मैं और श्यामली दी (हमारी अन्तिम तस्वीर) |
श्यामली दी हम सभी को छोड़कर चली गईं और इसके साथ ही गुरुदेव की सोच की एक और विरासत का अंत हुआ। अभी एक महीने भी तो नहीं हुए, काग़ज़ों और रंगों से खेलती सबकी प्यारी श्यामली दी से मुझे मिले हुए। समझ में नहीं आ रहा इस घटना को किस रूप में लूँ? मैं 20 सालों से दोबारा शान्तिनिकेतन जाने का सपना देख रही थी। जब गई तो सभी से मिली और आने के दिन ही श्यामली दी को लकवा (paralysis) का अटैक आया। अन्तिम दिनों में शायद मुझे उनसे मिलना था। बस एक दिन पहले उनके साथ कॉफ़ी हाउस में बैठकर कॉफ़ी पी, उनके साथ दूकान गई जहाँ से उन्होंने मेरे लिए किताब लिए, और उनके साथ एक मित्र के घर बाउल का गाना सुनने और रात्रि भोजन के लिए गई, जहाँ उनकी बनाई ख़ास सब्ज़ी (चाचरी) भी थी।
स्थिति की गंभीरता को देखते हुए उन्हें दुर्गापुर ले जाने का निर्णय लिया गया। जब यह बात श्यामली दी को बताया गया, तो बहुत ज़ोर से चिल्लाने लगीं कि उन्हें शान्तिनिकेतन में ही रहना है कहीं बाहर नहीं जाना है; जबकि उनकी आवाज़ स्पष्ट नहीं थी, पर इशारे में भी वे यही कहती रहीं। एक मित्र ने उनसे कहा कि आप फ़िक्र न करें सारा इंतिजाम हो जाएगा, तो और भी ग़ुस्सा हो गईं। उन्हें शायद लगा कि अस्पताल में ख़र्च ज़्यादा होगा और किसी और का पैसा ख़र्च न हो, इसलिए इशारे में कहा कि मनीषा के पास पैसा है, किसी और से पैसा नहीं लेना। मैंने और मंजु दी ने समझाया कि आपके ही पैसे से इलाज हो रहा है आप फ़िक्र न करें, तब वे शांत हुईं।
अटैक से ठीक पहले वे मेरे और मेरे बेटे के लिए नाश्ते की तैयारी कर रही थीं। आधा खाना बन चुका था, आधा वैसे ही कटा खुला रखा हुआ था। मेरे पहुँचने तक सिर्फ़ उनके दाहिने हाथ और पैर पर असर हुआ था, चेहरा ठीक था और बोल पा रही थीं। मेरे पहुँचने से पहले उन्होंने ख़ुद मनीषा को फ़ोन कर बताया कि उन्हें अटैक आया है और वह जल्दी आ जाए। उन्होंने मंजु दी से जो संयोग से मेरे साथ उनसे मिलने आई थीं, अपना थैला मँगाकर उसमें रखे पैसे उन्हें दिए, जिसे मनीषा को देने के लिए कहा ताकि उनका इलाज़ उनके अपने पैसों से हो; किसी और की मदद लेना वे नहीं चाहती थीं। जब हमलोग पहुँचे तो वे पूरे होश में थीं, उन्होंने बताया कि कैसे यह सब हुआ और बोलते-बोलते आवाज़ लड़खड़ाने लगी। साँस लेने में उन्हें बहुत तकलीफ़ हो रही थी। मंजु दी और मैंने बहुत कहा कि अस्पताल चलिए, लेकिन वे राज़ी नहीं थीं। फिर उन्होंने कहा कि ठीक है डॉक्टर को बुला लो।मंजु दी ने डॉक्टर को फ़ोन किया लेकिन डॉक्टर शान्तिनिकेतन में उपलब्ध नहीं थे। तब तक मनीषा आ गई और फिर ज़िद कर हम सबने उन्हें गाड़ी से अस्पताल भेजा। गाड़ी में बैठते हुए उनकी साँसे अटक रही थीं। बहुत मुश्किल से उनको गाड़ी में बिठाया गया। जाते-जाते भी मनीषा और मंजु दी से वे कहती रहीं कि मुझे ज़रूर से खाना खिला दे, जो कुछ भी वे बना पाई हैं। इशारे से वे मुझे कह रही थीं कि घर जाकर खा लो। बहुत कोशिश कर भी वे कुछ बोल नहीं पा रहीं थीं। अस्पताल में प्राथमिक चिकित्सा किया गया और देखते-ही-देखते शरीर का समूचा दाहिना हिस्सा काम करना बंद कर दिया।
स्थिति की गंभीरता को देखते हुए उन्हें दुर्गापुर ले जाने का निर्णय लिया गया। जब यह बात श्यामली दी को बताया गया, तो बहुत ज़ोर से चिल्लाने लगीं कि उन्हें शान्तिनिकेतन में ही रहना है कहीं बाहर नहीं जाना है; जबकि उनकी आवाज़ स्पष्ट नहीं थी, पर इशारे में भी वे यही कहती रहीं। एक मित्र ने उनसे कहा कि आप फ़िक्र न करें सारा इंतिजाम हो जाएगा, तो और भी ग़ुस्सा हो गईं। उन्हें शायद लगा कि अस्पताल में ख़र्च ज़्यादा होगा और किसी और का पैसा ख़र्च न हो, इसलिए इशारे में कहा कि मनीषा के पास पैसा है, किसी और से पैसा नहीं लेना। मैंने और मंजु दी ने समझाया कि आपके ही पैसे से इलाज हो रहा है आप फ़िक्र न करें, तब वे शांत हुईं।
शान्तिनिकेतन प्रकृति, शिक्षा, कला, संस्कृति और विद्वता का केन्द्र है; परन्तु एक अच्छा अस्पताल नहीं है, जहाँ सामान्य बीमारी से अलग किसी गम्भीर बीमारी का इलाज किया जा सके। एम्बुलेंस ऐसी स्थिति में नहीं कि उससे श्यामली दी को दुर्गापुर भेजा जा सके। वहाँ मेरी गाड़ी भी थी और मनीषा की भी; लेकिन आपातकालीन प्राथमिक चिकित्सा के बिना श्यामली दी को दुर्गापुर ले जाना सम्भव नहीं था। उन्हें साँस लेने में बहुत दिक्कत हो रही थी, लगातार ऑक्सीजन दिया जा रहा था। दुर्गापुर से एम्बुलेंस चल चुका था। इस बीच सत्य (श्यामली दी के एक मित्र) ने साथ जाने का फ़ैसला लिया, तो श्यामली दी के पैसे और झोला उन्हें दे दिया गया। इस बीच श्यामली दी के मित्र और शुभचिंतक जमा हो चुके थे और सभी बहुत दुःखी थे।
अभी एम्बुलेंस के आने में 2 घंटा और लगना था। मनीषा ने कहा कि मैं श्यामली दी के घर जाकर खाना खा लूँ, तब तक वह भी सेमीनार में सम्मिलित होकर आ जाएगी। खाना खाकर वापस आकर मैंने श्यामली दी को बता दिया कि उनके घर जाकर उनका बनाया खाना मैंने खा लिया है और अब आप चिन्ता न करें। वे मुस्कुरा दीं और मुझे देखने लगीं। उनकी आँखों में आँसू थे, शायद अपनी असमर्थता की पीड़ा पर। बोलने की बहुत चेष्टा करती रहीं, लेकिन आवाज़ गले में अटक रही थी। मैंने उन्हें दिलासा दिया कि आप शीघ्र स्वस्थ हो जाएँगी, आप दूसरे अस्पताल में चलिए। कुछ नहीं बोली बस डबडबाई आँखों से देखती रहीं।
मनीषा से लगातार मैं संपर्क में थी, दुर्गापुर में उनके सिर का ऑपरेशन हुआ। कोई सुधार तो नहीं, लेकिन स्थिर थीं और लगातार वेंटिलेटर पर रहीं। तब तक उनके पुत्र आनन्दा भी कनाडा से आ गए। फिर उनको कोलकाता ले जाया गया; क्योंकि स्थिति दिन-ब-दिन बिगड़ रही थी। 18 जुलाई को अटैक आया था, तब से लगतार अस्पताल में उनका इलाज चलता रहा। मनीषा कई बार जाकर उनको देख आई थी। मनीषा के लिए श्यामली दी बहुत महत्व रखती हैं, उसके लिए जैसे सिर पर से साया उठ गया हो। यों मनीषा के माता-पिता जीवित हैं; परन्तु मानसिक सम्बल सदैव श्यामली दी से मिलता था। 15 अगस्त को श्यामली दी ने अन्तिम साँस ली।
श्यामली दी का पूरा नाम श्यामली खस्तगीर है। वे एंटी न्यूक्लिअर एक्टिविस्ट के साथ-साथ लोक-कला-संस्कृति जिसमें पेपर क्राफ्ट, कठपुतली (पपेट), मूर्तिकला, चित्रकला आदि के प्रसार के लिए भी काम करती रहीं। वे समाज सेविका के साथ लेखिका, कलाकार, चित्रकार, शिल्पकार आदि कलाओं में निपुण एवं मर्मज्ञ के रूप में प्रसिद्ध हैं। अपने घर 'पलाश' जो शान्तिनिकेतन के पूर्वपल्ली में स्थित है, ग़रीब बच्चों को पढ़ाती थीं। इस घर में सभी तरफ़ इनके पिता और इनकी कला के नमूने कुछ सहेजे कुछ बिखरे हुए देखे जा सकते हैं।
श्यामली दी के पिता श्री सुधीर खस्तगीर प्रसिद्ध शिल्पकार और चित्रकार थे, साथ ही गांधीवादी और समाजवादी विचारधारा के व्यक्ति थे। शुरुआती दिनों में वे देहरादून के प्रसिद्ध दून स्कूल में 20 साल कला के शिक्षक रहे।फिर लखनऊ के जी.सी.ए. कॉलेज में प्रिंसिपल रहे। श्यामली दी की माँ बनारस के एक ब्राह्मण परिवार से थीं। श्यामली दी के सिर से माँ का साया बचपन में उठ गया था। उनका बचपन देहरादून में बीता। बाद में शान्तिनिकेतन से उन्होंने कला की पढ़ाई की। विश्वविद्यालय के चीना भवन के विभागाध्यक्ष के पुत्र 'तान ली', जो कनाडा के मशहूर आर्किटेक्ट हैं, से विवाह किया और कनाडा चली गईं। वहाँ जाने के बाद वे भारत के साथ अमेरिका और कनाडा के शान्ति आन्दोलन से भी जुड़ गईं। अमेरिका में इस आन्दोलन के कारण उनकी गिरफ़्तारी भी हुई। कनाडा के वैभवशाली जीवन से जल्द ही ऊब गईं और अपने पति से अलग होकर वापस शान्तिनिकेतन आ गईं। अपनी सोच और विचारधारा के कारण वे मेधा पटकर और बाबा आमटे जैसे सामाजिक कार्यकर्ता के सम्पर्क में आईं और साथ मिलकर काम करती रहीं। 44 वर्षीय आनन्दा जो उनके एकमात्र पुत्र हैं, कनाडा में अपने परिवार के साथ रहते हैं।
शान्तिनिकेतन से 10 किलो मीटर दूर तिलुतिया गाँव में एक आश्रम को शयमाली दी ने अपनी मृत्यु के बाद दाह-संस्कार के लिए तय कर रखा है।उनके चाहने और जानने वाले देश-विदेश से आज यहाँ शान्तिनिकेतन में एकत्रित हो चुके हैं। श्यामली दी का शरीर आज शान्तिनिकेतन में ज़मींदोज़ कर दिया गया और उसी जगह पर एक पेड़ लगाया गया, जैसा कि श्यामली दी की अन्तिम इच्छा थी।
शान्तिनिकेतन जैसे श्यामली दी के जिस्म का कोई हिस्सा हो, या वजूद का। शान्तिनिकेतन से बाहर वे रहने का सोच भी नहीं सकती थीं। अपनी पूरी ज़िन्दगी उन्होंने शान्तिनिकेतन को समर्पित कर दिया और आज ख़ामोशी से अपने चाहनेवालों को छोड़ सदा के लिए शान्तिनिकेतन में समाहित हो गईं।
- जेन्नी शबनम (16.8.2011)
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श्यामली दी जैसे लोक कलाकार को हार्दिक श्रद्धांजलि ! आप भी बहुत भाग्यशाली हैं जो इतने साल बाद भी उनके दर्शन कर सकीं।
ReplyDeleteजेन्नी जी ! कई बार लगता है कि हम सब पूर्व से तय विधान के अनुसार अपनी-अपनी स्क्रिप्ट को अभिनीत कर रहे हैं. कई बार हमें स्क्रिप्ट के बारे में कुछ पता नहीं होता ......अचानक कोई अदृश्य डायरेक्टर चुपके से स्क्रिप्ट हाथ में थमा के चला जाता है ...और हम उस स्क्रिप्ट को जीने में व्यस्त हो जाते हैं .........हर व्यक्ति अपने निर्धारित समय पर निर्धारित समय के लिए मंच पर प्रकट होता है .... यदि ऐसा न होता तो क्या २० वर्षों बाद ठीक श्यामली दी के जाने के समय ही आप क्यों पहुँच पाती वहाँ ? ....
ReplyDeleteनहीं जानती आपको .... बस यूँ ही घुमते फिरते यहाँ आ गयी .... शांति निकेतन का नाम बरबस ही मन में श्रद्धा का भाव जगा जाता है ....श्यामल दी को भी नहीं जानती ...लेकिन आपका उनसे जुडाव समझ पाई... इसीलिए आप उनके अंतिम समय में उनके पास थी ....ऐसा होना ही था ........ मेरी श्रद्धांजलि उनको ...
ReplyDeletesahi kaha Kamboj bhai. shayad mera subhaagya thaa ki main antim dino mein Shayamali di se mil saki.
ReplyDeleteKaushalendra ji,
ReplyDeletekai baar ansocha anchaaha aise ghatit ho jata hai ki hum stabdh rah jaate hain. vidhi ka vidhan maan kar khud ko saantwana dete hain aur khud ko uske sath jod lete hain. sach kaha jivan rangmanch sa hin hai jiska script hamein hin likhna hota hai aur wo bhi usi samay jab hamein saath hin abhinay bhi karna hota hai bina kisi retake ya rehearsal ke. kabhi kabhi lagta hai ki shayad yahi achchha hai ki bhawishya hum nahin jaante anyathaa jivan mein aane waali peeda shaayad hum sahan nahin kar paate.
yahan aane ke liye hriday se aabhar.
Anita ji,
ReplyDeletemain bhi yun hin kahin se aapke link tak pahunch gayee, aur aapko padhi. bahut achchha likhti hain aap.
Shyamali di se mera dobara milna shayad mera saubhaagya thaa. agar ek din bhi der ho jati to shayad nahin mil paati. isi liye kahte hain ki waqt ke sath chalna chahiye, aur mumkin waqt mein har wo kaam kar lena chaahiye jo munaasib ho.
yahan tak aane ke liye dil se aabhar.
जेन्नी जी जाना तो सब को है एक दिन पर कुछ लोग इतने अच्छे होते है की उनके जाने के बाद भी मन में एक कसक सी रह जाती है की वो क्यों चले गए आपका सौभाग्य है की आप उनको इतने दिनों बाद उनके आखरी समय पर मिल ही गयी ......
ReplyDeletepaDhkar man ki bhavnaon ka parichay (ek bar phir se) hua.....jeevan matra "Ethics" hi hai....unko meri ShraDhanjali....prasannata hui ke aap unse mil sakin....
ReplyDeleteek sachchi shraddhanjali meri bhi!!
ReplyDelete'दाह संस्कार' के लिए स्थान निश्चित कर रखा था फिर.....जमींदोज कर दिया गया.आप शायद 'अंतिम संस्कार' लिखना चाहती थी.
ReplyDeleteश्यामली दीदी के प्रति आपके लगाव को महसूस कर रही हूँ.उनकी आत्मा को शांति मिले.
Suresh ji,
ReplyDeletemeri samvedna ko samajhne ke liye aabhar.
Arvind bhai,
ReplyDeletesahi kaha aapne jivan maatra Ethics hin hai.
mera saubhaagya ki aapse mulaakat hui, bahut khushi hui.
sadar.
Mukesh,
ReplyDeleteshukriya.
indu puri said...
ReplyDelete'दाह संस्कार' के लिए स्थान निश्चित कर रखा था फिर.....जमींदोज कर दिया गया.आप शायद 'अंतिम संस्कार' लिखना चाहती थी.
श्यामली दीदी के प्रति आपके लगाव को महसूस कर रही हूँ.उनकी आत्मा को शांति मिले.
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Indu ji,
aap mere blog tak aayeen mera ahobhaagya.
antim sanskaar mein to jalana dafnana dono hin shaamil ho jata hai, aur chuki Shyamali di hindu thee to sanskaar ke mutaabik jalana hota. Shyamali di ki iksha thee ki unhein zameen mein dafnaya jaaye na ki jalaya jaaye. isliye unhein zameendoz kiya gaya.
usse koi frk nhi pdta ki hmare baad hmari deh ka kya kiya jaye.... jaane wale ki ichchha ka samman krna chahiye shb !
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