वह मुक्त हो गई। इस समाज, देश, संसार से उसका चला जाना ही उचित था। मगर दुःखद पहलू यह है कि उसे प्रतिघात का न मौक़ा मिला, न पलटवार करने के लिए जीवन। उसे अलविदा होना ही पड़ा। अब एक ऐसी अनजान दुनिया में वह चली गई, जहाँ उसे न कोई छू सकेगा, न उसे दर्द दे सकेगा। न कोई ख़ौफ़, न कोई अनुभूति। हार-जीत से परे, दुःख-दर्द की दुनिया से दूर। जाने कहाँ गई? किस लोक? स्वर्ग, नरक या कोई और लोक जो मृतात्माओं का प्रतीक्षालय है; जहाँ मृतात्माएँ अपने पूर्व जन्म के अत्याचार का बदला लेने के लिए पुनर्जन्म को तत्पर रहती हैं।
इस संवेदनशून्य दुनिया से उसने पलायन नहीं किया; बल्कि अपनी शक्ति से दमभर लड़ती रही। भले ही जंग हार गई, पर हौसला नहीं टूटा। वह बहादूर थी। वह चाहती थी कि जीवित रहे और उन वहशी दरिन्दों का अंत अपनी आँखों से देखे। वह अवश्य जानती रही होगी कि वह अकेली स्त्री नहीं है, जिसके साथ ऐसा घिनौना, क्रूरतम, पाशविक, अत्याचार हुआ है। देश के सभी हिस्सों में रोज़-रोज़ घटने वाली ऐसी घटनाओं की ख़बर हर दिन उसे भी विचलित किया करती थी। पर उसने यह कहाँ सोचा होगा कि देश की राजधानी के उस हिस्से में उसके साथ ऐसा होगा, जो बेहद व्यस्ततम और मुख्य मार्ग पर है और तब जबकि वह अकेले नहीं किसी पुरुष के साथ है। उसने कहाँ सोचा होगा कि यातायात के सबसे सुरक्षित साधन 'बस' में उसके साथ ऐसा होगा।
उस वक़्त सिर्फ़ एक लड़की का बलात्कार नहीं हुआ; बल्कि समस्त स्त्री जाति के साथ बलात्कार हुआ। उस वक़्त सिर्फ़ उसका पुरुष साथी बेबस और घायल नहीं हुआ; बल्कि समस्त मानवता बेबस और घायल हुई। हर एक आह के साथ इंसानियत पर से भरोसा टूटता रहा। भीड़ का कोलाहल उनकी चीख को अपने दामन में समेटकर न सिर्फ़ अनजान बना रहा; बल्कि अपना हिस्सा बनाकर हैवानियत को अंजाम देता रहा। क्षत-विक्षत तन-मन जिसमें कराहने की ताक़त भी न बची, बेजान वस्तुओं की तरह फेंक दिए गए। एक और कलंक दिल्ली के नाम। आख़िर वक़्त शर्मिन्दा हुआ और उसका सामना न कर सका, उसे दूसरे वतन में जाकर मरना पड़ा। एक बार फिर किसी को स्त्री होने की सज़ा मिली और समस्त स्त्री जाति ख़ुद को अपने ही बदन में समेट लेने को विवश हुई।
अगर उसका जीवन बच जाता, तो क्या वह सामान्य जीवन जी पाती? क्या सब भूल पाती? मुमकिन है शारीरिक पीड़ा समय के साथ कम हो जाए, लेकिन मानसिक पीड़ा से वह आजीवन तड़पती। क्या वह आत्मविश्वास वापस आ पाता, जिसे लेकर अपने गाँव से राजधानी पहुँची थी? उसने भी तो पढ़ा और सुना होगा कि ऐसी घटनाओं के बाद इसी समाज की न जाने कितनी लड़कियों ने आत्महत्या की है। क्या वह भी आत्महत्या कर लेती? क्या पता इतनी यातना सहने के बाद जीवन में और संघर्ष सहन करने की क्षमता न बचती। जीवन भर लोगों की दया की पात्र बनकर जीना होता। क्या मालूम उसकी मनःस्थिति कैसी होती? क्या वह इस दुनिया को कभी माफ़ कर पाती? क्या ईश्वर को कटघरे में खड़ा नहीं करती, जिसने ऐसे संसार की रचना की और ऐसे पुरुष बनाए।
न सिर्फ़ दिल्ली बल्कि देश के सभी हिस्सों में स्त्री की स्थिति लगभग एक-सी है। सामाजिक हालात के कारण सभी स्त्रियाँ अँधेरे में अकेले चलने से डरती हैं; सम्भव हो तो किसी को साथ लेकर ही चलती हैं। सभी जानते हैं कि एक अकेला पुरुष भीड़ से नहीं लड़ सकता, फिर भी पुरुष के साथ होने पर अपराध की संभावना कम हो जाती है; भले साथ चलने वाला पुरुष छोटा बच्चा क्यों न हो।
अक्सर किसी और के साथ होने वाली दुर्घटना के बाद हम सोचते हैं कि हम बच गए और आशंकित रहते हैं कि कहीं हमारे साथ या हमारे अपनों के साथ कोई दुःखद घटना न घट जाए। किसी भी परिस्थिति का आकलन कर उसे समझना और उस परिस्थिति में ख़ुद होना बिल्कुल अलग एहसास है। स्त्रियों के पास पाने के लिए कुछ हो, न हो, परन्तु खोने के लिए सब कुछ होता है। बिना ग़लती किए स्त्री गुनहगार होती है। स्त्री का स्त्री होना सबसे बड़ा गुनाह है। स्त्री उस गुनाह की सज़ा पाती है, जिसे वह अपनी मर्ज़ी से नहीं करती ।
बलात्कार की इस घटना से एक तरफ़ पूरा देश स्तब्ध, आहत और आक्रोशित है, तो दूसरी तरफ़ इसी समाज में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के लिए स्त्री को दोषी ठहराते हैं। कोई पाश्चात्य संस्कृति को ऐसे अपराध का कारण मानता है, तो कोई स्त्री को ज़रूरत से ज़्यादा आज़ादी देने का परिणाम कहता है। कुछ का कहना है कि पुरुषों के बराबर अधिकार मिलने के कारण स्त्रियाँ देर रात तक घर से बाहर रहती हैं, तो ये सब तो होगा ही। कुछ का कहना है कि स्त्रियाँ दुपट्टा नहीं ओढ़तीं और कम कपड़े पहनती हैं, जिसे देखकर पुरुष में काम वासना जागृत होती है। यह भी कहा जाता है कि स्त्रियाँ लक्ष्मण रेखा पार करेंगी, तो ऐसी घटनाएँ होना स्वाभाविक है। बलात्कार जैसे अपराध के लिए भी अंततः स्त्रियाँ ही दोषी सिद्ध की जाती हैं और ऐसे मुद्दे पर भी राजनीति होती है।
सभी स्त्रियों की शारीरिक संरचना एक-सी होती है चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, भाषा या देश की हो, हमारी आराध्य दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, काली, पार्वती, सीत हो या अहल्या, मेनका, द्रौपदी, सावित्री, शूपर्णखा हो या राजनीतिज्ञ, अभिनेत्री, व्यवसायी, वेश्या या आम स्त्री हो। अगर नग्नता के कारण कामुकता पैदा होती है, तो खजुराहो को मन्दिर कहने पर भी आपत्ति होनी चाहिए। कृष्ण और राधा के रिश्ते की भर्त्सना होनी चाहिए। कालीदास की शकुन्तला को वासना भरी नज़रों से देखना चाहिए। साड़ी पहनने पर स्त्री के शरीर का कुछ अंग और उभार अपने पूरे आकार के साथ नज़र आता है, तो निश्चित ही भारतीय परम्परा से साड़ी को हटा देना चाहिए। बलात्कारी की माँ, बहन, बेटी का बदन भी वैसा ही है जैसा बलात्कार पीड़ित किसी स्त्री का, तो मुमकिन है हर बलात्कारी अपनी माँ, बहन, बेटी को हवस का शिकार बना सकता है। जन्मजात कन्या को उसके बाप-भाई के सामने नहीं लाना चाहिए, क्योंकि उस कन्या के नंगे बदन को देख उसका बाप-भाई भी कामुक हो सकता है। किसी पुरुष को स्त्री रोग विशेषज्ञ भी नहीं होना चाहिए।
धिक्कार सिर्फ़ बलात्कारियों को नहीं उन सभी को है, जिनकी नज़र में बलात्कार का कारण मानसिक विकृति नहीं बल्कि स्त्री है। बलात्कार एक ऐसा अपराध है जिसे सदैव पुरुष करता है और अपने से कमज़ोर शरीर वालों के साथ करता है, चाहे वह किसी भी उम्र की स्त्री हो या छोटा बालक। कमज़ोर पर अपनी ताक़त दिखाने का सबसे आसान तरीक़ा बलात्कार करना है। भले इसे हम मानसिक विकृति कहें या दिमाग़ी रोग, लेकिन ऐसे अपराधियों के लिए कारावास, जुर्माना या शारीरिक दण्ड निःसन्देह सज़ा के रूप में कम है। बलात्कार के अधिकतर मामले दबा दिए जाते हैं, जो सामने आए भी तो गवाह के अभाव में अपराधी छूट जाते हैं। बलात्कार का अपराध साबित हो जाने पर सज़ा का प्रावधान इतना कम है कि अपराधी को कानून का ख़ौफ़ नहीं होता। अगर बलात्कार पीड़िता की मृत्यु हो जाए, तो ही फाँसी का प्रावधान है। समाज और कानून की कमज़ोरी और संवेदनहीनता के कारण हर रोज़ न जाने कितनी स्त्रियाँ आत्महत्या कर लेती हैं या ज़िन्दा लाश बन जाती हैं।
इस घटना से पहली बार एक साथ सामाजिक चेतना की लहर जागी है। देश के अधिकतर हिस्सों में आक्रोश और क्रोध दिख रहा है। गुनहगारों की सज़ा के लिए हर लोगों की अपनी-अपनी राय है, पर इस बात पर सभी एकमत हैं कि गुनाहगारों को फाँसी दी जाए। उन बलात्कारियों को सज़ा इसलिए मिल पाएगी, क्योंकि उन्होंने बलात्कार करने के बाद सबूत को पूरी तरह नहीं मिटाया और उसका पुरुष-साथी बच गया। दामिनी की मृत्यु के कारण अब फाँसी होना तय है; लेकिन अगर वह जीवित बच जाती तो निश्चित ही कानून में सार्थक बदलाव आता।
बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के कानून में बदलाव और संशोधन के लिए मंत्रालयों, आयोगों, नेताओं, सामाजिक संस्थाओं, जनता सभी से राय माँगी गई है। उस लड़की की क़ुर्बानी विफल होगी, आम जनता की मुहीम राजनीति की भेंट चढ़ेगी, कानून में सार्थक संशोधन और बदलाव होगा यह आने वाला समय बताएगा। सख़्त कानून के साथ कानून के रखवालों का भी सख़्त, सतर्क और निष्पक्ष होना ज़रूरी है। किसी भी कानून की आड़ में कानून से खिलवाड़ करने वाले भी होते हैं, ऐसे में निष्पक्ष न्याय के लिए कड़े और प्रभावी क़दम उठाए जाने होंगे, ताकि हर इंसान बेख़ौफ़ जीवन जी सके और हर अपराधी मनोवृति वाला कठोर दण्ड के डर से अपराध न करे।
- जेनी शबनम (18.1.2013)
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आपकी लेखनी जन -चेतना जगाने वाली है ऽअपने सभी समस्याओं का उल्लेख कटु यथार्र्ह के धरातल पर किया है । इस गुणात्मक लेखन के लिए आपको हार्दिक बधाई !
ReplyDeleteसमय को रेखांकित करता आलेख |
ReplyDeleteबेह्तरीन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteजेन्नी जी बहुत सार्थक उत्कृष्ट आलेख इस मंगलवार को चर्चा में नही ले पाई अभी देखा अगले मंगलवार चर्चा मंच पर देखिये ,जन जाग्रित करने वाला आलेख हम सभी की आवाज़ है हर्दिक बधाई
ReplyDeleteबहुत बढि़या- सारिक खान
ReplyDeletehttp://sarikkhan.blogspot.in/
बहुत बढि़या- सारिक खान
ReplyDeletehttp://sarikkhan.blogspot.in/
on the dot -****
ReplyDeleteon the dot -****
ReplyDeleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि कि चर्चा कल मंगलवार 12/213 को चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां स्वागत है
ReplyDeleteआपकी लेख सामयिक और सटीक है समय की मांग को रेखांकित करती है.
ReplyDelete#links
कोई भी कानून बनाने से पहले... मानवीय पक्ष को भी देखा जाना चाहिए.. सुंदर आलेख
ReplyDeleteकोई भी कानून बनाने से पहले... मानवीय पक्ष को भी देखा जाना चाहिए.. सुंदर आलेख
ReplyDeletebahut hi achhi taah se stri ki vyatha ko likha hai...kyun ham sab insaniyat khote ja rhe hain......
ReplyDeleteshubhkamnayen
हम अपनी मर्यादा, संस्कार को भूल चुके हैँ। पाश्चात्य संस्कृति ने हमेँ आध्यात्म से दूर कर भोगवादी बना दिया। बाकी कमी हमारी सिनेमा संस्कृति ने पूरी कर दी, जिनकी नजर मेँ स्त्री मात्र भोग की वस्तु है।
ReplyDeletehttp://yuvaam.blogspot.com/2013_01_01_archive.html?m=0
good post. well written.
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