आज मैं चम्पानगर में हूँ। नाथनगर का यह मोहल्ला भागलपुर का एक हिस्सा है। यहाँ दारुल यतामा नाम से एक और यतीमख़ाना है। जब हम इसमें अन्दर घुसते हैं, तो बच्चों के शोरगुल में यह यतीमख़ाना किसी स्कूल सरीखा नज़र आता है। इसकी स्थापना 1944 में की गई। यहाँ तक़रीबन 70 बच्चे अभी रह रहे हैं। यहाँ सभी उम्र के बच्चे हैं जिनमें कुछ यतीम हैं तो कुछ दुर्रे यतीम। बच्चों की निगाहें किताब पर कम खाना पकाने वाली फूफी की ओर टिकी हैं, जिनकी रसोई पढ़ाई वाले कमरे के बिल्कुल सामने है। काजवलीचक और चम्पानगर के यतीम बच्चों में कोई फ़र्क़ नहीं। सबके सपने एक जैसे, सबके दर्द एक जैसे।
मेरी बात हुई इमरान और नुसरान से। उन्होंने बताया चम्पानगर में बच्चों को तालीम के साथ सिलाई, जिल्दसाज़ी, पार्चा-बाफ़ी इत्यादि का भी प्रशिक्षण दिया जाता है। जो बच्चे अच्छा पढ़ते हैं, उनके लिए आगे की पढ़ाई की व्यवस्था की जाती है। चंदा, ज़कात, फ़ितरा, अतीया और इम्दाद की रक़म से यहाँ का ख़र्चा चलता है।
मैं और मेरे दो साथी सभी से अलग-अलग बात कर रहे थे और तस्वीरें ले रहे थे। इमरान और नुसरान ने कई बच्चों की कहानियाँ हमें सुनाई। मेरे ज़ेहन में काजवलीचक के उन बच्चों की बातें ताज़ा थीं, जिनसे मैं बात करके आई थी। यहाँ भी वैसे ही तमाम बच्चे, कोई यतीम कोई दुर्रे-यतीम। अम्मी-अब्बू ज़िन्दा हैं फिर भी यतीमख़ाने में परवरिश। किसी की अम्मी ने दूसरा निकाह कर लिया था, तो किसी के वालिद अल्लाह के पास चले गए थे, किसी के अब्बू की नई बीवी मारती-पीटती थी, किसी की अम्मी के नए शौहर मारते थे, कोई बेवा अपने बच्चों को पालने में असमर्थ थी, किसी के अम्मी-अब्बू दोनों चल बसे थे। यतीम की परिभाषा भी मैं यहाँ आकर भूल गई। जाने कैसे अपने जिगर के टुकड़ों को यहाँ छोड़ दिया होगा उन सबों ने?
मैं ख़ामोश थी, तभी 24-25 साल का एक नौजवान आया और हम सभी को बैठने के लिए कुर्सी दिया।
मैंने उससे पूछा ''आप यहाँ क्या करते हैं?''
उसने कहा ''मैं बचपन से यहीं पला हूँ और अब यहीं इसी यतीमख़ाना में बच्चों को तालीम दे रहा हूँ।''
कोने में बैठे एक बुज़ुर्ग सज्जन पर नज़र पड़ी। मैं उठकर उनके पास जा बैठी। वे बहुत ख़ुश हुए। पूछने पर उन्होंने बताया कि वे यहाँ बच्चों को तालीम देते हैं। मैंने पूछा कि जो बच्चे बड़े होकर कुछ काम करने लगते हैं, क्या वे यतीमख़ाना के लिए कुछ करते हैं; क्योंकि उनका घर तो यही हुआ। उन्होंने कहा ''नहीं आज के ज़माने में कौन किसका है मैडम, हमलोग बिना किसी स्वार्थ के इनकी परवरिश करते हैं, कभी कोई मिलने आ जाए तो ख़ुशी होती है। वैसे जो भी यहाँ से चला जाता है, कुछ-न-कुछ कमा ही लेता है और घर बसा लेता है, फिर यहाँ कौन आता है।'' उनकी आँखों में गहरी पीड़ा दिखी।
उसने कहा ''मैं बचपन से यहीं पला हूँ और अब यहीं इसी यतीमख़ाना में बच्चों को तालीम दे रहा हूँ।''
कोने में बैठे एक बुज़ुर्ग सज्जन पर नज़र पड़ी। मैं उठकर उनके पास जा बैठी। वे बहुत ख़ुश हुए। पूछने पर उन्होंने बताया कि वे यहाँ बच्चों को तालीम देते हैं। मैंने पूछा कि जो बच्चे बड़े होकर कुछ काम करने लगते हैं, क्या वे यतीमख़ाना के लिए कुछ करते हैं; क्योंकि उनका घर तो यही हुआ। उन्होंने कहा ''नहीं आज के ज़माने में कौन किसका है मैडम, हमलोग बिना किसी स्वार्थ के इनकी परवरिश करते हैं, कभी कोई मिलने आ जाए तो ख़ुशी होती है। वैसे जो भी यहाँ से चला जाता है, कुछ-न-कुछ कमा ही लेता है और घर बसा लेता है, फिर यहाँ कौन आता है।'' उनकी आँखों में गहरी पीड़ा दिखी।
मैं सोचती रही कि जाने क्यों इसे यतीमख़ाना या अनाथालय कहा जाता है; जबकि कई बच्चों के वालिद भी जीवित हैं। पर सबसे अच्छी बात यह है कि नाम भले अनाथालय हो, पर यहाँ सर पर छत है और आँखों में उम्मीदें साँसे ले रही हैं।
जारी...
- जेन्नी शबनम (11.2.2011)
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इस तरह के यतीम बच्चों के लिए आप जो भी करते है भगवान उसका फल आपको ज़रुर देता है क्योंकि यह भी एक तरह की इबादत है मुझे निदा फ़ाजली साहेब का शेर याद आ रहा है
ReplyDeleteघर से मस्जिद अगर दूर चलो यूँ करले ,
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये |
sunil sir se bilkul sahmat hoon...agar aap apne samay ka sadupyog iss tarah se karti hain, to upar wala dekh raha hai..:)
ReplyDeletebhagwaan aapko ta-jindagi khush rakhe..!
sunil sir se bilkul sahmat hoon...agar aap apne samay ka sadupyog iss tarah se karti hain, to upar wala dekh raha hai..:)
ReplyDeletebhagwaan aapko ta-jindagi khush rakhe..!
bina kisi umeed aur swaarth ke yateem bachchon ko chhat aur parvarish dete hain isse bada punya aur kya ho sakta hai.
ReplyDeletemuddat bad idhar aaya...aapki kai post padh gaya.....dilli me rahte huye bhi aapke pas ab bhi sarokaar aur sanskar shesh hai, behad khushi hoti hai.
ReplyDeletefursat kam rahti hai so niyamit post nahin dekh pat kshama kijiyega.in dinon ranchi me hun.
बहन आप तो दुनिया की सबसे बड़ी इबादत में लगी हैं। सच्चा साहित्यकार मन-कर्म और वचन से एक होता है ; आपकी तरह ।
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