduo or striyo ki dasha sudharne hetu .. par keval kagaj ke panno par hi ..samajik sanrchna aj bhi wahi hai
ReplyDelete'मज़दूर महिलाएँ : मूल्यहीन श्रम'लेख का एक -एक शब्द तर्कपूर्ण और वैचारिक चिन्तन को उद्वेलित करने वाला है । ताकतवर होना ही सुविधाओं पर काबिज़ होने का कारण बन गया है । वह ताकत नियम , कानून , सम्प्रदाय , जाति , पद , क़द किसी की भी तरह की हो ।जो कमज़ोर हो गया वह, शक्तिशाली का शिकार बन गया । समय के साथ लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं में भी आकर्षक घोषणाओं का काला पक्ष नज़र आता है , जब मामूली- सी पेंशन पाने के लिए रोटी के लिए तरसती विधवा को घूस देनी पड़ती है। श्रम का मूल्य हड़पने के लिए तो बहुत सारी कम्पंनियाँ रात-दिन मालामाल होती जा रही हैं और जो बदहाल थे वे और अधिक बुरी ज़िन्दगी जीने के लिए त्रस्त हैं। कानून को ठेंगा दिखाने वाले तर माल उड़ाने में लगे रहते हैं, छ्द्म विज्ञापन झूठे सपनों का संसार रोज़ तमाशे की तरह दिखाते रहते हैं । डॉ जेन्नी शबनम जी को इस लेख के लिए बहुत बधाई !
ReplyDeleteaapke itne sargarbhit aalekh ko pada.kayaa vastav men esaa sambhav ho paegaa.agar esaa huaa to duniya kitni khubsurat ho jaaegee.
ReplyDeleteसंभव होना ही अच्छा है
ReplyDeleteLAL SALAM
ReplyDeletetoo good--***
ReplyDeleteआप की ये सुंदर रचना आने वाले सौमवार यानी 25/11/2013 को नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही है... आप भी इस हलचल में सादर आमंत्रित है...
ReplyDeleteसूचनार्थ।
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Nice sharing
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