राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था ''अखिल भारत के परस्पर व्यवहार के लिए ऐसी भाषा की आवश्यकता है, जिसे जनता का अधिकतम भाग पहले से ही जानता-समझता है, हिन्दी इस दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ है।'' ''हृदय की कोई भाषा नहीं है, हृदय-हृदय से बातचीत करता है और हिन्दी हृदय की भाषा है।''
भारत की आज़ादी और गांधी जी के इंतकाल के कई दशक बीत गए, लेकिन आज भी हिन्दी को न सम्मान मिल सका, न बापू की बात को महत्व दिया गया। हिन्दी, हिन्दी भाषियों तथा देश पर जैसे एक मेहरबानी की गई और हिन्दी को राजभाषा बना दिया गया। बापू ने कहा था ''राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूँगा है।'' सचमुच हमारा राष्ट्र गूँगा हो गया है, कहीं से पुर-ज़ोर आवाज़ नहीं आती कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाई जाए। दुनिया के सभी देशों की अपनी-अपनी राष्ट्रभाषा है; लेकिन भारत ही ऐसा देश है जिसके पास अनेकों भाषाएँ हैं लेकिन राष्ट्रभाषा नहीं है। जबकि भारत में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा हिन्दी है।
काफ़ी साल पहले की बात हिन्दी है, मैं अपनी पाँच वर्षीया बेटी के साथ ट्रेन से भागलपुर जा रही थी। ट्रेन में एक युवा दंपती अपने तीन-साढ़े तीन साल के बेटे के साथ सामने की बर्थ पर बैठे थे, जिनका पहनावा काफ़ी आधुनिक था। वे अपने घर पटना जा रहे थे। बच्चा मेरी बेटी के साथ ख़ूब खेल रहा था। दोनों बच्चे बिस्किट खाना चाहते थे। मेरी बेटी ने मुझसे कहा ''माँ हाथ धुला दो, बिस्किट खाएँगे।'' मैंने कहा ''ठीक है चप्पल पहन लो, चलो।'' सामने वाली स्त्री बेटे से बोली ''फर्स्ट वाश योर हैंड्स, देन आई विल गिव यू बिस्किट्स।'' वह बच्चा अपना दोनों हाथ दिखाकर बोला ''मम्मा, माई हैंड्स नो डर्टी।'' उस स्त्री ने अपने पति से अँगरेज़ी में कहा कि वह बेटे का हाथ धुला दे। दोनों बच्चे बिस्किट खा रहे थे। हाथ का बिस्किट ख़त्म होने पर उस बच्चे ने अपनी माँ से और भी बिस्किट माँगा, कहा कि ''मम्मा गिव बिस्किट।'' माँ ने अँगरेज़ी में बच्चे से कहा कि पहले प्रॉपर्ली बोलो ''गिव मी सम मोर बिस्किट्स।'' बच्चा किसी तरह बोल पाया फिर उसे बिस्किट मिला।
मैं यह सब देख रही थी। मुझे बड़ा अजीब लगा कि इतने छोटे बच्चे को प्रॉपर्ली अँगरेज़ी बोलने के लिए अभी से दबाव दिया जा रहा है।
मैंने कहा कि अभी यह इतना छोटा है, कैसे इतनी जल्दी सही-सही बोल पाएगा? उस स्त्री ने कहा कि अभी से अगर नहीं बोलेगा तो दिल्ली के प्रतिष्ठित स्कूल में एडमिशन के लिए इंटरव्यू में कैसे बोलेगा, इसलिए वे लोग हर वक़्त अँगरेज़ी में बात करते हैं। बातचीत से जब उन्हें पता चला कि मैं दिल्ली में रहती हूँ और मैंने पी-एच.डी. किया हुआ है, तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ कि मैं अपनी बेटी से हिन्दी में बात करती हूँ और बेटी भी अच्छी हिन्दी बोलती है। मैं सोचने लगी कि क्या उस माता-पिता का दोष है, जो बच्चे के एडमिशन के लिए अभी से बच्चे पर अँगरेज़ी बोलने का दबाव डाल रहे हैं, या दोष हमारी शिक्षा व्यवस्था का है; जिस कारण अभिभावक प्रतिष्ठित अँगरेज़ी माध्यम के स्कूल में पढ़ाने के लिए बच्चे के जन्म के समय से ही मानसिक तनाव झेलते हैं।
निःसन्देह हमारे देश का ताना-बाना और सामजिक व्यवस्था का स्वरूप ऐसा बन चुका है, जिससे अँगरेज़ी के बिना काम नहीं चल पाता है।
अगर जीवन में सफलता यानि उच्च पद और प्रतिष्ठा चाहिए तो अँगरेज़ियत ज़रूरी है। हिन्दी के पैरोकार कहते हैं कि हिन्दी बोलने से ऐसा नहीं है कि आदमी सफल नहीं हो सकता।
मैं भी ऐसा मानती हूँ।
लेकिन विगत 30-35 सालों में जिस तरह से सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव हुए हैं, हिन्दी माध्यम से कोई सफलता प्राप्त कर भी ले, पर समाज में उसे वह सम्मान नहीं मिलता जो अँगरेज़ी बोलने वाले को मिलता है। यों अपवाद हर जगह है।
अब तो गाँव-कस्बों में भी अँगरेज़ी माध्यम के स्कूल खुलते जा रहे हैं; क्योंकि सफलता का मापदंड अँगरेज़ी भाषा बोलना हो गया है।
आम जीवन में अक्सर मैंने यह महसूस किया है।
किसी दूकान, रेस्त्राँ, सिनेमा हॉल, मॉल, किसी समारोह इत्यादि जगह में ''एक्सक्यूज मी'' बोल दो, तो सामने वाला पूरे सम्मान के साथ आपकी बात पहले सुनेगा और ध्यान देगा।
हिन्दी में भइया-भइया कहते रह जाएँ, वे उसके बाद ही आपकी बात सुनेंगे। अमूमन हिन्दी बोलने वाला अगर सामान्य कपड़ों में है, तब तो उसे जाहिल या गँवार समझ लिया जाता है।
शिक्षा पद्धति ऐसी है कि बच्चे हिन्दी बोल तो लेते हैं परन्तु समझते अँगरेज़ी में हैं।
हिन्दी में अगर कोई स्क्रिप्ट लिखना हो तो रोमन लिपि में लिखते हैं।
पर इसमें दोष उनका नहीं है, दोष शिक्षा पद्धति का है; क्योंकि हिन्दी की उपेक्षा होती रही है।
सभी विषयों की पढ़ाई अँगरेज़ी में होती है, तो स्वाभाविक है कि बच्चे अँगरेज़ी पढ़ना, लिखना और बोलना सीखेंगे।
हिन्दी एक विषय है, जिसे किसी तरह पास कर लेना है; क्योंकि आगे काम तो उसे आना नहीं है चाहे आगे की पढ़ाई हो या नौकरी या सामान्य जीवन।
वर्ष 1986 में नई शिक्षा नीति लागू की गई थी, जिसमें 1992 में कुछ संशोधन किये गए थे।
अब दशकों बाद 2020 में नई शिक्षा नीति लागू की गई है, जिसमें मातृभाषा पर ज़ोर दिया गया है।
इसमें पाँचवीं कक्षा तक मातृभाषा, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई का माध्यम रखने की बात की गई है। यह भी कहा गया है कि किसी भी भाषा को थोपा नहीं जाएगा।
अब इस नीति से हिन्दी को कितना बढ़ावा मिलेगा, यह कहना कठिन है।
हिन्दी प्रदेशों के सरकारी विद्यालयों में हिन्दी माध्यम से पढ़ाई होती है।
लेकिन पूरे देश के सभी निजी विद्यालयों में अँगरेज़ी माध्यम से ही पढ़ाई होती है।
इस नई शिक्षा नीति के तहत ग़ैर-हिन्दी प्रदेश और निजी विद्यालय किस तरह हिन्दी को अपनाते हैं यह समय के साथ पता चलेगा।
अँगरेज़ी की ज़ंजीरों में जकड़े हुए हम भारतीयों को न जाने कब और कैसे इससे आज़ादी मिलेगी।
बहुत अफ़सोस होता है जब अपने ही देश में हिन्दी और हिन्दी-भाषियों का अपमान होते देखती हूँ। आख़िर हिन्दी को उचित सम्मान व स्थान कब मिलेगा? कब हिन्दी हमारे देश की राष्ट्रभाषा बनेगी? क्या हम यों ही हर साल एक पखवारा हिन्दी दिवस के नाम करके अँगरेज़ी का गीत गाते रहेंगे? जिस तरह हमारे देश में अँगरेज़ों ने हमपर अँगरेज़ी थोप दिया और पूरा देश अँगरेज़ी का गुणगान करने लगा,
क्या उसी तरह हमारी सरकार नीतिगत रूप से हिन्दी को पूरे देश के लिए अनिवार्य नहीं कर सकती? लोग अपनी-अपनी मातृभाषा बोलें; साथ ही हमारी राष्ट्रभाषा को जानें, सीखें, समझें और बोलें।
हिन्दी दिवस की शुभकामनाएँ!
- जेन्नी शबनम (14.9.2020)
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