Thursday, March 8, 2012

35. आधी दुनिया अधूरे ख़्वाब


चित्र - मेरे द्वारा
शायद 21वीं सदी का सबसे बड़ा आश्चर्य है कि विकास के तमाम आयामों को प्राप्त करने और सामाजिक-पारिवारिक व्यवस्था को निरन्तर मज़बूत बनाए रखने की सफल कोशिशों के बावजूद स्त्री-विमर्श ज़िन्दा है। ये न सिर्फ़ किताबों, कहानियों, कविताओं तक सीमित है, बल्कि हर पढ़े-लिखे और अनपढ़ नागरिकों के मन में पुरज़ोर ढंग से चल रहा है। आज जब हम महिलाओं के पिछड़ेपन की बात करते हैं, तो इसका सबसे बड़ा कारण मातृसत्तात्मक समाज का ख़त्म होना और पितृसत्तात्मक समाज का उदय होना दिखाई पड़ता है। जैसे-जैसे समाज पुरुष-प्रधान बनता गया स्त्री हमेशा के लिए पुरुष-वर्ग की 'सर्वहारा' बनती गई। एक-एककर स्त्री के सारे अधिकार पुरुष को मिलते गए और स्त्री ग़ुलाम बनती गई। सत्ता के हस्तान्तरण ने स्त्री की अस्मिता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया। धीरे-धीरे स्त्री सम्पत्ति बनती गई, जिसका स्वामी उसका निकट सम्बन्धी होने लगा। पुरुष की सुविधा, विलासिता और स्वेच्छाचारिता के लिए स्त्री उपभोग की वस्तु बन गई। 
 
पूँजीवाद और साम्राज्यवाद तेजी से विकसित हो रहे थे, तब औद्योगीकरण का प्रभाव बढ़ने लगा। महिलाओं का आर्थिक, शारीरिक और मानसिक रूप से शोषण बढ़ता जा रहा था। पूँजीवाद के कारण आर्थिक स्थिति पर प्रभाव पड़ा और फिर घर सँभालने के साथ मज़दूरी करने का दोहरा बोझ स्त्री पर पड़ा। स्त्रियाँ रोज़गार के लिए घर से बाहर निकलने लगीं, कारख़ानों और लघु उद्योगों में काम करने लगीं। एक तरफ़ घर की ज़िम्मेदारियाँ, दूसरी तरफ़ मालिकों-महाजनों का क़हर। सामान्य अधिकारों से वंचित ये स्त्रियाँ टूट रही थीं और ख़ुद को स्थापित करने के लिए एकजुट हो रही थीं। उन्हें कारख़ानों में समान काम के लिए पुरुष से कम वेतन मिलता था, काम के घंटे अधिक थे, प्रसव-काल में अलग से कोई सुविधा नहीं दी जाती थी। स्त्रियों के सवाल भी एक और दास्तान भी एक। धीरे-धीरे महिलाएँ अपनी अस्मिता और अपने अधिकार के लिए सचेत और संगठित होने लगीं। चिंगारी सुलगने लगी। महिलाओं द्वारा अपने अधिकार के लिए उठाई गई आवाज़ को कुचल दिया जा रहा था। स्थिति असह्य और विस्फोटक होती गई और महिलाओं का संघर्ष क्रान्ति का रूप लेने लगा। 
 
चित्र - मेरे द्वारा
महिलाओं के शोषण पर 19वीं शताब्दी के अंत से सवाल उठने शुरू हुए और 20वीं शताब्दी के शुरुआत में एक आन्दोलन का रूप ले लिया। समाजवादी और कम्युनिस्ट आन्दोलन ने सबसे पहले महिलाओं के मुद्दे को अपने कार्यक्रम में व्यापक रूप से शामिल किया। जर्मनी में वर्ष 1890 में समाजवादी महिला आन्दोलन की शुरुआत हुई, जिसमें काम के घंटों में कमी, पुरुषों के बराबर मज़दूरी, बाल मज़दूरी का उन्मूलन, महिलाओं को मत देने का अधिकार आदि मुद्दों को शामिल किया गया। वर्ष 1908 में न्यूयार्क के कपड़ा-मिल मज़दूर महिलाओं ने अपने काम के घंटे में कमी, बेहतर वेतन और वोट के अधिकार के लिए विशाल प्रदर्शन किया। 28 फरवरी 1909 में सोशलिस्ट पार्टी ऑफ़ अमेरिका द्वारा पहली बार 'नेशनल वुमेन डे' मनाया गया, तब तक दुनिया भर में स्त्री चेतना का संघर्ष निर्णायक दौर में पहुँच चुका था। तत्पश्चात वर्ष 1910 में डेनमार्क के कोपेनहेगन में महिलाओं के एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महिला दिवस मनाने का निर्णय लिया गया और वर्ष 1911 में पहली बार 'अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस' मनाया गया। इस दिन ऑस्ट्रिया, जर्मनी, डेनमार्क, स्विट्जरलैंड में लाखों की तादाद में महिलाओं ने रैली निकाली और प्रदर्शन किया। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान शान्ति स्थापित करने के लिए महिलाओं ने इस दिन महिला दिवस मनाया। संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 1977 में सरकारी तौर पर अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को मान्यता प्रदान कर प्रस्ताव पारित किया कि विश्व के समस्त देश इस दिन को महिलाओं के अधिकार के लिए समर्पित करें और महिला दिवस मनाएँ। 
बाएँ से - मैं, ग्रामीण स्त्री, सहयोगी शिक्षिका
महिलाओं के अधिकारों के लिए किया जाने वाला संघर्ष पूर्णतः सफल नहीं हो पाया। अपितु बहुत सारे अधिकार प्रदान किए गए और स्थिति में काफ़ी बड़ा परिवर्तन आया। सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक रूप से स्त्री को पुरुष के बराबर अधिकार मिले। वेतन, वोट, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि में स्त्री को बराबर की भागीदारी मिली। क़ानून द्वारा महिलाओं की सुरक्षा और अधिकार के लिए क़ानून में कई सुधार और संशोधन किए गए। हर क्षेत्र में महिलाओं के लिए समान अवसर निश्चित किए गए। ग़ौरतलब है कि महिलाओं के संघर्ष-आन्दोलन को पश्चिमी देशों में जितनी मान्यता और सफलता मिली अन्य जगहों में नहीं।
ग्रामीणों द्वारा उत्सव नृत्य
महिलाओं के संघर्ष की गाथा जितनी पुरानी है, उतनी ही बेमानी लगती है क़ानून से प्राप्त अधिकारों के साथ महिला की ज़िन्दगी। काग़ज़ पर सारे अधिकार मिल गए, लेकिन वास्तविक रूप में स्थिति आज भी शोचनीय है। हमारे देश में आज भी स्त्रियाँ दोयम दर्जे की ज़िन्दगी जीने को विवश हैं। स्वास्थ्य और शिक्षा के मामले में आज भी स्त्रियाँ पुरुष के मुक़ाबले बहुत पीछे हैं। बाल विवाह, अशिक्षा, दोहरी मानसिकता, दहेज, बलात्कार आदि समस्या दिन-ब-दिन विकराल रूप लेती जा रही है। भ्रूण हत्या, दहेज हत्या, अंधविश्वास के कारण प्रताड़ना और हत्या, ऑनर किलिंग आदि घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं। बड़े-बड़े महानगरों के अपवाद को छोड़ दें, तो सम्पूर्ण देश की महिलाओं की हालत आज भी एक जैसी त्रासद है।
मेरे साथ ग्रामीण बच्चे और सहयोगी
आज महिला आन्दोलन को महिला आरक्षण तक सीमित किया जा रहा है और शासक की इस चाल को समझते हुए भी महिला दिवस मनाकर संतोष कर लिया जाता है। हर साल की तरह हर साल महिला दिवस मनाया जाता है। कुछ औपचारिक कार्यक्रम, भाषण, व्याख्यान, स्त्री सशक्तीकरण के कुछ उदाहरण पर संतुष्टि, आरक्षण का मुद्दा और फिर 'महिला दिवस' एक साल तक के लिए समाप्त।
ग्रामीणों के साथ मेरी सहयोगी
स्त्री सशक्तीकरण और स्त्रियों के अधिकार की लड़ाई महज़ महिला दिवस मना लेने से कतई सम्भव नहीं है। जब तक व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन नहीं होगा, महिलाओं की स्थिति यथावत् रहेगी। ये तय है कि महिलाओं को सम्पूर्ण आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक अधिकार समाजवाद से ही सम्भव है। इसके सिवा और कोई विकल्प नहीं, जिससे महिलाओं की स्थिति पर गम्भीरता से विचार किया जाएसिर्फ़ कानून बनाकर सरकार द्वारा कर्तव्यों की इतिश्री न समझी जाए। जितने भी स्त्री उत्थान के लिए कानून बने, सभी विफल हुए या फिर उस कानून की आड़ में सदैव मनमानी की गई, चाहे स्त्री द्वारा या पुरुष द्वारा। कानून असफल हो गए, नियम  ध्वस्त हो गए। आज स्त्री जिस कुण्ठा में जी रही है, उससे निःसंदेह समाज में अस्थिरता आएगी। स्त्री को प्रारब्ध से मिले असंगति का निवारण न सरकार कर पाती है न समाज न तथाकथित ईश्वर।
होली मिलन - ग्रामीणों के साथ मैं
- जेन्नी शबनम (8.3.2012)
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25 comments:

  1. सहमत होने के आलावा और कोई रास्ता नही है बहुत गहरे से अध्यन कर के लिखा है सब कुछ

    बहुत अच्छा लेख बहुत सच्चा लेख और समाज और स्त्री के प्रति आप की ज़िम्मेदारी को आप ने निभाया है

    शुभ कामनायें

    अनिल मासूमशायर

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  2. आपने बहुत ही सुन्दर विश्लेषणात्मक लेख प्रस्तुत
    कर महत्वपूर्ण जानकारियों से अवगत कराया है.
    महिला दिवस की शरुआत कब और कैसे हुई,यह
    पहली बार जाना मैंने.आपका प्रयास सर्वत्र जागरूकता लाये यह दुआ और कामना है मेरी.
    सभी चित्र बहुत अच्छे हैं.

    सार्थक प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार,जेन्नी जी.

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  3. आपका ये ब्लॉग भी बहुत प्यारा है जेन्नी जी....
    आपका लेखन बंधे रखता है...
    आज से इसे भी फोलो करती हूँ...दूसरा तो शुरू से करती आयीं हूँ...

    शुभकामनाएँ..

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  4. पश्चिमी देशों की अपेक्षा भारत में स्त्रियों के अधिकारों और सम्मान का इतिहास अधिक उज्ज्वल रहा है। शिक्षा, कुपोषण, शोषण, बाज़ार, भूणहत्या...आदि काले पक्ष हमारे नैतिक पतन और आधुनिक जीवन शैली की उपज हैं। मैं स्त्री या पुरुषप्रधान समाज के पक्ष में नहीं हूँ। किसी एक की प्रधानता निश्चित ही कालांतर में विषमता का कारण बनेगी। अतः प्रधानता नहीं समानता के पक्ष में हूँ मैं। दोनो एक-दूसरे का महत्व स्वीकार कर एक-दूसरे का सम्मान करें और समानता का मानवीय दर्ज़ा दें। साल में एक बार स्त्री समानता और अधिकारों की बात करना तमाम षड्यंत्रों में से एक लगता है मुझे। यह तो नित्य और प्रतिक्षण की प्रक्रिया है।

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  5. बहुत सटीक प्रस्तुति.पोस्ट करने के लिए आभार.
    पहली बार हूं आपके ब्लॉग पर...अच्छा लगा " सवाई सिंह "

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  6. आप सभी सम्माननीय दोस्तों एवं दोस्तों के सभी दोस्तों से निवेदन है कि एक ब्लॉग सबका
    ( सामूहिक ब्लॉग) से खुद भी जुड़ें और अपने मित्रों को भी जोड़ें... शुक्रिया

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  7. बहुत अच्छा लेख , शुभ कामनायें

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  8. dr.sahiba namaskar aapaka lekha achchha hai lekin usase khubasurat
    aapaka kam hai.aap jo likha rahin hain wah aapake wyahar men parilakshit ho raha hai.aaj main aapake sath hun kal sab hongen.
    hum sadaiw MAN WACHAN AUR KARMA se juden.baki insan allaah.

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  9. आपके द्वारा बताई गयी सच्चाइयों को हम जानते हुए भी अक्सर नज़रंदाज़ कर देते हैं ..कभी बेबसी, कभी व्यस्तता , कभी 'हम अकेले तो कुछ नहीं कर सकते' की आड़ में ...लेकिन सच तो यह है ....की हम ही कुछ कर सकते हैं ....'बिन मांगे मोती मिले.....'का ज़माना नहीं रह गया ...अब तो बढ़कर छीनना पड़ता है ...और हमें भी यही करना है .....बहुत ज्ञानप्रद लेख !

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  10. bahut hi mahatavpoorn jankari prapt hui badhai.

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  11. अनिल जी,
    मेरे ब्लॉग पर आपकी सार्थक टिप्पणी पढकर बहुत खुशी हुई. आभार.

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  12. राकेश जी,
    मेरे लेख आपको पसंद आये, सराहना के लिए बहुत शुक्रिया.

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  13. expression said...
    आपका ये ब्लॉग भी बहुत प्यारा है जेन्नी जी....
    आपका लेखन बंधे रखता है...
    आज से इसे भी फोलो करती हूँ...दूसरा तो शुरू से करती आयीं हूँ...

    शुभकामनाएँ..

    13 March 2012 1:44 PM
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    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है. आपका यहाँ आना बहुत सुखद है, शुक्रिया.

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  14. कौशलेन्द्र जी,
    भारत की बात न कर हम सम्पूर्ण दुनिया की बात करें तो स्त्री कहीं भी सम्मानिये नहीं रही है. अपवाद हर युग में हुए. आधुनिक जीवन शैली के कारण स्त्रियों की समस्याओं का विकराल होना मेरे विचार से उचित कारण नहीं है. हाँ नैतिक पतन ज़रूर महत्वपूर्ण कारण है. किसी एक की प्रधानता होनी भी नहीं चाहिए, विषमताओं का कारन ही यही है कि पुरुष प्रधान समाज है. आपने सही कहा कि स्त्री और पुरुष दोनों को एक दूसरे का सम्मान करना चाहिए और इसे मानवीय दर्ज़ा दें. निश्चित ही साल में एक बार महिला दिवस मनाना तमाम षड्यंत्रों में से एक है, क्योंकि एक खास दिन किसी के नाम कर उसकी अक्षमता को साबित किया जाता है. नित्य और प्रतिक्षण की क्रिया होनी चाहिए.
    आपकी टिप्पणी से सोच को एक नयी दिशा भी मिलती है और लिखने की प्रेरणा भी. बहुत धन्यवाद.

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  15. सवाई सिंह जी,
    मेरे ब्लॉग पर आपकी प्रथम उपस्थिति मेरे लिए खुशी की बात है. यूँ ही उत्साहवर्धन के लिये आते रहें. आभार.

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  16. संजय जी, बहुत बहुत धन्यवाद आपका.

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  17. रमाकांत जी,
    आपकी सराहनिए टिप्पणी के लिए ह्रदय से शुक्रिया. मेरा काम यूँ तो कुछ भी नहीं जितना समाज के लिए करना चाहिए पर जो थोड़े लोग जिनके लिए कुछ कर पाती हूँ उनकी खुशी देखकर मन खुश होता है. आप सभी की शुभकामनाएँ यूँ ही मिलती रहे आशा रहेगी. धन्यवाद.

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  18. सरस जी,
    आपकी टिप्पणी बहुत ऊर्जादायक है और मेरे लिए प्रेरणास्वरुप भी. सच है कि हम खुद इस स्थिति में जीने के आदी बन चुके हैं. अपना हक हमें मांगने से तो मिलेगा नहीं छीनना ही पड़ेगा. यूँ हक कि लड़ाई के १०० साल तो हो गए कुछ सफलतायें भी मिली लेकिन मूलभूत समस्याएं आज भी यथावत हैं. न जाने अभी कितना युग और यूँ ही...
    बहुत आभार.
    जेन्नी

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  19. नवीन जी,
    बहुत बहुत धन्यवाद आपका.

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  20. एक बेहतरीन लेख ...
    आभार आपका !

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  21. Bahut Umda lekh pesh kiya hai aapne .aabhar

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  22. True

    Abdul Rashid
    www.aawaz-e-hind.in

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  23. are waah bahut acchi jankari .......bhagalpur .....likha dekhkar sukhad anubhuti hui....

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  24. KITNA SAB KUCHH KAR RAHE HAIN AAP KHUDA AAPKE SAATH HAI AAPKI MADAD KAREGA

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  25. बहुत अच्छा आलेख हो जो कई बुंदुओं को गंभरता से छूता है. केवल एक बात जोड़ना चाहता हूँ कि केरल में मातृप्रधान समाज है लेकिन वहाँ भी पति का थप्पड़ पत्नी की ताक में रहता है. एक मानसिकता है जो महिलाओं के अधिकरों को स्थापित नहीं होने देती.

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