Thursday, September 2, 2021

91. माँ का दुलारा, बन गया आसमाँ का तारा : सिद्धार्थ शुक्ला

सिद्धार्थ शुक्ला (12. 12. 1980 - 2. 9. 2021) 
मृत्यु का जन्म से बस एक नाता है- जन्म लेते ही मृत्यु अवश्यंभावी है उम्र के साल की गिनती, धन, सम्मान, शोहरत, जाति, धर्म आदि किसी से भी मृत्यु का कोई लेना-देना नहीं जिस ज़िन्दगी को पाने के लिए न जाने क्या-क्या नहीं करते, उसके ख़त्म होने में महज़ एक क्षण लगता है पलभर में साँसें बंद जीवन समाप्त! मृत्यु के सामने हम बेबस और किंकर्त्तव्य-विमूढ़ हो जाते हैं यों तो हर पल हज़ारों लोग मृत्यु की गोद में समाते हैं, पर सभी के लिए दुःख नहीं होता है अगर होता तो जीवन जीना असम्भव हो जाता; क्योंकि हर क्षण कोई-न-कोई मृत्यु को प्राप्त होता है दुःख उनके लिए होता है, जब कोई अपना संसार छोड़ जाता है दुःख उनके लिए होता है, जब किसी की मृत्यु असमय हो जाती है दुःख उनकी मृत्यु पर होता है, जिनसे हम बहुत प्यार करते हैं, जिनके सम्पर्क में हम होते हैं या पहचान होती है, जिनसे भले हम न मिले हों; लेकिन वे हमारे मन के क़रीब होते हैं, जिन्हें हम पसन्द करते हैं 
आज मन को फिर से आघात लगा, जैसे ही मालूम हुआ कि युवा अभिनेता और कलाकार सिद्धार्थ शुक्ला नहीं रहे एक और ज़मीं का सितारा, माँ का दुलारा, लाखों का प्यारा, बन गया आसमाँ का तारा पिछले साल इरफ़ान और सुशांत के जाने पर ऐसी ही अनुभूति हुई थी फिर भी मेरे मन में यह बात थी कि इरफ़ान ने जीवन के हर रूप को जिया है और एक ऐसी बीमारी से ग्रस्त थे, जिससे वे समझते होंगे कि ज़्यादा दिन नहीं रहेंगे सुशांत तो उम्र में छोटा था, सब कुछ अधूरा-अधूरा भले शोहरत और सम्मान ख़ूब मिला; मगर जाने क्यों जीवन पसन्द नहीं आया और मृत्यु को स्वीकार किया उसने जानबूझकर जीवन का अंत किया लेकिन सिद्धार्थ शुक्ला तो महज़ 40 वर्ष के थे, ज़िन्दगी और ज़िन्दादिली से भरपूर कितने सपने देखे होंगे उनका जीवन अभी अधूरा था माँ का इकलौता बेटा, जिसपर माँ का दायित्व थाक्या बीत रही होगी उस माँ पर, सोचकर मन काँप उठता है

मैं टी.वी. नहीं देखती हूँ, भले सामने टी.वी. चल रहा हो हाँ, फ़िल्में बहुत देखती हूँ एक दिन घर के लोग टी.वी. देख रहे थे, 'झलक दिखला जा' में सिद्धार्थ का डांस चल रहा था एक झलक मैंने देखा, बड़ा अच्छा लगा मुझे सिद्धार्थ फिर दो-तीन एपिसोड देखे मैंने एक दिन टी.वी. पर 'बालिका वधू' का कोई एपिसोड चल रहा था, जिसमें सिद्धार्थ कलेक्टर और बालिका वधू का पति है तथा सुरेखा सीकरी बालिका वधू की 'दादी सा' हैं सिद्धार्थ को देखकर मैं बोली- ''अरे यह तो झलक दिखला जा वाला डांसर है।'' मैं उसे देखने के लिए बैठ गई दादी सा के बोलने के निराले अंदाज़ तथा सिद्धार्थ को गम्भीर और प्यार करने वाले पति की मोहक भूमिका में देख मैंने पूरा एपिसोड ही नहीं, बल्कि सीरियल के कुछ पुराने एपिसोड भी देखे सुरेखा सीकरी और सिद्धार्थ की अदाकारी बस कमाल है सीरियल की कहानी अच्छी नहीं लग रही थी, बावज़ूद मैंने उस सीरियल को अंत तक देखासिद्धार्थ का व्यक्तित्व इस सीरियल में बेहद आकर्षक, गंभीर और संतुलित है

मेरे समय के अभिनेताओं में सलमान खान और शाहरुख़ खान मेरे सबसे पसन्दीदा हैं एक दिन टी.वी. पर बिग बॉस आ रहा था, जिसे सलमान ने होस्ट किया है उस दिन से बिग बॉस का लगभग सभी सीजन मैंने देखा 2019 का बिग बॉस का पूरा सीजन मैंने देखा जब कभी कोई एपिसोड छूट जाए, तो वूट पर जाकर ज़रूर देखती थी। भले यह शो विवादित है, मगर इस शो को देखना मुझे बेहद पसन्द है इस शो में वास्तविक सिद्धार्थ को हमने देखा है- उसका प्यार, ग़ुस्सा, चिड़चिड़ापन, अदाकारी, बचपना, समझदारी, दोस्ती, आक्रोश सब कुछ हमने खिलखिलाते सिद्धार्थ को देखा, तो बीमार सिद्धार्थ को भी देखा उसकी लड़ाई जितनी तगड़ी थी, रूठना-मनाना उतना ही सरल सिद्धार्थ के रहने का तरीक़ा बिल्कुल बच्चों जैसा है और जीने का तरीक़ा बहुत ही सहज हर तरफ़ कैमरा है, इसके बावजूद वह सामान्य रह रहा था न कोई दिखावा न कोई बनावटीपन जैसा है तो बस है सिद्धार्थ और शहनाज़ की जोड़ी बहुत प्यारी थी पूरे सीजन में मैं चाहती थी कि सिद्धार्थ विजयी हो, और वह हुआ
 
'हम्प्टी शर्मा की दुल्हनिया' फ़िल्म में सिद्धार्थ को हम देख चुके हैं अभी बहुत सी फ़िल्में आनी थीं हीरो बनने के सारे टैलेंट उनमें थे बहुत सारे पुरस्कार और सम्मान उन्हें मिले हैं, अभी न जाने कितने और मिलते टी.वी. का एक बेहतरीन कलाकार, मॉडल, ख़ूबसूरत व्यक्तित्व का स्वामी, शारीरिक रूप से चुस्त व बलशाली युवा अभिनेता सिद्धार्थ शुक्ला के न जाने कितने सपने रहे होंगे सिद्धार्थ की माँ के ढेरों सपने रहे होंगे सब कुछ ख़त्म हो गयासिद्धार्थ के घरवालों को सिद्धार्थ की यादों के साथ जीने की हिम्मत मिले यही कामना कर सकती हूँ 

तक़दीर में किसके पास कितनी साँसें हैं, काश! कोई जान पाता, तो तय वक़्त के मुताबिक़ सपने देखता और पूरे करता मृत्यु तो तय है, लेकिन अधूरी कामनाओं के साथ किसी का असमय गुज़र जाना, उसके अपनों के लिए पीड़ा यों है मानो दुःख के पानी से भरा घड़ा, जिसे जितना पीते जाएँगे वह भरता जाएगा दुःख लहू में दौड़ेगा, नसों में पसरेगा, आँखों से बरसेगासमय का कितना भी बड़ा पहर या कई युग बीत जाए, न घड़ा ख़ाली होगा न दुःख विस्मृत होगा सिद्धार्थ! तुमने वह दुःख का घड़ा सभी को देकर अलविदा कह दिया यों क्यों गए सिद्धार्थ? अलविदा सिद्धार्थ! 

- जेन्नी शबनम (2.9.2021) 
__________________

Tuesday, August 3, 2021

90. हाइकु के लश्कर इतिहास रचने निकले - रमेश कुमार सोनी

रमेश कुमार सोनी जी द्वारा मेरी पुस्तक 'प्रवासी मन' की समीक्षा:

                     हाइकु के लश्कर इतिहास रचने निकले 

           

       अपने प्रथम हाइकु-संग्रह ‘प्रवासी मन’ में डॉ. जेन्नी शबनम ने बिना किसी उपशीर्षकों के अंतर्गत 1060 हाइकु रचते हुए हाइकु साहित्य में धमाकेदार प्रवेश किया है, जो एक लम्बे समय तक याद रखा जाएगा हाइकु जगत् में आप विविध संग्रहोंपत्र-पत्रिकाओं में पूर्व से प्रकाशित होते रहीं हैं, इस लिहाज से हाइकु-लेखन में आपका यह अनुभव इस संग्रह में बोलता है। हाइकु के संग्रहों से हिंदी साहित्य इन दिनों अटी पड़ी हैं और हाइकु विधा अब किसी परिचय की मोहताज नहीं रहीयह देश-विदेशों में हिंदी के प्रचार-प्रसार की पताका फहरा रही है। हाइकु यद्यपि तत्काल शीर्ष पर पहुँचने की विधा नहीं है, अपितु यह किसी क्षण विशेष की अनुभूतियों को / संवेदनाओं को शब्दांकित करने की विधा है। मात्र सत्रह वर्णों में किसी क्षणानुभूति को रचने के लिए एक विशेष साधना की आवश्यकता होती है जो इस संग्रह में परिलक्षित होती है

       

       हाइकु एक पूर्ण कविता होती है हाइकु के लिए अब कोई भी विषय अछूता नहीं रहा है, इसलिए प्रकृति वर्णन से शुरू हुई यह विधा अब अपने आगोश में पूरी दुनिया को समेटना चाहती है। इस संग्रह में बिना किसी लाग-लपेट के बहुत से हाइकु प्रस्तुत हुए हैं जिसे मैं कुछ खण्डों में समेटते हुए उसकी सुन्दरता को आप सभी के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ, ताकि पाठकों की तन्मयता / तन्द्रा भंग न हो सके और वह अपने आपको इसकी अनुभूतियों से जोड़ सकेंमन किसी के क़ाबू में कहाँ रहता है, इसे वक़्त अपनी उड़ानों के साथ विविध घटनाओं का गवाह बनाने उड़ा ले जाता हैइसका यूँ तो कोई घर नहीं होता, परन्तु लौटता तो यह अपनी पुकार पर ही है, हमारी सोच पर सवारी करने

लौटता कहाँ / मेरा प्रवासी मन / कोई न घर। - 1

           

       इस वैश्विक दुनिया में जब परिवार सिमटे हुए हैं तथा रिश्ते अपेक्षाओं और ज़रूरतों पर टिके हों, तब ये उपेक्षा ही पाते हैं जब कच्चे धागों का बंधन सिसकता है, अखरने लगता है, तब इसे निभाने वाले लोग ऐसे रिश्तों से मुँह मोड़ लेते हैं। इन्हीं कारणों से कोई तीसरा उन परिवारों में सेंध लगाकर उनका सब कुछ छीन ले जाता है; इससे जुड़ी अपराधों की ख़बरें इन दिनों आम हो चली हैं वास्तव में रिश्तों को निभाना हमारी भारतीय परंपरा में परिवारों को सशक्त बनाते हैं आइए इन हाइकु के साथ अपने घरों में बुजुर्गों का सम्मान करें, माँ की ममता को तोल-मोल न करें और ऐसे ही कई गुम्फित भावों के साथ इन हाइकु से अपना सम्बन्ध जोड़ें-

तौल सके जो / नहीं कोई तराजू / माँ की ममता। - 12

चिड़िया उड़ी / बाबुल की बगिया / सूनी हो गई। - 159

छूटा है देस / चली है परदेस / गौरैया बेटी। - 1012

काठ है रिश्ता / खोखला कर देता / पैसा दीमक। - 405

वृद्ध की लाठी / बस गया विदेश / भूला वो माटी। - 882

               

       रिश्तों की असली दुनिया गाँवों में महसूस की जा सकती है, जहाँ विशुद्धता साँसे लेती हैं, जहाँ निश्छल मन जीवन की संगीत लहरियाँ छेड़तीं हैं ऐसे ही भावों के साथ नीम की छाँव तले बच्चों से मचलते हाइकु को शहर लूट ले गया है, इसकी कसक देखिए-

खेलते बच्चे / बरगद की छाँव / कभी था गाँव - 29

कच्ची माटी में / जीवन का संगीत, / गाँव की रीत। - 455

      

       प्रकृति का वर्णन हाइकु का सबसे पसंदीदा विषय सदा से ही रहा हैइसके तहत आपने जो हाइकु रचे हैं, उन्हें पढ़ने से यह एहसास हो जाता है कि आपने प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित किया है, इसकी अनुभूतियों को गहराई तक अनुभूत किया है मौसम यद्यपि इन दिनों मानवीय गतिविधियों के चलते प्रदूषण का चोला पहने दुखदायी हो चले हैं फिर भी आपने इसकी सुन्दरता को उकेरा है इन हाइकु में कहीं लहरें नाग हैं, जो फुफकारती तो हैं पर काटती नहीं हैं, शाल इतराते हैं, सागर नाचते हैं... और प्रश्न भी है कि अमावस का चाँद कैसा होगा? -

धरती रँगी / सूरज नटखट / गुलाल फेंके। - 182

धरती ओढ़े / बादलों की छतरी / सूरज छुपा - 49

स्वेटर-शाल / मन में इतराए / जाड़ा जो आए। - 150

बेचैनी बढ़ी / चाँद पूरा जो उगा / सागर नाचा। - 475  

नहीं दिखता / अमावस का चाँद, / वो कैसा होगा? - 529

हरी ओढ़नी / भौतिकता ने छीनी / प्रकृति नग्न। - 935

             

       आइए आम्र मंजरियों के बीच झुरमुट में छिपे अपनी पसंद के आम पर निशाना लगाएँकोहरे की ललकार सुनेंरजाई में दुबके हुए सपने की कान उमेंठकर बाहर निकालें और खीरे के मचानों पर झुलने को निहारें, वाकई इनमें बिल्कुल ही नयापन है ऐसे हाइकु स्वागत योग्य हैं-

मुँह तो दिखा - / कोहरा ललकारे, / सूरज छुपा। - 684

नींद से भागे / रजाई में दुबके / ठंडे सपने। - 682

खीरा-ककड़ी / लत्तर पे लटके / गर्मी के दोस्त। - 786

आम की टोली / झुरमुट में छुपी / गप्पें हाँकती। - 793

          

       भारतीय परंपरा और जीवन-संस्कृति में पर्वों और त्योहारों का अद्भुत उत्साह हम सब ने अनुभव किया है इसके साथ ही अपने आपको ढाला है चाहे दीवाली हो, होली हो या रक्षाबंधन हो, हम सबकी उम्मीदों में इसने हमारे बचपन को जीवित रखा हैहमें वो दिन भी याद है जब हम अपने दोस्तों के साथ अपनी कलाई में बँधी राखियों की अधिक संख्या को लेकर इतराते थेनये वस्त्रों को पहनकर गलियों में फुदकते थे और इन सबके साथ हमारे घर-मोहल्ले का सीना चौड़ा हो जाता था आइए इन हाइकु के साथ दीवाली का दीया जलाएँहोली खेलें और अपनी बहनों की रक्षा का संकल्प लें-

दीया के संग / घर-अँगना जागे / दिवाली रात। - 61

घूँघट काढ़े / धरती इठलाती / दीया जलाती। - 333

फगुआ मन / अंग-अंग में रंग / होली आई रे। - 73

रंग अबीर / तन को रँगे, पर / मन फ़क़ीर। - 705  

सावन आया / पीहर में रौनक / उमड़ पड़ी। - 88

किसको बाँधे / हैं सारे नाते झूठे / राखी भी सोचे। - 291  


       इस चार दिन की ज़िन्दगी के विविध पड़ावों से होकर गुज़रते हुए हम सभी ने अपने-अपने सुख-दुःख में अपने बाल सफ़ेद किया है, यही हमारी पूँजी है। दर्द एक अतिथि जैसा है, जो मन की देहरी पर टिका ही रहता है, तो कभी वह पिया के घर आने पर फुर्र से उड़ भी जाता है उम्र की भट्टी में अनुभवों के भुट्टे पकाते हुए आपने ये हाइकु रचे हैं। वाक़ई इस पुरुषवादी युग में स्त्रियों को संघर्षों के साथ जीना होता है, इसलिए ही आपके ये हाइकु इन दृश्यों को शब्दांकित करने से नहीं हिचके हैं-

हवन हुई / बादलों तक गई / ज़िन्दगी धुआँ । - 316

रोज़ सोचती / बदलेगी क़िस्मत / हारी औरत - 394

छुप न सका / आँखों ने चुगली की / दर्द है दिखा। - 589

          

       इस दुनिया में भूख की एक बड़ी खाई हैजहाँ पैसों की भाषाएँ समझी जाती हैं, तब हमारी क़लम इस पर यह लिखती है कि पैसों के पीछे चक्का लगाकर भागती दुनिया एक चोर है जो हम सबके मन की शांति चुरा ले गया है

मन की शांति / लूटकर ले गया / पैसा लुटेरा। - 409

दुःख की रोटी / भरपेट है खाई / फिर भी बची। - 859

            

       इन दिनों मुंडे-मुंडे मत्तरभिन्ना के कारण विडम्बनाएँ सर उठाकर दंगल मचा रही हैं, जिसकी बानगी लिए ये हाइकु आपको अपने साथ इन दृश्यों की यात्रा पर ले जाने हेतु सक्षम हैं वाक़ई घूरती नज़रों के लिए इस समाज में कोई जगह नहीं होनी चाहिए कृषकों की आत्महत्या का कारण और बेटियों का दर्द समझने का कोई फार्मूला हमें खोजना ही होगा 

घूरती रही / ललचाई नज़रें / शर्म से गड़ी। - 177

बावरी चिड़ी / ग़ैरों में वह ढूँढती / अपनापन। - 163 

रंग भी बँटा / हरा व केसरिया / देश के साथ। - 651

किसान हारे / ख़ुदकुशी करते, / बेबस सारे। - 731

            

       सदैव से ही प्रेम हम सबके लिए शाश्वत रूप में हम सबके जीवन में रहा है, चाहे वह रिश्तों के रूप में हो या मानवता के नाते हो, इसी के कारण यह दुनिया सुन्दर और गतिशील है इस पर जितना भी लिखा जाएगा वह नया ही होगा और उसका स्वागत किया जाना चाहिए; क्योंकि प्रत्येक की प्रस्तुति का ढंग पृथक होता है आइए इन हाइकु  के साथ अपने प्रियतम की राह निहारेंउनकी झील-सी गहरी आँखों में अपनी छवि देखें, तो कभी उनकी गुलमोहर-सी झरती सुर्ख़ गुलाबी हँसी के साथ अपने प्यार को चहकने दें-

उसकी हँसी - / झरे गुलमोहर / सुर्ख़ गुलाबी। - 222 

ख़त है आया / सन्नाटे के नाम से, / चुप्पी ने भेजा। - 238

प्रीत की भाषा, / उसकी परिभाषा / प्रीत ही जाने। - 339

गहरी झील / आँखों में है बसती / उतरो ज़रा- 890

बड़ी लजाती / अँखिया भोली-भाली / मीत को देख। - 893

       इस संग्रह के अनमोल हाइकु चुनकर इस खंड में मैंने आपके लिए सहेजा है, इनका आनन्द अवश्य लें क्योंकि ऐसे दृश्यों का ऐसा शब्दांकन सदियों में कभी-कभी ही होता है ऐसे ही हाइकु के लिए कहा गया है कि एक हाइकु रच लिया तो वह वास्तविक हाइकुकार है। चीटियों को सबने देखा, फूलों को खिलते सबने देखावर्षा में सब भीगे लेकिन जो आपने देखा वह आपका अलग दृष्टिकोण है। आइए गहने पहने हुए फसलों के साथ थोड़ा मुस्कुरा लें-

लेकर चली / चींटियों की क़तार / मीठा पहाड़। - 421

गगन हँसा / बेपरवाह धूप / साँझ से हारी। - 951

फूल यूँ खिले, / गलबहियाँ डाले / बैठे हों बच्चे। - 1019

अम्बर रोया, / मानो बच्चे से छिना / प्यारा खिलौना। - 1020

फसलें हँसी, / ज्यों धरा ने पहना / ढेरों गहना। - 1022 

          

       आपके हाइकु का लश्कर आपकी अनुभूतियों का ख़ज़ाना लिए प्रकट हुए हैं वाक़ई ये हिंदी साहित्य की एक अनमोल धरोहर है। आपने इसे उकेरने में क्षेत्रीय शब्दों का जो तड़का लगाया है, वो आपके हाइकु को सशक्त बनाते हैं कहीं-कहीं बिल्कुल ही नए दृश्यों को शब्दांकित करने में आप क़ामयाब हुई हैं, जो इस संग्रह की सुन्दरता को बढ़ाती है नवदृश्यों को उकेरने का सद्प्रयास और समर्पण आपके इन हाइकु के तेवर को सदैव युवा बनाए रखेंगे। इस संग्रह ने सर्वाधिक हाइकु किसी एकल संग्रह में होने का अनोखा रिकॉर्ड बनाया है


इस संग्रह ‘प्रवासी मन की बधाई और शुभकामनाएँ! 


रमेश कुमार सोनी

LIG 24, फेस- 2 

कबीर नगर 

रायपुरछत्तीसगढ़

संपर्क - 7049355476 / 9424220209

Email - rksoni1111@gmail.com

…………………………………......


'प्रवासी मन' हाइकु-संग्रह : डॉ.जेन्नी शबनम

प्रकाशक- अयन प्रकाशन, महरौलीनई दिल्ली, सन- 2021, पृष्ठ- 120, मूल्य- 240/-Rs.   

ISBN NO. - 978-9389999-66-2


शुभकामनाएँ- डॉ.सुधा गुप्ता 

भूमिका- रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु

_______________________

Saturday, June 26, 2021

89. हाइकु-विचार

हाइकु एक ऐसी सूक्ष्म और भावपूर्ण कविता है, जिसका प्रभाव त्वरित पड़ता है। क्षणिक सोच और सोच का विस्तार इतना शीघ्र और गहन होता है कि शब्द के साथ ही उस रचना में निहित भाव चित्रित होकर सामने आने लगते हैं। जैसे हौले से छोटी-छोटी पंक्तियाँ, एक बड़ा सा सच आँखों के सामने साकार कर देती हैं। हाइकु की संरचना इतनी संक्षिप्त है कि किसी भाव, विचार या कल्पना को अभिव्यक्त करने के लिए ज़्यादा श्रम नहीं करना पड़ता और अगर ज़्यादा श्रम कर शब्दों को जोड़-तोड़ करें, तो उसका भाव प्रभावहीन हो जाता है। एक झटके में मन में जो भाव उत्पन्न हो जाए, उसे कलमबद्ध कर लेना चाहिए।  
 
हाइकु की एक सबसे ख़ास विशेषता है कि भाव का सिर्फ़ वर्णन नहीं करते, अपितु उस भाव का मन में चित्र-सा बन जाए, यह लाज़िमी है। हाइकु जितना सहज हो और जितना कोमल भाव हो उतना ही प्रभावपूर्ण होता हैहाइकु की संरचना स्पष्टतः निर्देशित है, अतः उसमें वर्णों को कम-ज़्यादा नहीं कर सकते। इसलिए शब्दों की पकड़ बहुत ज़रूरी है, ताकि निश्चित शब्दों में व्यक्त भाव अपने बिम्ब के साथ सहज रूप से संप्रेष्य हो सके  

हिन्दी हाइकु का भविष्य निःसंदेह बहुत उज्जवल है; क्योंकि आकार में छोटा होने के कारण लिखना और पढ़ना दोनों सहज है हाइकु को परिभाषित करना हो, तो कम शब्दों में कह सकते हैं कि गहन भाव की त्वरित अभिव्यक्ति जो शब्द सीमा में रहकर सम्पूर्णता पाती है।   


- जेन्नी शबनम (1.9.2014)

(रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु एवं डॉ. भावना कुँवर द्वारा संपादित पुस्तक 'हाइकु-काव्य : शिल्प एवं अनुभूति' 2015, पेज 261 में प्रकाशित) 
___________________________________________

Friday, May 21, 2021

88. भारतीय मिट्टी की सोंधी महक से सुवासित 'प्रवासी मन' - डॉ. शिवजी श्रीवास्तव

मेरी दूसरी पुस्तक 'प्रवासी मन' का लोकार्पण 10 जनवरी 2021 को 'विश्व हिन्दी दिवस' के अवसर पर 'हिन्दी हाइकु' एवं 'शब्द सृष्टि' के संयुक्त तत्वाधान में गूगल मीट और फेसबुक पर आयोजित पहला ऑनलाइन अंतरराष्ट्रीय कवि सम्मेलन में हुआ।
 
'प्रवासी मन' के लिए आदरणीया डॉ. सुधा गुप्ता जी ने अपने स्नेहाशीष दिए थे, जिसे मैंने उनकी हस्तलिपि में पुस्तक में प्रेषित किया है। वे कम्प्यूटर या मोबाइल पर नहीं लिखती, काग़ज़ पर ही लिखती हैं। मेरी पुस्तक को पढ़कर उनकी प्रतिक्रिया, जो मेरे लिए अमूल्य धरोहर है; उन्होंने पत्र के माध्यम से दिए हैं, जिसे यहाँ प्रेषित कर रही हूँ।

आदरणीय डॉ. शिवजी श्रीवास्तव ने बहुत मन से 'प्रवासी मन' की समीक्षा की है, जिसके लिए मैं उन्हें सादर धन्यवाद देती हूँ। उनके द्वारा की गई समीक्षा यहाँ प्रेषित कर रही हूँ। 

   

भारतीय मिट्टी की सोंधी महक से सुवासित - 'प्रवासी मन'

                                - डॉ. शिवजी श्रीवास्तव

प्रवासी मन (हाइकु-संग्रह) : डॉ. जेन्नी शबनम, पृष्ठ : 120, मूल्य- 240 रुपये, प्रकाशक- अयन प्रकाशन, 1/20, महरौली, नई दिल्ली-110030, संस्करण : 2021

       'प्रवासी मन' डॉ. जेन्नी शबनम का प्रथम हाइकु संग्रह है, जिसमें उनके 1060 हाइकु संकलित हैं। संग्रह का वैशिष्ट्य हाइकु की संख्या में नहीं अपितु उसके विषय-वैविध्य और गंभीर अभिव्यक्ति में है। डॉ.सुधा गुप्ता जी के हस्तलिखित शुभकामना संदेश एवं प्रसिद्ध साहित्यकार श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी द्वारा लिखित भूमिका ने इसे और भी विशिष्ट बना दिया है। विषय की दृष्टि से 'प्रवासी मन' का फलक बहुत व्यापक है, उसमें प्रकृति एवं जीवन विविध रंगों के साथ उपस्थित हैं। संग्रह में विविध ऋतुएँ अपने विविध मनोहर या कठोर रूपों के साथ चित्रित हैं, तो कहीं प्रकृति के सहज यथावत् चित्र हैं–

झुलसा तन / झुलस गई धरा / जो सूर्य जला।

कहीं प्रकृति, उद्दीपन, मानवीकरण, आलंकारिक, उपदेशक इत्यादि रूपों में दिखलाई देती है-

पतझर ने / छीन लिए लिबास / गाछ उदास

शैतान हवा / वृक्ष की हरीतिमा / ले गई उड़ा।

हार ही गईं / ठिठुरती हड्डियाँ / असह्य शीत।

       भारतीय संस्कृति में प्रकृति और उत्सव का घनिष्ट सम्बन्ध है। प्रत्येक ऋतु के अपने पर्व हैं, उन पर्वों के साथ ही परिवार एवं समाज के विविध रिश्ते जुड़े हैं। ये पर्व / उत्सव मानव मन को उल्लास अथवा वेदना की अनुभूति कराते हैं। जेन्नी जी ने प्रकृति और जीवन के इन सम्बन्धों को अत्यंत सघनता एवं सहजता से चित्रित किया है। दीपावली, होली, रक्षाबंधन, जन्माष्टमी जैसे सांस्कृतिक पर्वों के साथ ही स्वतन्त्रता दिवस, गांधी जयन्ती जैसे राष्ट्रीय पर्वों के सुंदर चित्र भी 'प्रवासी मन' में विद्यमान हैं। प्रायः ये पर्व जहाँ स्वजनों के साथ होने पर आनन्द प्रदान करते हैं, वहीं उनके विछोह से अवसाद देने लगते हैं। यथा...रक्षा-बंधन का पर्व जहाँ बहनों के मन में उल्लास की सृष्टि करता है-

चुलबुली-सी / कुदकती बहना / राखी जो आई।

वहीं जिनके भाई दूर हैं, उन बहनों के मन में वेदना भर देता है- 

भैया विदेश / राखी किसको बाँधे / राह निहारे। 

ऐसी ही वेदना होली में भी प्रिय से दूर होने पर होती है- 

बैरन होली / क्यों पिया बिन आए / तीर चुभाए।

       शायद ही ऐसा कोई सांस्कृतिक उत्सव या परम्परा हो, जिस ओर जेन्नी जी की दृष्टि न गई हो। स्त्री के माथे की बिंदी सौभाग्य सूचक होती है, तीज का व्रत करने से सुहाग अखण्ड होता है, पति की आयु बढ़ती है जैसे लोक विश्वासों पर भी सुंदर हाइकु हैं। कवयित्री ने प्रेम, विरह, देश-प्रेम हिन्दी भाषा की स्थिति, भ्रष्टाचार, नारी की नियति, किसानों की व्यथा जैसे महत्त्वपूर्ण सामयिक विषयों पर भी प्रभावी हाइकु लिखे हैं। उनकी दृष्टि से कोई विषय अछूता नहीं रहा।

       कवयित्री को मनोविज्ञान का भी अच्छा ज्ञान है अनेक रिश्तों / सम्बन्धों के मनोभावों को उन्होंने सूक्ष्मता से उभारा है। माँ की ममता, बहन का स्नेह, प्रिय का प्रेम, एकाकीपन के दंश जैसे तमाम मनोभावो के जीवन्त हाइकु के साथ ही उन्होंने जीवन की अनेक विडम्बनाओं के सशक्त चित्र अंकित किए हैं।  

       मानव जीवन की अनेक विडम्बनाओं में वृद्धावस्था सबसे बड़ी विडंबना है, उसके अपने अवसाद हैं, कष्ट हैं। उन कष्टों से जूझने की मनःस्थिति और मनोविज्ञान पर भी संग्रह में बेजोड़ हाइकु हैं, यथा- 

उम्र की साँझ / बेहद डरावनी / टूटती आस।

वृद्ध की कथा / कोई न सुने व्यथा / घर है भरा।

दवा की भीड़ / वृद्ध मन अकेला / टूटता नीड़।

वृद्धों की मनःस्थिति पर हिन्दी में इतने सशक्त हाइकु शायद ही किसी और ने लिखे हों।  

       'प्रवासी मन' की भाषा में लाक्षणिकता एवं व्यंजना के साथ ही सजीव एवं प्रभावी बिम्ब देखने को मिलते हैं, यथा-

उम्र का चूल्हा / आजीवन सुलगा / अब बुझता।

धम्म से कूदा / अँखियाँ मटकाता / आम का जोड़ा।

आम की टोली / झुरमुट में छुपी / गप्पें हाँकती।

भाषा में लोक जीवन एवं अन्य भाषा के प्रचलित शब्दों का प्रयोग भी सहजता से हुआ है-

फगुआ बुझा / रास्ता अगोरे बैठा / रंग ठिठका।

रंज औ ग़म / रंग में नहाकर/ भूले भरम।

       संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि कवयित्री की कविता की शैली अवश्य जापानी है, पर 'प्रवासी मन' भारतीय मिट्टी की सोंधी महक से सुवासित एवं रससिक्त है।

        

संपर्क : डॉ. शिवजी श्रीवास्तव

            2, विवेक विहार, मैनपुरी (उ.प्र.) - 205001.

            Email : shivji.sri@gmail.com

            तिथि- 18.2.2021

____________________

Friday, April 23, 2021

87. सुनील मिश्र

सुनील मिश्र
स्तब्ध हूँ! अवाक् हूँ! मन को यक़ीन नहीं हो पा रहा कि सुनील मिश्र जी अब हमारे बीच नहीं हैंकैसे यक़ीन करूँ कि एक सप्ताह पूर्व जिनसे आगे के कार्यक्रमों पर चर्चा हुई, यों अचानक सब छोड़कर चले गए? उनके व्हाट्सएप स्टेटस में लिखा है ''कोई दुःख मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं, वही हारा जो लड़ा नहीं।'' फिर आप कैसे हार गए सुनील जी? आपको लड़ना था, खूब लड़ना था, हम सब के लिए लड़कर व जीतकर आना था। यों सफ़र अधूरा छोड़कर नहीं जाना था। आपके अपने, अपने परिवार, अपने मित्र, अपने प्रशंसक, अपने शुभचिंतक, अपने सहकर्मी सबको रुलाकर कल आप चले गए। इस संसार को बहुत ज़रूरत थी आपकी। यूँ अलविदा नहीं कहा जाता सुनील जी!   

जीवन की असफलताओं से जब भी मैं हारती, आप मुझे समझाते थे। मुझे बताते थे कि जीवन में सांसारिकता, व्यावहारिकता, सरलता, सहजता, सहृदयता कैसे अपनाएँ। आपके कहे शब्द आज भी मेरे पास सुरक्षित हैं- ''इतने गहरे होकर विचार करने की उम्र नहीं है। हम सभी जिस समय में रह रहे हैं, अजीब-सा वातावरण है और इसमें जीवन की स्वाभाविकता के साथ जीना अच्छा है। यह ठीक वह समय है जब अपने आसपास से इसकी भी अपेक्षा न करके बलवर्धन करना चाहिए। थोड़ा उपकार वाले भाव में आओ। बाल-बच्चे यदि व्यस्त हैं, फ़िक्र करने या जानने का वक़्त नहीं है, अपने संसार में हैं तो उनको ख़ूब शुभकामनाएँ दो। यही हम सबकी नियति है। और उस रिक्ति को अपनी सकारात्मकता के साथ एंटीबायोटिक की तरह विकसित करो। हम तो यही कर रहे हैं। काफ़ी समय से।'' आपकी वैचारिक बुद्धिमता, मानवीयता, गम्भीरता और संवेदना सचमुच ऊर्जा देती है मुझे। मेरे लिए आप मित्र हैं और प्रेरक सलाहकार भी।

चिन्तन में
मेरे जन्मस्थान भागलपुर में गायक किशोर कुमार का ननिहाल है। वहाँ से सम्बन्धित जानकारी लेने को सुनील जी बहुत उत्सुक थे। एक बार किशोर कुमार के ननिहाल मैं गई; लेकिन कुछ ख़ास जानकारी हासिल न हो सकी थी। 14 अप्रैल को फ़ोन पर हम बात कर रहे थे कि कोरोना का प्रभाव ख़त्म हो, तो वे किसी मित्र की गाड़ी से आएँगे और नालंदा विश्वविद्यालय देखने जाएँगे। फिर भागलपुर आएँगे और किशोर कुमार के ननिहाल का पूरा व्योरा लेने मेरे साथ चलेंगे। मैंने उन्हें कहा कि आप आएँ तो विक्रमशिला विश्वविद्यालय और कर्ण गढ़ भी आपको ले चलेंगे, जो भागलपुर के इतिहास की धरोहर है। मेरी माँ का 30 जनवरी 2021 को देहान्त हो गया। माँ के बारे में उनसे बातें हो रही थीं, मैं रो रही थी और वे अपनी माँ को याद कर रो पड़े। मेरे लिए उनके अन्तिम शब्द थे ''चुप हो जाओ, रोओ नहीं, यही दुनिया है, ऐसे ही जीना होता है, 6 साल हो गए मेरी माँ को गए हुए लेकिन अब भी माँ को यादकर रो पड़ता हूँ, तुम्हारे लिए तो अभी-अभी की घटना है, ख़ुश रहने का प्रयत्न करो और स्वस्थ रहो।''   
 
सुनील मिश्र जी से मेरा परिचय फेसबुक पर हुआ था। मैं उन दिनों अंतर्जाल पर नई थी। सुनील जी का फ्रेंड रिक्वेस्ट आया। मैंने देखा कि वे फ़िल्म क्रिटिक हैं, तो तुरन्त उन्हें जोड़ लिया। बाद में मैंने उनसे पूछा कि आप तो इतने मशहूर हैं, मुझे क्यों फ्रेंड बनाया, जबकि हमारे कॉमन फ्रेंड सिर्फ़ एक हैं; वे हँस पड़े यों फ़िल्म देखना मेरा पसन्दीदा कार्य है। सुनील जी के नियमित कॉलम अख़बारों में आते रहते थे और फ़िल्म की समीक्षा भी। किसी भी नए फ़िल्म की उनके द्वारा लिखी समीक्षा पढ़कर मैं फ़िल्म देखने का अपना मन बनाती थी, सलमान-शाहरुख की फ़िल्में छोड़कर (सलमान-शाहरुख की हर फ़िल्म देखती हूँ)। 
 
सिनेमा पर सर्वोत्तम लेखन के लिए अवार्ड लेते सुनील जी
सुनील जी से जब आत्मीयता बढ़ी, तब जाना कि वे वरिष्ठ फ़िल्म-समीक्षक ही नहीं बल्कि लेखक, नाटककार, कवि, कला मर्मज्ञ, वरिष्ठ पत्रकार और मध्यप्रदेश के कला संस्कृति विभाग में अधिकारी हैं। उनके नाटकों का मंचन समय-समय पर होता रहता है, जिसका वीडियो मैंने देखा है और अंतर्जाल पर भी है। वर्ष 2006 में सुनील जी ने अमिताभ बच्चन पर पुस्तक लिखी 'अजेय महानायक'। मई 2018 में सुनील जी को सिनेमा पर सर्वोत्तम लेखन के लिए 65वाँ नेशनल अवार्ड मिला है। 
अमिताभ बच्चन जी का पत्र सुनील जी के नाम
फ़िल्म और कला से जुड़े सभी क्षेत्र के लोगों के साथ उनका वृहत सम्पर्क रहा है। सलीम साहब और हेलेन जी के साथ उनकी तस्वीर देखकर मैंने सुनील जी से कहा कि आप मुझे सलमान खान से मिलवा दीजिएगा, उनकी बहुत बड़ी फैन हूँ। वे हँस पड़े और बोले- ''यह तो मुश्किल काम है पर कोशिश करेंगे, सलमान सचमुच दिल का बहुत अच्छा इंसान है।'' मेरी ख़्वाहिश अधूरी रह गई, सलमान से वे मिलवा न सके

सलीम साहब और हेलेन जी के साथ सुनील जी
फ़िल्मों पर उनसे ख़ूब बातें होती थीं। धर्मेन्द्र के वे बहुत बड़े प्रशंसक हैं और इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने फेसबुक पर धर्म छवि के नाम से प्रोफाइल बनाया है वे धर्मेन्द्र को पापा जी कहकर बुलाते थे। धर्मेन्द्र के जन्मदिन पर वे अक्सर मिलने जाते थे
धर्मेन्द्र पापाजी को उनके जन्मदिन पर बधाई देते सुनील जी
सुनील जी से घनिष्टता बढ़ने के बाद उनके बहुमुखी व्यक्तित्व के हर पहलू को मैंने देखा। वे इतने सहज और सामान्य रहते थे कि शुरू में मुझे पता ही नहीं चलता था कि वे कितने बड़े विद्वान् और संस्कृतिकर्मी हैं। वे अपने प्रशंसनीय कार्य की चर्चा नहीं करते थे। उनके बारे में या उनके लिखे को कहीं पढ़ा, तब पूछने पर वे बताते थे। फ़िल्म ही नहीं बल्कि कला और साहित्य के हर क्षेत्र पर उनकी पकड़ बहुत मज़बूत है। उनकी हिन्दी इतनी अच्छी है कि मैं अक्सर कहती थी- आपके पास इतना बड़ा शब्द-भण्डार कहाँ से आता है? उनकी कविताओं में भाव, बिम्ब और प्रतीकों का इतना सुन्दर समावेश होता है कि मैं चकित हो जाती हूँ। 

बाएँ सुनील जी, बीच में 3 बहुरूपिया, मैं

5-7 अक्टूबर 2018 को इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, नई दिल्ली में बहुरूपिया फेस्टिवल हुआ। वहाँ 6 अक्टूबर को मैं सुनील जी से मिलने गई। यह मेरा पहला और आख़िरी मिलना हुआ उनसे। बहुत सारे बहुरूपियों से मेरा परिचय कराया उन्होंने। मेरे लिए यह अद्भुत अनुभव था। मैंने पहली बार बहुरूपियों का जीवन, उनकी कर्मठता, उनकी कला, उनकी परेशानियों को जाना व समझा।   
बाएँ सुनील जी, बीच में 2 बहुरूपिया, मैं
सुनील जी कला के कर्मयोगी थे। उनकी पारखी नज़रें कला को गम्भीरता से देखती थीं, फिर उनकी कलम चलती थी। कभी-कभी मैं उनसे कहती कि आप इतने बड़े-बड़े लोगों को जानते हैं, मुझ जैसे साधारण दोस्त को कैसे याद रखते हैं? उन्होंने हँसकर कहा कि वे सभी औपचारिक और कार्य का हिस्सा हैं, कुछ ही ऐसे हैं जिनसे व्यक्तिगत जुड़ाव है। अब उसमें चाहे कोई बड़ी हस्ती हो या तुम जैसी सहज मित्र, सब मुझे याद हैं और साथ हैं। उनकी कार्यक्षमता, कार्यकुशलता, कर्मठता, विद्वता, लेखनी सबसे मैं अक्सर हैरान होती रहती थी। अकूत ज्ञान का भण्डार और विलक्षण प्रतिभा थी उनमें।   
सुनील जी द्वारा लिखी पुस्तक
2017 की बात है। फेसबुक पर उनकी कविताएँ कम दिख रही थीं। मैंने पूछा कि कविताएँ नहीं दिख रहीं, तो उन्होंने बताया कि इंस्टाग्राम पर पोस्ट है। इंस्टाग्राम डाउनलोड करना और उसके फीचर्स उन्होंने मुझे बताए। कोरोना काल में हम सभी का जीवन अस्त-व्यस्त हो गया था। आशंका और भय का वातावरण था। ऐसे में सुनील जी ने 16 अप्रैल 2020 को ग़ज़ल सिंगर जाज़िम शर्मा जी के साथ पहला लाइव संवाद किया। मैं फेसबुक और इंस्टाग्राम पर कोशिश करती रही कि देखूँ, पर तकनीक का अल्प ज्ञान होने के कारण समझ नहीं आया कि लाइव कहाँ हो रहा है। सुनील जी से बात हुई तो उन्होंने कहा कि क्यों न ऐसे लाइव को रोज़ किया जाए और मुझसे बात करते-करते ही कार्यक्रम का नाम बातों-बातों में रख दिया उन्होंने।   

23 अप्रैल 2020 को 'इंस्टा - बातों बातों में' के लाइव की पहली कड़ी प्रस्तुत हुई, जिसमें उन्होंने सर्वेश अस्थाना जी (विख्यात हास्य व्यंग्य कवि) को संवाद के लिए आमंत्रित किया। मैं पहली दर्शक-श्रोता थी; क्योंकि इस बार मैं अच्छी तरह समझकर इंस्टाग्राम खोलकर बैठी थी। बहुत रोचक कार्यक्रम हुआ। पहले दिन कम लोग थे, परन्तु हम सभी का परिचय उन्होंने सर्वेश जी से करवाया। बहुत सफल कार्यक्रम रहा और सुनील जी बहुत प्रसन्न थे। फिर यह कार्यक्रम हमारे कोरोना-काल का हिस्सा बन गया। निर्धारित समय पर रोज़ अलग-अलग विख्यात हस्ती के साथ संवाद का यह कार्यक्रम चलता रहा। 
31 जुलाई को 100वीं कड़ी हुई, जिसमें निर्देशक-अभिनेता सतीश कौशिक दोबारा आमंत्रित थे। सुनील जी इस दिन बहुत प्रसन्न थे और बोले कि वे सोचे ही नहीं थे कि बात करते-करते 'बातों बातों में' कार्यक्रम बन जाएगा और इतना सफल होगा। सुविधा के अनुसार कार्यक्रम का दिन और समय बदलता रहा, लेकिन यह सिलसिला चलता रहा। इसी बीच इरफ़ान खान, सुशांत सिंह राजपूत, ऋषि कपूर, बासू चटर्जी, जगदीप की मृत्यु हुई। इनपर अलग से ट्रिब्यूट के लिए उन्होंने कार्यक्रम रखे।
14 अप्रैल 2021 को 'इंस्टा - बातों बातों में' की 175वीं कड़ी थी
पिछले दो माह से मैं नेट से दूर थी, क्योंकि मेरी माँ का देहान्त जनवरी 2021 में हुआ था। मैं भागलपुर आई हुई थी 14 अप्रैल को सुनील जी से फ़ोन पर काफ़ी लम्बी बातें हुईं। उन्होंने मुझे अपने दुःख से बाहर निकलने और कार्यक्रम से जुड़ने के लिए कहा बात करते हुए उनके भागलपुर आने का कार्यक्रम तय हुआ फिर शाम को मैंने 'बातों बातों में' का लाइव कार्यक्रम देखा। 14 अप्रैल को उनसे फ़ोन पर बातें तथा 'बातों बातों में' की 175वीं कड़ी मेरे और सुनील जी के बीच की अन्तिम कड़ी बन गई। 22 अप्रैल 2021 को  रात्रि 8 बजे वे हम सबको छोड़कर चले गए, जहाँ से अब वे कभी नहीं आएँगे, न मुझे कुछ ज्ञान की बात बताएँगे। आपसे दुनियादारी बहुत सीखा, मेरे हर दुःख में आपने मुझे बहुत समझाया और उबरने में मदद की, आपको कभी भूल नहीं पाऊँगी। आपको श्रधांजलि अर्पित करते हुए प्रणाम करती हूँ

सुनील जी अपनी आवाज़, अपनी लेखनी, अपनी विद्वता, अपनी सहृदयता के साथ हमारे दिलों में सदा जिएँगे। सुनील जी की एक कविता:
 
इन्स्टाग्राम से कॉपी
 
किसी कविता का सृजन या फ़िल्म समीक्षा करते हुए सुनील जी
 
- जेन्नी शबनम (23.4.2021)
___________________