Thursday, August 26, 2010

11. आज की ताज़ा ख़बर

रोज़ की तरह आज भी बहुत ही अनमने मन से अख़बार पढ़ने बैठी एक सरसरी नज़र से सब देख गई, नया कुछ तो होता नहींहर दिन अख़बार में एक-सी ख़बर - अमुक जगह ये घटना, वहाँ ये दुर्घटना, किसी की हत्या हुई, किसी ने आत्महत्या की, कहीं शहर बंद के दौरान कितनी संपत्ति नष्ट की गई तो विरोध में कितनी जानें गईं और जानें ली गईं, कहीं छात्र ने ख़ुदकुशी की तो कहीं छात्र के पास हथियार बरामद, प्रेम विवाह करने पर नव विवाहित की हत्या तो कहीं पुत्री का विवाह न कर पाने की वज़ह से पिता ने की आत्महत्या, भूख से मृत्यु तो कहीं शराब के सेवन से मृत्यु, अवैध सम्बन्धों से आहत पति ने पत्नी का ख़ून किया तो कहीं पत्नी ने अपने प्रेमी के साथ मिलकर पति का क़त्ल किया, कहीं बलात्कार हुआ तो किसी ने दहेज के लिए अपनी पत्नी को जलाकर मार दिया, लावारिश जन्मजात कन्या कचरे पर पाई गई तो कहीं पुत्र के लिए पुत्री की बलि चढ़ाई गई, सड़क दुर्घटना में मौत तो अस्पताल में असंवेदनशीलता से मौत, सरकार की असफलता की कहानी तो कभी किसी प्रांत के असफल सरकार की बयान-बाज़ी, सत्ता का खेल तो विपक्षी पार्टियों का दोषारोपण, कहीं बारिश न होने से सूखे की आपदा तो कहीं बाढ़ से त्राहि अजब ख़बर अजब तमाशा! अब क्या-क्या गिनाएँ?  
 
रोज़ यह सब पढ़-पढ़कर, अख़बार पढ़ने से मेरा मन उचट गया है लेकिन आदत है कि बिना एक नज़र डाले रहा भी नहीं जाता, भले रात के 12 बज जाएँ घर में 4 अख़बार आता है, सबमें वही ख़बर फिर भी आदत से पढ़ती हूँ मन से नहीं और रोज़ खिन्न मन से कहती हूँ कि आज से न पढूँगी और फिर दूसरे दिन...अख़बार...ख़बर...उचाट मन  
 
दूरदर्शन पर बेतुका सीरियल जिसका आम जीवन से कोई मतलब नहींसमाचार भी ऐसा कि सुबह से शाम तक एक ही ख़बर बार-बार, जिससे आम जनता को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ताअपनी जनता को दिखाने के लिए संसद में सांसदों का चिल्लाना या फिर नाटकबाज़ी किसी बड़े नेता या अभिनेता की शादी या बीमारी का ज़िक्र देश की सबसे बड़ी ख़बर बन जाती है कोई-कोई कार्यक्रम ऐसा कि ख़ौफ़ के बारे में बताने वाला ख़ुद ही ख़ौफ़नाक लगता है प्रतयोगिता वाला कार्यक्रम जिसमें एक को विजयी होना है और अन्य को पराजित विद्यालय में अगर बच्चा अपने वर्ग में एक स्थान नीचे आ जाता है, तो न सिर्फ़ बच्चा बल्कि उसके माता-पिता भी सहन नहीं कर सकते, और यहाँ तो सार्वजनिक रूप से उसकी पराजय दिखाई जाती है, जो एक साथ करोड़ों लोग देखते हैं पराजित होने वाले की मनोदशा कैसी होती होगी उस समय उफ़! अच्छा नहीं लगता मुझे कि कोई हारे या कोई जीते, महज़ मनोरंजन हो तो कोई बात है छोड़ दिया मैंने दूरदर्शन का भी दर्शन करना  
 
समस्याएँ तो हम सभी गिना देते, लिख देते और दिखा देते; लेकिन इससे नज़ात पाने के लिए चिन्तन और सुझाव किसी के पास नहीं होता है। आख़िर देश और समाज में ऐसा क्यों हो रहा है? हमारी असंतुष्टि और असहनशीलता की कुछ तो वज़ह है सभी बदहाल हैं फिर भी किसी तरह निबाह रहे, हर परिस्थिति में मन मारकर जी रहे शायद समझौतों में जीने की आदत पड़ चुकी है या नई उम्मीद की किरण अस्त हो चुकी है। ख़तरे और जोख़िम के लिए हम में से कोई राज़ी नहीं, बने बनाए नियम पर चलने में सुविधा होती है समूह के साथ चलने की आदत पड़ चुकी है हमें या हम उस भीड़ का हिस्सा बनते हैं जिसका मक़सद नव-निर्माण नहीं बल्कि सिर्फ़ विध्वंश है  
 
कभी-कभी सुखद बदलाव की गुंजाइश दिख जाती है, जब ताज़ा खबर में पाती हूँ कि किसी दुर्गम स्थान पर कोई सार्थक कार्य हो रहा है, ग्रामीण अंचल या फिर पिछड़े इलाके तक पहुँचकर कोई उनके लिए कुछ सोच रहा है रोज़ इसी उम्मीद के साथ ताज़ा ख़बर पढ़ती हूँ कि शायद आज कोई सरोकार से जुड़ी ख़बर पढ़ने को मिले; मगर ऐसा होता नहीं लेकिन यह तय है कि मेरी अख़बार पढ़ने की न आदत छूटेगी, न ताज़ा ख़बरों में कोई माक़ूल ख़बर होगी

- जेन्नी शबनम (26.8.2010)
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Friday, August 6, 2010

10. टूटता भरोसा बिखरता इंसान

मैंने कहीं पढ़ा ''जैसे ही हम भरोसा करना छोड़ देते हैं, वैसे ही हम ख़ुद को भीतर से बंद कर लेते हैं और अकेलेपन की कंदरा में खो जाते हैं हम प्यार कम करते हैं और डरते ज़्यादा हैं''  
 
सच है, इंसानी रिश्तों का मनोविज्ञान बिल्कुल बदल चुका है आज हर रिश्ते असंवेदी हो चुके हैं, हम किसी पर यक़ीन नहीं करते ''मुँह में राम बग़ल में छुरी'' वाली कहावत चरितार्थ होती दिखती है कब कौन किसका भरोसा तोड़ दे, कब कौन किसे सरे-आम लूट ले, दोस्त बनकर कौन दग़ा दे जाए, रिश्ते की ओट में कब कौन रिश्ता नापाक कर जाए आज हम किसी पर भरोसा नहीं करते, न हमपर कोई भरोसा करता है ख़ून का रिश्ता हो या धर्म का नाता, सब छिन्न-भिन्न हो चुका है सच है, अजब हो गया सब नाता है, नहीं यहाँ अब कोई अपना, बन गया सब पराया है  
 
ऐसा नहीं है कि भरोसा टूटने की कोई एक वज़ह है या फिर अन्य ग़लत बातों की तरह तपाक से कह दिया जाए कि पश्चिमी संस्कृति का कुपरिणाम है आज हर ग़लत परिणति को विदेशी संस्कृति के प्रभाव का परिणाम कह देने का चलन फ़ैशन बन चुका है एक तरफ़ तो शिक्षा, विकास और प्रगति के लिए वैश्वीकरण की बात की जाती है, वहीं दूसरी तरफ़ हम अपने-आप में सिमटते जा रहे हैं जब कोई बात हाथ से बाहर हो जाए, तो दोष किसी और पर मढ़ देना ये हमारी पुरानी परम्परा है; चाहे आम घरेलू जीवन की बात हो या शासन-सत्ता की बात  
 
व्यक्ति, समाज और देश एक दूसरे से अंतर्सम्बंधित हैं अगर समाज ऐसा बन चुका है जहाँ हम भरोसा करना छोड़ चुके हैं, तो दोषी कौन है? कोई ख़ास समाज, सरकार या समूह दोषी नहीं है; बल्कि समस्त मानवता ज़िम्मेदार है महत्वाकांक्षाएँ इतनी बढ़ चुकी हैं कि लोग रिश्तों को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल कर ऊपर चढ़ते हैं, और जब कहीं पहुँच जाएँ फिर उन्हीं रिश्तों को रौंद डालते हैं रिश्तों को ताक पर रखकर कोई भी कुकर्म कर जाते हैं किसी पर कोई कैसे यक़ीन करे?  
 
रिश्तों की अहमियत खो चुकी है, चाहे बच्चों से हो या माता-पिता से, सगे-सम्बन्धी से हो या दोस्त से, या पड़ोसी से पति-पत्नी में तो आत्मिक रिश्ता कभी दिखता ही नहीं, मन में कड़वाहट भरी होती है; लेकिन ऊपरी प्रेम में कमी नहीं दिखती वह पुरुष जो दहेज लेकर सामान की तरह देख-परखकर विवाह करेगा, उसे कैसे कोई स्त्री प्रेम कर सकती है? दहेज के लिए या सिर्फ़ बेटी जन्म देने के कारण विवाह के कई साल बाद भी स्त्री को मार दिया जाता है जन्मजात कन्या से लेकर मृत्यु के द्वार पर खड़ी औरत असुरक्षित होती है नहीं मालूम कब वह शारीरिक शोषण का शिकार हो जाए ये भरोसा स्त्री का उसके अपने ही घर में अपने ही नज़दीकी रिश्तों द्वारा तोड़ा जाता है ऐसा नहीं कि शारीरिक शोषण की शिकार सिर्फ़ स्त्री होती है, बल्कि छोटे लड़के भी कई बार इसके शिकार हो जाते हैं। परन्तु ऐसे मामलों में बात आगे नहीं बढ़ती; क्योंकि लड़के (पुरुष) बच्चे पैदा नहीं कर सकते इस प्राकृतिक शारीरिक संरचना के कारण स्त्री आजीवन इस भय में जीती रहती है, लेकिन पुरुष नहीं  
 
प्रेमी-प्रेमिकाओं के तार भी मन से और आत्मा की गहराइयों से जुड़े नहीं होते, वैसे में प्रेम महज़ प्रदर्शन का ज़रिया बन जाता है अगर ऐसा नहीं होता तो कैसे कोई प्रेमी या प्रेमिका जिसने इतने भरोसे से रिश्ता जोड़ा हो, उससे बदला ले लेता है अक्सर सुनने में आता है कि विवाह के लिए राज़ी न होने पर लड़की को उसके प्रेमी ने एसिड से जला दिया या धोखे से हत्या कर दी, या प्रेम जाल में फँसाकर लम्बे समय तक उसका शारीरिक शोषण करता रहा और बाद में उसे या तो बेच दिया या उसका नाजायज़ इस्तेमाल करता रहा प्रेम में पड़ जाने वाली उस लड़की ने भी तो भरोसा ही किया होगा अगर कोई प्रेमी विवाह कर भी ले, तो मानो बड़ा एहसान कर रहा हो। प्रेम विवाह, फिर भी दहेज चाहिए कैसे कोई स्त्री ऐसे पुरुष को प्रेम करे या उस पर भरोसा करे?  
 
जीवन में एक बार भी भरोसा टूटता है, तो आजीवन किसी पर भी भरोसा नहीं हो पाता है शक और सन्देह के कारण हम ख़ुद में सिकुड़ते चले जाते हैं; क्योंकि ख़ुद के बाहर की दुनिया में सभी अविश्वश्नीय दिखने लगते हैं मन में यह डर बैठ जाता है कि कहीं एक और धोखा न मिल जाए या कोई और भरोसा न तोड़ जाएये डर न तो सहज जीवन जीने देता है और न खुलकर जीने देता है प्रेम, दोस्ती, रिश्ते सबको सन्देह की नज़र से देखने लगते हैं और इतने सिमट जाते हैं कि ख़ुद पर यक़ीन नहीं रह जाता कि वह क्या करे कि धोखा न मिले, और शायद भरोसा ख़ुद पर से भी उठ जाता है आत्मविश्वास के साथ ही इंसानी रिश्तों से भरोसा ख़त्म हो जाता है  
 
- जेन्नी शबनम (5.8.2010)
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