''हमें चाहिए आज़ादी!'', ''हम लेकर रहेंगे आज़ादी!'' किसे नहीं चाहिए आज़ादी। हम सभी को चाहिए आज़ादी। सोचने की आज़ादी, बोलने की आज़ादी, विचार की आज़ादी, प्रथाओं से आज़ादी, परम्पराओं से आज़ादी, मान्यताओं से आज़ादी, काम में आज़ादी, हँसने की आज़ादी, रोने की आज़ादी, प्रेम करने के आज़ादी, जीने की आज़ादी, स्त्री के तौर पर जन्म लेने की आज़ादी।
कभी-कभी मेरे दिमाग़ की नसें कुलबुलाती हैं, ढेरों विचार छलाँग मारते हैं, ज़ेहन में अजीब-अजीब से ख़याल आते हैं, साँसें घुटती हैं, लफ़्ज़ों की पाबन्दी उफ़ान मारती है। अघोषित नियमों की पहरेदारी में अस्तित्व मिट रहा है।सपने मर रहे हैं। आक्रोश, उन्माद और अवसाद एक साथ घेरे हुए है। कभी-कभी सोचती हूँ कहीं ये पागलपन तो नहीं, पर बाह्य नहीं यह अंतस् में व्याप्त है। निःसंदेह चेतनाशून्य हो जाने का मन होता है। अवचेतन मन पर जो भी प्रभाव हो, पर व्यक्त रूप से प्रभाव नहीं पड़ने देना होगा। हर हाल में हमें स्वयं पर नियंत्रण रखना ही होगा। हमारी मान्यताएँ और मर्यादा इसकी अनुमति नहीं देती है।
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की शुरुआत के 109 साल हो रहे हैं। हर वर्ष 8 मार्च को महिला दिवस स्त्रियों की उपलब्धि और सम्मान के लिए दुनिया भर में न सिर्फ़ महिलाएँ, बल्कि पुरुष भी मनाते हैं। परन्तु यह दिन महज़ अब एक ऐसा दिन बनकर रह गया है, जब सरकारी और ग़ैर सरकारी संगठन स्त्रियों के पक्ष में कुछ बातें कहेंगे, कुछ नई योजनायें बनाई जाएँगी, विचार-विमर्श होंगे और फिर ''दुनिया की महिलाएँ एक हों'' के उद्घोष के साथ 8 मार्च के दिन की समाप्ति हो जाएगी। फिर वही आम दिन की तरह कहीं किसी स्त्री का बलात्कार, किसी का दहेज उत्पीड़न, किसी का जबरन विवाह, कहीं कन्या भ्रूण-हत्या, कहीं एसिड से जलाया जाएगा तो कहीं परम्परा के नाम पर स्त्री बलि चढ़ेगी।
महिला दिवस मनाने का अब मेरा मन नहीं होता है। न उल्लास, न उमंग।सब कुछ यांत्रिक-सा लगने लगा है। टी.वी. और अख़बार द्वारा महिला दिवस के आयोजन को देखकर मुझे यों महसूस होता है जैसे हम स्त्रियों का मखौल उड़ाया जा रहा है। बड़े-बड़े बैनर और पोस्टर, जहाँ स्त्रियों की शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए जैसे बीज-मंत्र लिख दिया गया हो। प्रचार पढ़ो, देखो और फिर मान लो कि स्त्रियों की स्थिति सुधर गई है। बाज़ारीकरण का स्पष्ट असर दिखता है इस दिन। कपड़े, आभूषण इत्यादि पर छूट! तरह-तरह के प्रलोभन! न कुछ बदला है, न बदलेगा! ढाक के वही तीन पात!
सही मायने में अब तक स्त्रियों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है; भले हम स्त्री सशक्तीकरण की कितनी ही बातें करें। स्त्री-शिक्षा और उसके अस्तित्व को बचाने के लिए ढेरों सरकारी योजनाएँ बनीं। सरकारी और ग़ैर-सरकारी संगठन के तमाम दावों के बावजूद स्त्रियों की स्थिति शोचनीय बनी हुई है। हालात बदतर होते जा रहे हैं। महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार की परियोजनाएँ फाइलों में ही खुलती और बंद होती हैं। ग्रामीण और निम्न वर्गीय महिलाओं की स्थिति में महज़ इतना ही सुधार हुआ है कि उनके हाथों में झाड़ू और हँसुआ के साथ मोबाइल भी आ गया है। निःसन्देह मोबाइल को प्रगति का पैमाना नहीं माना जा सकता है।
सामजिक मूल्यों के ह्रास का असर स्त्री के शारीरिक शोषण के रूप में और भी विकराल रूप में उभरकर सामने आया है। शारीरिक अत्याचार दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। मेरा अनुमान है कि 99% महिलाएँ कभी-न-कभी शारीरिक शोषण का शिकार हुई हैं। चाहे वह बचपन में हो या उम्र के किसी भी पड़ाव पर। घर, स्कूल, कॉलेज, कार्यालय, अस्पताल, बाज़ार, सड़क, बस, ट्रेन, मन्दिर, कहीं भी स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं हैं। शोषण करने वाला कोई भी पुरुष हो सकता है। उसका अपना सगा, रिश्तेदार, पति, पिता, दोस्त, पड़ोसी, परिचित, अपरिचित, सहकर्मी, सहयात्री, शिक्षक, धर्मगुरु इत्यादि।
परतंत्रता को आजीवन झेलना स्त्री के जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है।स्त्री को त्याग और ममता की देवी कहकर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया जाता है, ताकि वह सहनशील बनी रहकर अत्याचार सहन करती रहे और अगर न कर पाए तो आत्मग्लानि में जिए कि स्त्री के लिए निर्धारित मर्यादा का पालन वह नहीं कर पाई। यह एक तरह की साज़िश है, जो स्त्री के ख़िलाफ़ रची गई है। स्त्री को अपेक्षित कर्त्तव्यों के पालन के लिए मानसिक रूप से विवश किया जाता है। स्त्रियाँ अपना कर्त्तव्य निभाते-निभाते और मर्यादाओं का पालन करते-करते दम तोड़ देती हैं; लेकिन मनचाहा जीवन आजीवन जी नहीं पाती हैं।
समाज का निर्माण कदापि मुमकिन नहीं, अगर स्त्री को समाज से विलग या वंचित कर दिया जाए। इसका तात्पर्य यह नहीं कि पुरुष की अहमियत नहीं है या पुरुष के ख़िलाफ़ कोई साज़िश है। परन्तु पुरुष के वर्चस्व का ख़म्याज़ा न सिर्फ़ स्त्री भुगतती है, बल्कि पूरा समाज भुगतता है। मानवता धीरे-धीरे मर रही है। असंतोष, आक्रोश और संवेदनशून्यता की स्थिति बढ़ती जा रही है। कौन किससे सवाल करे? कौन उन बातों का जवाब दे, जिसे हर कोई सोच रहा है। भरोसा करने का कारण नहीं दिखता; क्योंकि कहीं-न-कहीं हर स्त्री ने चोट खाई है। परिपेक्ष्य चाहे कुछ भी हो, परन्तु सन्देह के घेरे में सदैव स्त्री आती है और आरोपित भी वही होती है। अपनी घुटन, छटपटाहट, पीड़ा, भय, अपमान आदि किससे बाँटे? वह नहीं समझा सकती किसी को कि वह सब अनुचित है, जिससे किसी स्त्री को तौला और परखा जाता है।
ऐसा नहीं कि सदैव स्त्रियाँ सही होती हैं और हर पुरुष ग़लत। अक्सर देखा है कि जहाँ पुरुष कमज़ोर है या स्त्री के सामने झुक जाता है, वहाँ स्त्रियाँ इसका फ़ायदा उठाती हैं; वैसे ही जैसे स्त्री की कमज़ोरी का फ़ायदा पुरुष उठाता है। स्त्रियों के अधिकार की रक्षा के लिए बहुत सारे कानून बने हैं और इन कानूनों का नाज़ायज़ फ़ायदा ऐसी स्त्रियाँ उठाती हैं। मेरे विचार से ऐसी महिलाएँ मानसिक रूप से कुण्ठा की शिकार हैं। अमूमन जब किसी को पावर (शक्ति) मिल जाता है, तो वह अभिमानी और निरंकुश हो जाता है। इसी कारण कुछ महिलाएँ जिन्हें पावर मिल जाता है, वे पुरुषों को प्रताड़ित करने लगती हैं। अधिकांशतः पति और अधीनस्थ कर्मचारी महिलाओं द्वारा प्रताड़ित किए जाते हैं। इसलिए मेरे विचार से मुद्दा स्त्री-पुरुष का नहीं बल्कि शक्ति और सामर्थ्य का है।
आखिर क्यों नहीं स्त्री-पुरुष एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करते हैं और एक दूसरे को बराबर समझते हैं। ताकि कोई किसी से न कमतर हो न कोई किसी के अधीन रहे। ऐसे में हर दिन महिला दिवस होगा और हर दिन पुरुष दिवस भी मनाया जाएगा।
- जेन्नी शबनम (8.3.2018)
(अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस)
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