आज पहली अप्रैल है यानी 'मूर्ख दिवस'। यों तो सभी लोग आज के दिन अपने-अपने तरीक़े से अपने मित्रों व परिचितों को मूर्ख बनाने में लगे रहते हैं और ये मज़ाक का सिलसिला सारा दिन चलता है। हर फ़ोन, हर खाना या किसी के कुछ भी कहने पर एक बार मन में ज़रूर आता है कि कहीं उसे अप्रैल फूल तो नहीं बनाया जा रहा है।
हँसी-मज़ाक के लिए समर्पित यह दिन, जिसका इंतिज़ार एक महीना पहले से हम सभी करते हैं और दूसरों को मूर्ख बनाने के नए-नए तरीक़े खोजते हैं। बहुत मज़ा आता है जब कोई मूर्ख बनता है और हम ताली पीट-पीटकर हँस-हँसकर लोट-पोट हुआ करते हैं। अपनी होशियारी और मूर्ख बना व्यक्ति जब अपनी मूर्खता पर शर्माता है तब तो मस्ती देखते बनती है।
मुझे याद है बचपन में मैं अपने भाई के साथ मिलकर सबको ख़ूब अप्रैल फूल बनाया करती थी। जो भी मेहमान हमारे घर आते, तो उनको नाश्ता और शरबत दिया जाता था। नींबू-चीनी की शरबत बनती थी, जिसमें हमलोग ढेर सारा नमक मिला देते और बुद्धू-सा चेहरा बनाकर घर आए मेहमान को देते। मेहमान शरबत मुँह में रखते ही थू-थू करने लगते। हम फिर बाद में अच्छा वाला शरबत देते, जिसे भी वे संदेह के साथ मुँह में डालते और हम लोग ठहाका लगाते थे।
ठिठोली का एक मज़ेदार यंत्र बनाना हम भाई-बहन ने सीख लिया। इस नए इज़ाद में बड़ा मज़ेदार तकनीक शामिल था। एक बटन को रबड़ में लगाकर चूड़ी में ख़ूब लपेट देते, फिर किसी काग़ज़ में अच्छे से बंद कर देते। जिन्हें मूर्ख बनाना होता उनका पता लिफ़ाफ़े पर लिखकर वह यंत्र वाला काग़ज़ उसमें डालकर लिफ़ाफ़ा बंद कर देते, फिर उन सज्जन को यह कहकर देते कि आपकी चिट्ठी आई है। जैसे ही हाथ में लेकर लिफ़ाफ़ा फाड़ा कि ख़ूब ज़ोर से फर-फर की आवाज़ होती और वे सज्जन उछलकर उसे दूर फेंक देते थे, और हमलोग ताली बजा-बजाकर लोट-पोट।
मैं छोटी थी, मेरे रिश्ते की एक दीदी की शादी मेरे घर से हुई। हर छुट्टी में या जब भी हमलोग गाँव जाते तो दीदी-जीजाजी मिलने आते थे। हम दोनों भाई-बहन बहुत छोटे थे, पर जीजाजी को बहुत तंग करते। अप्रेल फूल बनाने के न जाने कितने तरीक़े हम उनपर प्रयोग करते थे। हमलोग शाकाहारी थे, तो बहुत प्रकार के पकवान बनते, जिनमें हरी सब्जियों के तरह-तरह के पकौड़े मुख्य रूप से होते थे। हम लोग घास या मिट्टी को बेसन में लपेटकर पकौड़े की तरह छानकर उनको खाने के लिए देते, जैसे पहला कौर मुँह में कि हमारा ठहाका और दादी की डाँट एक साथ। घर के सब लोग हँस पड़ते, हम दोनों प्यार भरी डाँट भी सुनते, लेकिन फिर कुछ और नया तरीक़ा सोचते और फिर शुरू हो जाता नया मज़ाक।
याद नहीं कि कोई भी वर्ष ऐसा बीता, जब किसी को अप्रैल फूल न बनाया हो। चाय में नमक, शरबत में नमक, खीर में नमक, आटा का नमकीन हलवा, घास या मिटटी के पकौड़े आदि तो खाने के द्वारा मज़ाक हुआ। किसी को फ़ोनकर कह दिया कि माँ ने बुलाया है, माँ को कह दिया कि भैया का फ़ोन आया है, घंटी बजाकर माँ को कह दिया कि कोई मिलने आए हैं, ये सब छोटा-छोटा मज़ाक हर साल करती रही और सबको मूर्ख बनाती रही। ख़ुद अप्रैल फूल बहुत कम बन पाई; क्योंकि सारा दिन याद रहता था कि आज जो भी कुछ होगा सँभलकर... वर्ना अप्रैल फूल।
शादी के बाद पति के भाइयों और बहनों को हर साल ख़ूब अप्रैल फूल बनाती रही। अब तो अपने बच्चों को भी ख़ूब अप्रैल फूल बनाती हूँ। मेरी बेटी जब छोटी थी, तो मूर्ख बन जाने पर ख़ूब चिल्लाती थी कि हम मूर्ख नहीं हैं... हमको क्यों मूर्ख बनाई...! जब एक को हम लोग मूर्ख बनाते, तो बाक़ी सभी लोग एक पार्टी में हो जाते थे।
अब सोचती हूँ कि शायद हमारे समय में मनोरंजन के साधन ज़्यादा नहीं होते थे, इसलिए इस दिन को इतना याद रखते रहे। अब तो वह उत्साह नहीं दिखता, सभी ख़ुद में इतने व्यस्त हो गए हैं कि शायद हँसी-मज़ाक भी भूल रहे हैं।
मशीनीकरण नें हमारे सहज स्वभाव को सरल नहीं रहने दिया है। बहुत हुआ तो एस.एम.एस. के ज़रिए कोई चुटकुला या परिहास लिखकर भेज दिया, फिर हँसो भी तो अकेले में। या बेतूका परिहास टेलीविजन पर देखकर हँस लिया, क्योंकि हँसने का बहाना भी खोजना पड़ता है अब। अप्रैल फूल चाहे हमारी परम्परा में न हो, पर आज के व्यस्त दौर के लिए इसे परम्परा का हिस्सा बना ही लेना चाहिए।
हँसी-ठिठोली के साथ ठहाका... अप्रैल फूल बनाया... उनको ग़ुस्सा आया... बड़ा मज़ा आया!
-जेन्नी शबनम (1.4.2010)
-जेन्नी शबनम (1.4.2010)
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