Wednesday, December 12, 2012

40. समय की सीधी समझ

समय में न जाने कौन-सा पहिया लगा होता है कि पलक झपकते कई वर्ष घूम आता है और कई बार ऐसा कि धकेलते रहो धकेलते रहो पर सब कुछ स्थिर, तटस्थ समय का पहिया शायद हमारे मन के द्वारा संचालित होता है।सबका अपना-अपना मन, अपना-अपना समय, कभी उड़न्तु घोड़ा तो कभी अड़ियल मगरमच्छ मन होता ही ऐसा है कि कई युग एक साथ फलाँग जाए, तो कभी कई सदियों-सा एक-एक दिन जिए समय यायावर है, जाने कहाँ-कहाँ भटकता फिरता है और हम उसके पीछे भागते-भागते थक जाते हैं। समय के साथ क़दम-ताल मिलाना चाहकर भी कई बार मुमकिन नहीं होता, तो कई बार समय ख़ुद-ब-ख़ुद अपना क़दम हमारे क़दम के साथ साध लेता है। सुना है कि समय पर किसी का ज़ोर नहीं, पर कभी-कभी ऐसा लगता है जैसे समय हमारे साथ दोहरी चाल चलता है।

यों महसूस होता है जैसे समय का पहिया सिर्फ़ स्त्रियों के लिए चलता है और अपनी रफ़्तार मनमाफ़िक़ बदलता है। कई बार ऐसा घूमता है कि स्तब्ध कर जाता है। होनी-अनहोनी, आशंकाएँ, दुविधा आदि न जाने क्यों सबसे ज़्यादा स्त्रियों के हिस्से में है। न समय साथ देता है, न ज़माना। फिर भी स्त्रियाँ अपने पल्लू में अपने लिए समय को बाँधे रखती हैं और अपने हिसाब से अपनी रफ़्तार तेज़-धीमी करती रहती हैं। हालाँकि स्त्री के साथ समय नहीं होता, पर साथ होने के भ्रम को बनाए रखने के ढेर सारे तजवीज़  होते हैं।प्रेम, ममता, त्याग, स्थिरता, संकोच, समर्पण, सेवा भावना आदि ऐसे हथियार हैं, जो स्त्री के स्त्री होने के रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट है और इससे ही वार कर अक्सर उसे कमज़ोर बनाया जाता है।

जन्म के पहले से स्त्री के यायावरी की कहानी शुरू होती है पिता, पति, पुत्र के घर से होते हुए स्त्री अंततः परलोक को अपना स्थायी निवास मानने लगती है। स्त्री की ज़िन्दगी सदैव मेहरबानियों पर टिकी होती है। अपनी ख़ुशी के लिए ग़ैरों की ख़ुशामद में सारी ज़िन्दगी बिता देती है। अगर किसी घर में पुत्र-पुत्री की परवरिश समान रूप से होती है, तो आगे चलकर उस स्त्री की ज़िन्दगी ज़्यादा दुःखद हो जाती है। उस स्त्री को समाज रूपी समय समझा देता है कि स्त्री का समय अलग होता है और पुरुष का अलग। स्त्री को अपने समय के हिसाब से चलना ही चाहिए, वर्ना समय का कुचक्र स्त्री का सबकुछ छीन लेता है। हमारी परम्पराएँ और रूढ़ियाँ सदैव पुरुष के पक्ष व हित में स्थापित की गईं, और इसका ख़म्याज़ा स्त्री पूरी ज़िन्दगी चुकाती रहती है।
  
हमारी संस्कृति हमारे जीवन को राह दिखाती है और हमारे संस्कार राह पर चलने के तरीक़े। हमारी संस्कृति और संस्कार बनाने और पोषित करने वाले भी तो हमारे जैसे ही लोग रहे होंगे। सामयिक ज़रूरत के हिसाब से स्थापित मूल्यों और आदर्शों को परम्परा के नाम पर हम पर थोप दिया गया, भले वह आज के समय के हिसाब से अतार्किक और असंगत हो। स्त्रियों के लिए स्पष्टतः कर्त्तव्य निर्धारित किए गए और पाप-पुण्य की कसौटी पर सारे कार्य बाँट दिए गए। एक लक्ष्मण रेखा जन्म से खींच दी गई, जिसे पार करना निषिद्ध है। निर्देशित मर्यादा का पालन करना होगा, अगर न किया तो पाप की सज़ा ऐसी कि मृत्यु दण्ड से भी पूरी न हो।

धीरे-धीरे समय ने ज़रा-सी ज़हमत की और स्त्री के हक़ में ज़रा-सा बोलना शुरू किया। फिर भी समय अपनी ताक़त दिखाता रहा और पुरुष को कुरेद-कुरेदकर स्त्री के विरुद्ध सुलगाता रहा स्त्री को उसका अपना शरीर एक श्राप के रूप में मिला और साथ ही पूँजी के रूप में भी, जिसका इस्तेमाल पुरुष करता रहा अपने फ़ायदे के लिए और कभी-कभी स्त्री भी अपने फ़ायदे और मज़बूरी में। स्त्री अपने शरीर की सुरक्षा में जीवन भर जुटी रहती है, क्योंकि उसका बदन अगर किसी ग़ैर ने छू भी लिया तो पापी कहलाएगी स्त्री की कोख से स्त्री का जन्म लेना भी समाज को सह्य नहीं।और जहाँ स्त्री को स्त्री-जन्म का अधिकार मिला, तो ऐसे जैसे बहुत बड़ा एहसान किया गया हो। एहसानों तले दबी स्त्री किस-किस के एहसान से दबती रही, कौन जाने। दोनों हथेलियों से समय और समाज के आगे गुहार लगाती स्त्री अंततः ख़ाली मुट्ठी को भरा हुआ मान मुट्ठी बाँध लेती है और मुट्ठी में सुख सहेजे रहने का भ्रम ख़ुद को और समय को देती है। 

समय को शायद श्राप है अबूझ बने रहने का और किसी के भी क़ाबू में न आने का। सबसे बड़ा कार्य जो समय ने पुरुष के पक्ष में किया वह है पुरुष को पुरुष का बदन देना। वैसे हर युग में स्त्री-पुरुष को एक दूसरे का पूरक माना गया, चाहे शरीर के रूप में हो या मन के। शिव-पार्वती, राम-सीता, राधा-कृष्ण एक दूसरे के पूरक माने गए। लेकिन आम पुरुष और स्त्री एक दूसरे के पूरक न बन सके। अगर कोई बनना चाहे तो बनने नहीं दिया जाता है। बहुत सारे निषेध हैं जिनका पालन अनिवार्य है और माना जाता है कि पुरुष का पुरुषत्व स्त्री के बराबरी से कम हो जाता है। स्त्री पर अपना आधिपत्य बनाए रखना पुरुषोचित गुण है, भले इसके लिए स्त्री का शारीरिक और मानसिक शोषण किया जाए। सिर्फ़ एक अवसर है जब स्त्री को सम्मान मिलता है और वह है धार्मिक क्रिया-कलाप।

समय कभी-कभी बेरहम मज़ाक भी करता है और स्त्री को स्त्री बने रहने का सबूत देना पड़ता है। स्त्री को अपनी समस्त मर्यादाओं का पालन बिना सवाल किये करना होता है और आजीवन अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए पुरुषों की कृपा पर निर्भर रहना होता है। वह कृपा चाहे एक पिता करे या पति या पुत्र। सामाजिक सोच ऐसी बन चुकी है कि पुरुष अपनी सफलता का श्रेय ख़ुद को देता है और विफलता का दोष स्त्री को। एक ही स्त्री किसी पुरुष के लिए नरक का द्वार है, तो किसी के लिए स्वर्ग का। अब ये समय की टेढ़ी नज़र है या समय का कतरा हुआ पर, कौन जाने।

समय कभी-कभी ख़ुद को बड़ा असमंजस में पाता है कि आख़िर किसका साथ दे और कैसे दे। जब किसी स्त्री ने स्त्री के हक़ की बात की, तो उसे ऐसे फेमिनिस्ट कहा जाता है जैसे वह अछूत हो और गाली की हक़दार हो।अगर कोई पुरुष स्त्री के अधिकार के लिए आवाज़ उठाए या बराबरी की बात करे, तो उसे जोरू का ग़ुलाम या फिर नामर्द कहा जाता है। 
 
आजकल जब समय ने अपनी एक आँख खोली और थोड़ा जागरूक हुआ, तो स्त्री के हक़ की बात करना फ़ैशन बन गया। स्त्री को समान शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन आदि का अधिकार देना और इसका ढोल पीटना सम्मान पाने का एक नया तरीक़ा ईजाद हुआ और संवेदनशील होने का प्रमाण बन गया। सब समय की कृपा है।

समय के पहिया में पंख लग गया और बदलाव के इस युग में क्रान्तियाँ फुर्र से उड़ गईं। मेरे अपने देखे और जाने 45 साल में कुछ नहीं बदला है। उन दिनों भी स्त्री महज़ स्त्री थी और आज भी स्त्री सिर्फ़ स्त्री है, जैसी सतयुग में रही होगी। समय तो अपने आँख-कान बंद कर लेता है, जब उसके पास जवाब नहीं होते। लेकिन स्त्री अपने सवालों से पीछा कैसे छुड़ाए, किससे पूछे अपनी त्रासदी का सबब और किससे करे वेदना भरे सवाल। समय वाचाल है। स्त्री हार-हार जाती है फिर उठकर अपने जीवन का औचित्य तलाशती है। स्त्री अपना औचित्यहीन जीवन कभी प्रेम, कभी पूजा, कभी त्याग में व्यतीत करती है। वह एक-एक पल गिनती रहती है जब वह अपने स्थायी घर (स्वर्ग) जा सके और इस इन्तिज़ार में जीवन काटती है। लम्पट समय मुस्कुराता है और पुरुष के सम्मान में स्त्री के लिए मर्सिया गाता है।

समय दौड़ता-भागता, उड़ता-नाचता, गिरता-पड़ता, अपना खेल खेलता है।जीवन इसी में चलता है, कभी समय के साथ, कभी समय के पीछे। समय के आगे तो कोई चल न सका। समय तो समय है, लिंग-भेद से परे और लिंग-भेद करता हुआ, सदियों का इतिहास ख़ुद में समेटे पल-पल इतिहास बनाता हुआ। आज यों लगता है जैसे समय ने अपने क़दम की रफ़्तार को संयमित कर लिया है। सभी के लिए समय ने अपने क़दम के लय को सुगम बना लिया है। क्योंकि आज की तारीख़ 12.12.12 रोचक और दुर्लभ है, अद्भुत संयोग है। समय स्थिर होकर सब नज़ारा देख रहा है। आज के जश्न में शामिल समय इस अद्भुत तारीख़ के आवभगत के लिए ख़ुद को पिछली सदी से ही तैयार कर चुका है। अगली सदी में एक नए इतिहास के साथ जब आज का समय आज को याद करेगा, तब तक शायद समय भी चेत जाए और सबके लिए एक-सा सुखद और आनन्ददायक बन जाए

- जेन्नी शबनम (12.12.12)
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