प्रकृति और जीव-जगत् एक दूसरे के पूरक हैं, एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। बाह्य प्रकृति जीव-जगत् को प्रभावित करती है, तो जीव जगत् भी प्रकृति को प्रभावित करता है। ताप, बरसात, कुहासा, वसन्त, पतझर, भूकम्प, सुनामी प्रकृति के साथ-साथ मानव जीवन में भी किसी न किसी रूप में घटित होते ही हैं। इन सबके बीच रहकर मानव इन सबसे अछूता भी कैसे रह सकता है? अगर कोई यह कहता है कि वह किसी से राग-द्वेष (प्यार और नफ़रत) नहीं रखता, वह कभी रोता नहीं, वह कभी हँसता नहीं, वह कभी नाराज़ नहीं होता, तो समझिए कि या तो वह झूठ बोल रहा है या वह देवता है या संवेदना-शून्य है। हाइकु कविता के लिए भी कोई विषय त्याज्य नहीं माना जा सकता; क्योंकि कवि का अपना व्यक्तित्व है, उसके संस्कार हैं, उसका मन है, उसके अपने सामाजिक सरोकार हैं। वह इन सबकी उपेक्षा कैसे कर सकता है? डॉ. जेन्नी शबनम जहाँ एक रचनाकार हैं, दूसरी ओर वह सामाजिक कार्यों से भी जुड़ी हैं एवं जन समस्याओं से रूबरू भी होती रहती हैं; इसीलिए इनका गद्य जितना अच्छा है, उतनी ही गहरी एवं संवेदना-सिंचित इनकी कविताएँ हैं। हाइकु-सर्जन में भी उनकी वही गहराई और मज़बूत पकड़ नज़र आती है। इसका एक कारण दृष्टिगत होता है, इनका जीवन-अनुभव और साहित्य का गहन अध्ययन। अमृता प्रीतम से इनका प्रगाढ़ सामीप्य रहा है। इनके काव्य में कहीं-कहीं उसकी झलक मिल जाती है; फिर भी इनका अपना चिन्तन है, अपनी शैली है।
जीवन में शाश्वत सुख जैसा कुछ नहीं होता। मन को जो थोड़ी देर के लिए सुख मिलता है, उसमें भी कहीं न कहीं दुःख की छाया रहती है। जहाँ मिलन या संयोग का आनन्द होता है, उसी में उस सुख के छिन जाने का भय बना रहता है। घनानंद ने कहा भी है- 'अनोखी हिलग दैया, बिछुरे तै मिल्यौ चाहै / मिलेहू पै मारै जारै खरक बिछोह की।' यानी प्रेम भी अनोखा है कि बिछुड़ जाने पर मिलने के लिए व्याकुल होता है और मिलन होने पर बिछोह का खटका लगा रहता है। इसी तरह जेन्नी जी के हाइकु में एक ओर प्रेम है, छले जाने की पीर है, दु:ख की नियति है, तो जीवन का उल्लास भी है, प्रकृति का अनुपम सौन्दर्य भी, खेत में अन्न से जाग्रत किसान है, तो दो वक़्त की रोटी के लिए जूझता मज़दूर भी है। हर मौसम का सौन्दर्य है, तो उनका निर्दय रूप भी है।
मन को प्रवासी कहा है। वह भी ऐसा प्रवासी, जिसका कोई घर ही नहीं। वह लौटे भी, तो कहाँ जाए। जाए भी कैसे? रास्ता काँटों-भरा, पाँव ज़ख़्मी हो गए, अब कहाँ जाया जाए। एकान्त को तोड़ने के लिए गौरैया से भी मनुहार की है कि वह चीं-चीं बोले तो चुप्पी टूटे। ज़िन्दगी का आनन्द तो दूर रहा, उल्टे वह हवन हो गई, जिसका धुआँ बादलों तक जा पहुँचा-
पाँव है ज़ख़्मी / राह में फैले काँटे / मैं जाऊँ कहाँ! - 4
लौटता कहाँ / मेरा प्रवासी मन / कोई न घर! -1
मेरी गौरैया / चीं चीं-चीं चीं बोल री, / मन है सूना! - 1000
हवन हुई / बादलों तक गई / ज़िन्दगी धुँआ! - 316
प्रकृति का आलम्बन रूप में यदि उसके स्वरूप का चित्रांकन किया गया है, तो उसका लाक्षणिक और प्रतीक रूप भी मौजूद है। 'बगिया' के अभिधेय और लाक्षणिक दोनों रूप मौजूद हैं-
गगरी खाली / सूख गई धरती / प्यासी तड़पूँ! - 26
झुलस गई / धधकती धूप में / मेरी बगिया! - 28
प्रकृति का मोहक सौन्दर्य भी है, जिसमें फसलों के हँसने का, फूलों का बच्चों की तरह गलबहियाँ डालकर बैठने का मोहक मानवीकरण भी है। हँसता हुआ गगन है, तो बेपरवाह धूप भी है। अम्बर से बादल नहीं बरसा; बल्कि अम्बर उस बच्चे की तरह रोया है, जिसका किसी ने खिलौना छीन लिया हो। जेन्नी शबनम की यह नूतन कल्पना नन्हे-से हाइकु को चार चाँद लागा देती है। कम से कम शब्दों में उकेरे गए ये चित्र मनमोहक हैं-
फूल यूँ खिले, / गलबहियाँ डाले / बैठे हों बच्चे! - 1019
फसलें हँसी, / ज्यों धरा ने पहने / ढेरों गहने! - 1022
गगन हँसा / बेपरवाह धूप / साँझ से हारी! - 951
अम्बर रोया, / ज्यों बच्चे से छिना / प्यारा खिलौना! -1020
प्रकृति का चेतावनी देना वाला वह रूप भी है, जिसे मानव ने अपने स्वार्थ से नष्ट कर दिया है। कैकेयी की तरह रूठना जैसे पौराणिक उपमानों का सार्थक प्रयोग विषय को और भी प्रभावी बना देता है। धूल और धुएँ से धरती की बेदम साँसें पूरी मानवता के लिए बहुत बड़ी चेतावनी हैं। हरियाली के लिए पर्यावरण की हरी ओढ़नी का सार्थक प्रयोग किया गया है। उस ओढ़नी को छीनने पर प्रकृति की नग्नता, प्रकारान्तर से जीवन के लिए ख़तरे का संकेत है, तो अनावृष्टि का चित्र देखिए- खेतों का ठिठकना, 'बरसो मेघ' हाथ जोड़कर पुकारना, कितनी व्याकुलता से भरा हुआ है!
ठिठके खेत / कर जोड़ पुकारें / बरसो मेघ! - 53
रूठा है सूर्य / कैकेयी-सा, जा बैठा / कोप-भवन! - 1025
धूल व धुआँ / थकी हारी प्रकृति / बेदम साँसें! - 928
हरी ओढ़नी / भौतिकता ने छीनी / प्रकृति नग्न! - 935
प्रकृति की भयावह स्थिति का चित्रण करते हुए जीव-जगत् की विवशता, जलाभाव में कण्ठ सूखना, पेड़ और पक्षियों का लिपटकर रोना बहुत कारुणिक है। प्रकृति के ऐसे भावचित्र साहित्य में दुर्लभ ही हैं। ऐसे दृश्य को आठ शब्दों के 17 वर्ण में समेटना बड़ी शब्द-साधना है।
कंठ सूखता / नदी-पोखर सूखे / क्या करे जीव? - 757
पेड़ व पक्षी / प्यास से तड़पते / लिपट रोते! - 758
प्रेम प्राणिमात्र की अबुझ प्यास है। गोपालदास नीरज ने एक गीत में कहा है- 'प्यार अगर न थामता पथ में / उँगली इस बीमार उम्र की / हर पीड़ा वेश्या बन जाती / हर आँसू आवारा होता।' उसी प्रेम को कवयित्री ने विभिन्न भाव-संवेदनाओं के साथ प्रस्तुत किया है। कहीं वह प्रेम अग्नि है, जो ऊँच-नीच का भेद नहीं करता। कहीं वह ऐसा बन्धन है, जो बिना किसी रज्जु या शृंखला के अटूट है, कहीं वह चिड़िया की तरह बावरा है, जो ग़ैरों में भी अपनापन तलाशता है-
प्रेम की अग्नि / ऊँच-नीच न देखे / मन में जले! - 143
प्रेम बंधन / न रस्सी न साँकल / पर अटूट! - 145
बावरी चिड़ी / ग़ैरों में वह ढूँढती / अपनापन! - 163
प्रेम की एकनिष्ठता में सूर्य और सूर्यमुखी का सम्बन्ध है, तो कभी नैनों की झील में उतरने का अमन्त्रण है, कहीं उन स्वप्न को छुपाने वाले नैनों का सौन्दर्य है, जो झील की तरह गहरे हैं। जिनमें उतरकर ही प्रेम की थाह पाई जा सकती है।
मैं सूर्यमुखी / तुम्हें ही निहारती / तुम सूरज! - 851
गहरी झील / आँखों में है बसती / उतरो ज़रा! - 890
स्वप्न छिपाती / कितनी है गहरी / नैनों की झील! - 899
उसे जब उसका प्रेमास्पद मिल जाता है, तो उसका अनुराग, उसका आगमन गुलमोहर बनकर खिल जाता है-
तुम्हारी छवि / जैसे दोपहरी में / गुलमोहर! - 219
उनका आना / जैसे मन में खिला / गुलमोहर! - 217
वियोग की स्थिति होने पर उस मन में सन्नाटा पसर जाता है, चुप्पी भी सन्नाटे के नाम ख़त भेजने लगती है। मन में जो प्राणप्रिय बसा था, वह था तो आकाश की तरह व्यापक तो, लेकिन उसकी पहुँच से दूर है-
कोई न आया / पसरा है सन्नाटा / मन अकेला! - 234
ख़त है आया / सन्नाटे के नाम से, / चुप्पी ने भेजा! - 238
मेरा आकाश / मुझसे बड़ी दूर / है मग़रूर! - 619
जब व्यक्ति की वेदना सीमाएँ लाँघ जाती है, तो मौन ही फिर एकमात्र उपाय रह जाता है। भरपूर दु:ख सहने पर भी कभी उसका अन्त नहीं होता। वह बेहया अतिथि की तरह आता तो अचानक है; लेकिन फिर जाने का नाम नहीं लेता-
मेरी वेदना / सर टिकाए पड़ी / मौन की छाती! - 852
दुःख की रोटी / भरपेट है खाई / फिर भी बची! - 859
दुःख अतिथि / जाने की नहीं तिथि / बड़ा बेहया! - 860
जीवन बड़ा विकट है। ज़माने की बुरी नज़रें अस्तित्व को न जाने कब ध्वस्त कर दें। ख़ुद को गँवाने पर भी कुछ मिल जाए, सम्भव नहीं। जीवन बीत जाता है। हमारे सामने ही हमारे सुखों को, सुख-साधनों को कोई और हड़प लेता है-
घूरती रही / ललचाई नज़रें, / शर्म से गड़ी! - 177
कुछ न पाया / ख़ुद को भी गँवाया / लाँछन पाया! - 178
ताकती रही / जी गया कोई और / ज़िन्दगी मेरी! - 298
बुढ़ापा सारे अभाव का नाम है। कोई उसकी व्यथा सुनने वाला नहीं, अपने सगे भी साथ छोड़ जाते हैं। जो परदेस चले जाते हैं, वे भी धीरे-धीरे सारे सम्बन्ध समेट लेते हैं। इसी तरह बेसहारा जीवन अवसान की ओर बढ़ता रहता है। जेन्नी जी ने बुढ़ापे का बहुत मार्मिक चित्रण किया है-
वृद्ध की कथा / कोई न सुने व्यथा / घर है भरा! - 865
बुढ़ापा खोट / अपने भी भागते / कोई न ओट! - 875
वृद्ध की आस / शायद कोई आए / टूटती साँस! - 876
वृद्ध की लाठी / बस गया विदेश / भूला वो माटी! - 882
बहन और बेटी के सम्बन्धों की प्रगाढ़ता को अपने हाइकु में मधुर स्वर दिया है-
छूटा है देस / चली है परदेस / गौरैया बेटी! - 1012
ये धागे कच्चे / जोड़ते रिश्ते पक्के / होते ये सच्चे! - 290
यादों को लेकर जो कसक है, उसे न लौटने की हिदायत ही दे डाली-
तुम भी भूलो, / मत लौटना यादें, / हमें जो भूले! - 1032
वैचारिक पक्ष को देखें तो एक महत्त्वपूर्ण बात कवयित्री ने कही है, जिसको व्यापक अर्थ और परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। मानव ही मन्दिर की मूर्त्ति को बनाता-तराशता है; लेकिन वही मनुष्य, उस मन्दिर की व्यवस्था द्वारा बुरा क़रार दे दिया जाता है-
हमसे जन्मी / मंदिर की प्रतिमा, / हम ही बुरे! - 1052
अगर भाषा की बात करें तो कवयित्री भाषा–प्रयोग में बहुत सजग हैं। हाइकु को हाइकु में परिभाषित करते हुए उसका जीवन से साम्य प्रस्तुत किया है-
हाइकु ऐसे / चंद लफ़्ज़ों में पूर्ण / ज़िन्दगी जैसे! - 172
भाषा में क्षेत्रीय शब्दों का प्रयोग हाइकु को और अधिक सशक्त बना देता है। राह अगोरे (बाट देखना, प्रतीक्षा करना), सरेह (खेत), बनिहारी (खेतों में काम करना), असोरा (ओसारा, दालान), पथार (सुखाने के लिए फैलाया गया अनाज) जैसे सार्थक और उपयुक्त शब्दों के प्रयोग हाइकु को और अधिक सशक्त बना देते हैं-
राह अगोरे / भइया नहीं आए / राखी का दिन! - 39
हुआ विहान, / बैल का जोड़ा बोला- / सरेह चलो! - 457
भोर की वेला / बनिहारी को चला / खेत का साथी! - 562
असोरा ताके / कब लौटे गृहस्थ / थक हार के! - 566
भोज है सजा / पथार है पसरा / गौरैया ख़ुश! - 1008
डॉ जेन्नी शबनम के हाइकु का फलक बहुत विस्तृत है। यहाँ संक्षेप में कुछ विशेषताएँ बताने का प्रयास किया है। विषय-वैविध्य इनके हाइकु की शक्ति भी है, विशेषता भी। इस शताब्दी के लगभग पूरे दशक में आपकी लेखनी चलती रही है। मुझे विश्वास है कि 'प्रवासी मन' संग्रह इस दशक के महत्त्वपूर्ण संग्रहों में से एक सिद्ध होगा।
-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
23 नवम्बर 2020
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- डॉ. जेन्नी शबनम (21.3.21)
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