पापा |
पापा और आचार्य विनोबा भावे |
आज पापा के लिए मन बहुत उदास है। उनको गुज़रे हुए आज 32 साल साल हो गए। फिर भी यादों में, बातों में, जीवन के हर
क्षण में उनकी कमी और ज़रूरत महसूस होती है। जानती हूँ, मेरी उम्र और वक़्त
का वह सभी पल बीत चुका है, जब उनकी निहायत ज़रूरत थी; क्योंकि अब हम सभी
को उनके बिना जीने की आदत पड़ चुकी है और ज़िन्दगी का बहुत लम्बा सफ़र हम उनके
बिना तय कर चुके हैं। यों तो शाश्वत नियम है जन्म लेना और मृत्यु को
प्राप्त करना, लेकिन असमय मृत्यु असह्य होती है।
मेरे पिता प्रोफ़ेसर डा. कृष्ण मोहन प्रसाद का लम्बी बीमारी के बाद असामयिक निधन हुआ था। आज के दिन 17.7.1978 की काली रात कहें या 18.7.1978 का भोर, 1 बजकर 45 मिनट पर पापा हम सभी से बहुत दूर चले गए। भागलपुर विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र विभाग में शिक्षक मेरे पिता गांधी के सिद्धांतों और विचारों से काफ़ी गहराई से जुड़े रहे। इस विषय पर उनके व्याख्यान इतने सहज ग्राह्य होते थे कि उनके छात्र लगातार घंटों उनको सुनना चाहते थे। गांधीवाद और मार्क्सवाद पर व्याख्यान देने के लिए उन्हें कई संस्थाओं द्वारा बुलाया जाता था।
मुझे याद है मृत्यु से पूर्व एक सप्ताह तक अस्पताल में वे अचेत रहे। पहले जॉन्डिस (पीलिया) बाद में उन्हें लीवर सिरोसिस हो गया। एक साल तक वे बीमार रहे, लेकिन जिस दिन अचेत हुए उस दिन तक वे साइकिल से विश्वविद्यालय जाते रहे; जबकि डाक्टर ने उन्हें पूर्ण आराम (बेड रेस्ट) करने को कहा था। विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर डा. हरिद्वार राय ने कहा कि कुछ दिनों की छुट्टी ले लें, परन्तु उन्हें ख़ुद से ज़्यादा अपने छात्रों की चिन्ता थी। उन्हें शायद यह मालूम हो गया था कि उनकी ज़िन्दगी अब ख़त्म होने वाली है, अतः उनके अधीन जो छात्र शोध-कार्य कर रहे थे उनको सारी रात बिठाकर वे पढ़ाते और उनके कार्य में संशोधन करते थे।
अपने छात्रों के बीच वे बहुत लोकप्रिय थे, क्योंकि वे जो पढ़ाते या कहते थे, वैसे ही जीते थे। विचार और व्यवाहार में समानता के कारण एक आदर्श शिक्षक और व्यक्ति के रूप में उन्हें प्रतिष्ठा मिलती थी। मुझे याद है जब वे अचेत होकर अस्पताल में भर्ती हुए, उनके छात्रों ने दो-दो घन्टे के अन्तराल पर अपना-अपना समय तय कर वहाँ रहना निश्चित किया था; क्योंकि अचेतावस्था में जिस हाथ में पानी (स्लाइन) चढ़ रहा था वे खींच लेते थे, तो उस हाथ को पकड़े रहना होता था। दिन और रात उनके कोई-न-कोई छात्र वहाँ होते थे। शुरू के दो दिन मेरी मम्मी, रिश्ते के एक चाचा और वे छात्र वहाँ थे; दो दिन के बाद मेरी दादी और मेरा भाई भी आ गया, जो गाँव में दादी के पास रहता था। बाद में मेरे मामा और ननिहाल के कुछ रिश्तेदार भी आ गए। हम दोनों भाई-बहन छोटे थे, हमें समझ नहीं आया कि पापा ठीक नहीं होंगे या नहीं लौटेंगे।
जिस रात पापा की मृत्यु हुई, उस रात उनके सभी छात्र मेरी मम्मी के साथ वहाँ मौजूद थे। सुबह जब अपनी मौसी और भैया के साथ मैं अस्पताल गई, तो गेट पर किसी ने मौसी को बता दिया कि पापा नहीं रहे, पर हम भाई-बहन को किसी ने नहीं बताया। पापा के मित्र, जो कभी पापा के छात्र और मम्मी के सहपाठी थे, प्रोफ़ेसर जवाहर पाण्डेय वहीं से मुझे और भैया को अपने घर ले गए, नाश्ता कराया, और ख़ुद अस्पताल चले गए। बाद में हमें अस्पताल लाया गया। रात में जैसे ही पापा की मृत्यु हुई सभी छात्र एकत्रित हो गए और दाह-संस्कार का सारा इंतिज़ाम कर लिया। बड़े से ट्रक में पापा को रखा जा चुका था और उनके सभी छात्र ट्रक में खड़े थे। मुझे तब भी समझ नहीं आया कि पापा की मृत्यु हो चुकी है और उन्हें उस ट्रक में जलाने ले जाया जाएगा, जबकि मैंने उस ट्रक को देखा और तैयारी करते छात्रों को भी; परन्तु किसी ने मुझे पापा को नहीं दिखाया। अस्पताल से मौसी अपनी गाड़ी से मुझे, मम्मी और दादी को लेकर घर आ गईं। भैया को लेकर वे लोग गंगा के बरारी घाट पर गए, जहाँ दाह-संस्कार व क्रिया-कर्म किया गया। पापा के विचारों के ख़िलाफ़ उनको अग्नि से जलाया गया, जबकि विद्युत से जलाए जाने को वे सदैव उचित कहते थे; मृत्यु के बाद उनकी बात कौन सुनता या मानता।
पापा अपने छात्र जीवन से ही राजनीति से जुड़ गए थे। पापा का जन्म ग्रामीण परिवेष में हुआ, जहाँ धार्मिक मान्यताओं और प्रथा-परम्परा को बहुत महत्व दिया जाता है। बचपन से वे रूढ़िवादी परम्पराओं के विरोधी थे तथा शिक्षा को बहुत महत्व देते थे। अपनी पढ़ाई के लिए उन्हें काफ़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा, क्योंकि वे संयुक्त परिवार से थे। पापा का अपने पिता से बहुत ज़्यादा वैचारिक मतभेद रहा; क्योंकि उनकी सोच, उनकी कार्य-शैली व जीवन-शैली सभी से अलग थी। तीक्ष्ण बुद्धि और अपने प्रखर सोच के कारण वे अपनी पढ़ाई पूरी कर सके। उन्होंने इतिहास और राजनीति शास्त्र में एम.ए., बी.एल., गाँधी-विचार में पी-एच.डी. किया। उनके पी-एच.डी. की मौखिक परीक्षा (viva) में एक बाह्य परीक्षक (external) आचार्य कृपलानी भी थे। जब कृपलानी जी ने गांधी जी के प्रति उनके विचारों को सुना तो अवाक् रह गए और उन्होंने बहुत प्रशंसा की; हालाँकि उनके थीसिस के कुछ विचारों से उन्हें आपत्ति थी और दोबारा लिखने को कहा था।
पापा का राजनीतिक जीवन कम उम्र से शुरू हो गया था। वर्ष 1942 के आन्दोलन में वे सक्रिय रहे। अपने एक बड़े भाई के साथ रेल की पटरी उखाड़ने में कामयाब रहे और पकड़े न गए। उनकी विचारधारा उसी समय से सोशलिस्ट पार्टी की तरफ़ बढ़ गई थी। बाद में उनका रुझान वामपंथ की ओर हो गया और वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में सक्रिय कार्यकर्ता हो गए। एक आम भारतीय परम्परावादी परिवार में जन्म लेने के बाद भी वे नास्तिक थे; उनकी ये नास्तिकता उनके अपने सोच से थी, न कि किसी को देखकर विचार बने या बदले थे। वे हर उस अंधविश्वास और ग़लत रूढ़ियों के ख़िलाफ़ थे जिससे प्रगति में बाधा हो। जाति-प्रथा, पर्दा-प्रथा, या किसी भी धार्मिक क्रिया-कलाप के विरोधी थे। यहाँ तक की अपनी शादी में खादी का धोती-कुर्ता पहनकर गए और एक रुपया भी लेने से इंकार कर दिया। वे इसी शर्त पर शादी करने को राज़ी हुए थे कि मम्मी अपनी पढ़ाई जारी रखेंगी।
साम्यवादी, गांधीवादी, नास्तिक और शिक्षक होने के साथ वे प्राकृतिक चिकित्सा में विश्वास रखते थे और शुद्ध शाकाहारी थे। अपने सभी सिद्धांत जो वे कहते थे या अपने भाषण में बोलते थे, पहले ख़ुद पर प्रयोग कर चुके होते थे। मुझे याद है कि पापा के विचारों से प्रभावित होकर कई लोगों ने सिर्फ़ एक बच्चे में परिवार नियोजन करा लिया था। गाँव में अपनी ज़मीन पर उन्होंने एक प्राथमिक विद्यालय खोला, जो बाद में सरकारी हो गया। उस विद्यालय में पापा का नाम कहीं नहीं है; क्योंकि गाँव के महाजन ने पापा के द्वारा दान की गई विद्यालय की ज़मीन की अदला-बदली कर अपने नाम करा ली और विद्यालय को वहाँ से उठाकर अपने परिसर में ले गए, जहाँ मैं भी कुछ दिन पढ़ी हूँ। पापा की मृत्यु के बाद वह विद्यालय पुनः उसी ज़मीन पर बना जिसे मेरे पापा ने दान किया था, लेकिन अब वह ज़मीन महाजन की चालाकी से महाजन के नाम है। विद्यालय में जाने का रास्ता अब भी हमारे ज़मीन से होकर ही है। पापा ने एक पुस्तकालय भी खोला, जो बाद में बंद हो गया।
मैं तब बहुत छोटी थी जब गाँव में बिजली नहीं आई थी। मैं पापा के साथ सीतामढ़ी गई, जो उस समय मेरे गाँव का ज़िला हुआ करता था, वहाँ से बिजली विभाग में आवेदन देकर बहुत दौड़-धूप करके बिजली का पोल लेकर हम गाँव आए और फिर पूरे गाँव में बिजली आई।
अपने गाँव और आस-पास के इलाक़ों में वे 'कन्हैया जी' के नाम से मशहूर थे। ख़ुद खादी पहनते और मम्मी को भी खादी पहनने को कहते थे। ज़रूरत से ज़्यादा कोई सामान हमारे घर में नहीं था। फोटो खींचने के वे बहुत शौक़ीन थे और ख़ुद फोटो साफ़ भी करते। किसी से भी निर्धारित समय पर वे मिलते थे, जो छुट्टी का दिन छोड़कर हर दिन शाम को चार से छह का होता था; भले ही कोई रिश्तेदार हो या बहुत बड़े ओहदे वाला व्यक्ति। सिर्फ़ उनके अपने छात्रों के लिए वक़्त की कोई पाबन्दी न थी।
संभवतः उन्हें अपनी बीमारी के ठीक न होने का अनुमान था। मृत्यु से पूर्व वे दिल्ली के एम्स में एक माह भर्ती रहे, तब डाक्टर ने बहुत आश्चर्य किया कि शाकाहारी व्यक्ति जो चाय भी न पीता हो उसे लीवर सिरोसिस कैसे हुआ; बीमारी उस समय अन्तिम स्थिति में थी। हम सभी से अपनी बीमारी या बीमारी की गम्भीरता के बारे में वे कोई चर्चा नहीं करते थे। अपनी मृत्यु से पूर्व एक माह के भीतर उन्होंने अपना सारा काम पूरा कर लिया; चाहे अध्यापन-विषय को पूर्ण करना हो या शोधार्थी छात्रों की थीसिस की अन्तिम जाँच हो। परन्तु घर और परिवार का सारा कार्य वे अधूरा छोड़ गए। उस समय मैं 8वीं की छात्रा थी और भैया 10वीं का। एक महत्वपूर्ण काम उन्होंने हमारे लिए किया था, जो उनके बाद हमारे जीने में मददगार हुआ, वह था मेरी मम्मी का स्कूल में शिक्षिका होना तथा सामजिक कार्यों में आगे बढ़ाना।जब पापा की शादी हुई मम्मी बी.ए. में पढ़ती थीं। शादी के बाद मम्मी ने एम.ए., बी.एल., बी.एड. किया। पापा की मृत्यु के काफ़ी सालों बाद मम्मी ने एम.एड. किया।
'गांधी शान्ति प्रतिष्ठान केन्द्र' भागलपुर शाखा को पापा ने वर्ष 1967 में शुरू किया, जिसकी फाउंडर सेक्रेटरी (चीफ़ वर्कर) मेरी माँ श्रीमती प्रतिभा सिन्हा थीं। बाद में मम्मी स्कूल में शिक्षिका बनी, साथ-साथ समाज सेवा में सक्रिय रहीं। मम्मी 1974 में शिक्षिका बनी, 1988 में इन्टर स्कूल की प्राचार्य बनी और एक साल पूर्व अवकाश प्राप्त हुई हैं।
अपनी मृत्यु से कुछ पहले पापा ने अपने थीसिस को पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने के लिए किसी प्रकाशक को दिया था। पुस्तक प्रकाशन से सम्बन्धित सारी बातें हो गईं, प्रूफ-रीडिंग कर चुके थे; परन्तु किताब छप न सकी, उनकी मृत्यु हो गई। मेरे पापा के मित्र प्रोफ़ेसर डा. रामजी सिंह, जो सांसद भी रह चुके हैं, ने पापा की पुस्तक किसी दूसरे प्रकाशक से प्रकाशित करवाई। उन्होंने किताब का शीर्षक बदलकर 'सर्वोदया ऑफ गांधी' कर दिया। यों किताब तो छप गई, पर न आज तक रॉयल्टी मिली न किताब के और छपने की जानकारी।
पापा ने हम दोनों भाई-बहन को पढने के लिए गाँव भेज दिया था। दो साल बाद मैं वापस भागलपुर आ गई, भैया वहीं रह गया। पापा का मानना था कि गाँव में रहकर भी अच्छी शिक्षा ली जा सकती है। पापा की मृत्यु के बाद भाई को मम्मी वापस भगलपुर ले आईं। मेरा भाई पढ़ाई में काफी तेज़ था, तो गाँव से उसके शिक्षक आकर उसे वापस ले गए कि वह गाँव में पढ़ेगा; यह वही स्कूल है जिसमें मेरे पिता भी पढ़े थे। मेरे पापा की सोच सही साबित हुई। मेरा भाई गाँव से मैट्रिक करने के बाद पटना साइंस कॉलेज से आई.एस.सी. फिर आई.आई.टी. कानपुर से एम.एस.सी. और छात्रवृति पाकर आगे की पढ़ाई करने ओहिओ स्टेट यूनिवर्सिटी, अमेरिका चला गया।
पुरुष के बिना जीना समाज में कितना मुश्किल होता है, उस समय यह अनुमान न था। जब पापा की मृत्यु हुई मेरी मम्मी मात्र 33 वर्ष की थीं। सामजिक, मानसिक, आर्थिक और पारिवारिक परेशानी को झेलते हुए मम्मी को मैं देखती रही। उस समय मुझे कुछ समझ नहीं आता था, शायद यह उस ज़माने का फ़र्क़ था। जबकि आज के बच्चे 10-12 साल में ही बहुत समझदार हो जाते हैं।
यों मेरी दादी, मम्मी के सहकर्मी और मेरे ननिहाल के सभी लोग बहुत सहयोगी रहे हैं। पापा के सभी मित्र, चाहे राजनीतिक जीवन से जुड़े हों या सामाजिक, सभी ने सदैव हमारा साथ दिया। हर वह वक़्त जब मम्मी का सामाजिक बहिष्कार होता, किसी शुभ व धार्मिक आयोजन से मम्मी को दूर कर दिया जाता, या कोई बेचारी समझ हम पर तरस खाता, तो पापा की हर बार बहुत याद आती थी। अब भी जब किसी बात से मन दुःखी होता है, पापा ही याद आते हैं। हर बार पापा से सवाल करती हूँ ''क्यों गए तुम? जाना ही था, तो कम-से-कम थोड़ा रुककर हमारे होश आने तक ठहर जाते। बहुत सी बातें हैं पापा, जो सिर्फ़ तुमसे ही कह सकती या सिर्फ़ तुम ही कर सकते, फिर... पापा, बताओ किससे कहें?''
32 साल बीत गए पर कभी-कभी लगता है जैसे अभी-अभी की तो बात है, तुम यूनिवर्सिटी से साइकिल से लौटोगे और साथ में अमरूद, गाजर और पेड़ा लाओगे और पुकारोगे- जेन्नी...!
-जेन्नी शबनम (18.7.2010)
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पापा को याद करके अपनी बात उन तक पहुंचा दें, वे सुन लेंगे ....
ReplyDeleteआपके पिताजी के बारे में जानकार मन बहुत उदास हुआ यूँ तो सभी जाते है पर वक़्त से पहले जाने का सब्र नहीं किया जाता ,शायद ऊपर भी अच्छे इंसानों की बहुत कमी है इसलिए अक्सर आदर्श इंसान बहुत ज्यादा वक़्त हमारे साथ नहीं रह पाते. आपके पिताजी के विचार समाज के पथ प्रदर्शक और आदर्श रहेंगे हमेशा और महापुरुष विचारों से ही अमर होते है .
ReplyDeleteIshwar unki atma ko punarjanm na de..
ReplyDeleteआई,
ReplyDeleteआपकी भावनाओं के समक्ष नत-मस्तक हैं, स्नेह ओर श्रद्धा शब्दों मैं बयां नहीं कि जा सकती, लेख भले ही बहुत कुछ कह गया हो लेकिन बहुत कुछ अनकहा ऐसा भी है जो सिहर उठने पर विवश करता है,
रुला दिया आपने ! इंस्पायर भी किया! संघर्ष कई तरह के होते हैं.. पिता के बिना जीवन भी ए़क संघर्ष है... आप आज जिस मुकाम पर हैं.. आपके पिताजी ने उसकी नीव रखी थी.. आज वे आप लोगों को देख बहुत खुश होंगे.. हमारी श्रधांजलि !
ReplyDeleteशब्द कहाँ से लाऊँ जो भाव को सहारा दें
ReplyDeleteमैं खुद नही जनता क्या कहना है मुझ को
आज आप के पिता को ही नही आप को भी बेहतर
तरीके से पढ़ने का अवसर मिला
आप की भावनाओं को नमन है
और पिता जी के लिए फूल नही हैं मेरे पास
आँखों में पानी है
वो शिव को नही मानते थे पर मैं उन्हे शिव कह के जल चढ़ा लूं?
और कुछ नही कहना मुझे
जेन्नी जी क्या कहूं !? बस यही कहूंगा कि इस पोस्ट का लिंक भेजने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया। इसे पढ़ना बहुत ज़रुरी था।
ReplyDeleteआपकी भावनाओं के समक्ष नत-मस्तक हैं
ReplyDeletebahut pyar aur touchy chitr kheencha he
ReplyDeleteaapne apne papa ko lekar
regarding mem
ReplyDeletenamaskar !
kya kahu aap ne ek muddat ke baad link diya aur bhi itna bhavuk kar diya . aap ki abhivyakti ke baarne kya kahu ..... saalam .
saadar
Jenny jee, aapke papa ko apne antarman se bahut bahut naman!!
ReplyDeleteaapke post se aapka papa ke prati jo agaadh pyar dikhta hai, usko bhi shraddhay naman karta hoon......!!
bhagwan aise papa-putri ki jodi ko kyon grahan laga deta hai...jo 32 varsho baad bhi yaad rakhna pade....!!
lekin koi, nahi, jindagi to aise hi chalti hai...jenny jee, har kuchh apne mann se nahi hasil ho pata........!!
waise ek baat aur, jiske karan main judao mahsus kar raha hoon, aapke papa jis Bhagalpur universtiy ke professor the, main bhi wahan ka hi student raha hoon, beshak, Science student tha, aur aapke papa ke mrityu ke bahut dino baad,1986-88 I.Sc. aur 1988-91 B.Sc.(maths) ki padhai maine Deoghar College se ki, jo Bhagalpur university ke andar aata tha...!!
God Bless you......:)
जैनी जी ! आप जानती हैं इस तरह की पोस्ट मैं पढ़ ही नहीं पाती हूँ ..पर इतना प्रभावशाली व्यक्तित्व उभारा है आपने पिता जी का कि भरी आखों से पूरा पढ़ा ..पर फिर भी आखिरी पंक्तियाँ नहीं पढ़ पाई .
ReplyDeleteऐसे सशक्त व्यक्ति की पुत्री हैं आप ..उन्हें भी आप पर आज बहुत गर्व होगा ..
जाने क्यों बहुत सी बातें अपने पापा से मिलती हुई भी लगी मुझे.
उस शक्शियत को मेरा नमन.
आपके पिताजी प्रोफ़ेसर डा.कृष्ण मोहन प्रसाद जी को
ReplyDeleteउनकी पुण्यतिथि पर भावभीनी श्रद्धांजलि - आभार
aap ki sadhi hui kalam aur apne papa ke jiwan charitr par likha gya lekh bhav poorn hai. har beti ka apne papa mummi ke prati vishes bhav aur srdha ke sath ek atoot sambandh hota hai.kisi bhi bachche ka apne mata pita ke prati prem aur srdha tab aur badh jati hai jab us ke mata-pita ka samaj men koi khas aur vishes yuogdaan ho.aap ne unki gatividhiyan dekhi hain aur unke smajwadi vichardhara ka prbhav bhi aap par khoob hai aapne apne bhavon ko racnatmak roop diya hai-sundar hai.aap ne ek jgah par apne papa ki pustak ka jikr kiya hai-sambhav ho to us ki koi prati ho to ,men usy padhna chahoonga.
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति है दी.... पिता और पुत्री के बीच का भावुक सम्बन्ध... और आदर्श छवि...
ReplyDeleteमेरा अभिवादन सादर स्वीकारें....
इतिहास और राजनीति शास्त्र में एम.ए, एल एल.बी, और गांधी-विचार पर पी एच. डी किया| उनके पी.एच.डी की मौखिक परीक्षा ( viva ) में एक बाह्य परीक्षक ( external ) आचार्य कृपलानी भी थे| जब कृपलानी जी ने गांधी जी के प्रति उनके विचारों को सुना तो अवाक रह गए और बहुत प्रशंसा किये|
ReplyDeleteunaki shaikshanik yogyataa se hii
unake vyktitv ka gyaan ho jaataa hain
unakii drdhataa kii aanch se
jenny ke bhitar ek naarii rupii shital aag ne janm liya hain
jisake bhitar josh to hain par ....pita ke prem ko ..unakii chhaaya ko .....vah aag apane ujaale me dhudhatii bhi hain .....!
kishor
Bahen ji....itni achhi shraddhanjali pita ko unke swargwaasi din par ....yeh drishya aur yaad hameshaa hi saath rahenge....samay aur aane-jaane ka kram apne haath main nahin hai....
ReplyDeletejaisa ho vaisa sweekar karnaa paDtaa hai.....
Saath hi vyakti ke karm unko sammaanit sthan dete hain.....
Meri or se us divya Aatmaa ko naman....
कितना सहज और सुन्दर लिखा है आपने ,बेटियां वैसे भी पिता के करीब होती हैं ,कितनी करीब होती हैं ?ये पोस्ट पढ़ कर कोई भी जाना सकता है |
ReplyDeleteJenny di kya kahu....shabd nahi mere pass bass ankho mai pani hai aur dil mai apke liye dher sari dua......aap par aur apke parivar par jo beete hai usay koi nahi samajh sakta.....an hats off to ur mom....unkay charan chune ka maan karta hai.....
ReplyDeleteजेन्नी शबनम जी
ReplyDeleteएक पीढ़ी थी श्रद्धा योग्य ,नमन योग्य !आपके पिता जी उस पीढ़ी के साक्षात् प्रमाण हैं। वह संघर्षरत पीढ़ी थी। मूल्यों के लिए जीना, जीवन- दर्शन को जीवन में उतरना, मात्र अपने लिए ही नहीं समाज के लिए भी जीना।
हमने भी उस पीढ़ी को निकट से देखा और जिया है।
हमने कई बार सोच कि जेन्नी जी इतनी संस्कारवान कैसे हैं ? अब पता चला। आप धन्य हैं। जिनके पिता ऐसे होते हैं उनका आपकी भाँति होना स्वाभाविक है ।
आपने आपने पिता जी के विषय में जितना लिखा है, उससे आँखों के समक्ष उनका गंभीर श्रद्धा-योग्य व्यक्तित्व साकार हो गया है। उनका अभाव पल-पल खटकना स्वाभाविक है। वे प्रकाश-पुंज थे। उनका चला जाना जीवन भर के लिए ऐसा अभाव छोड़ गया होगा जिसे न तो कोई व्यक्ति और न ही कुछ शब्द पूर्ण कर सकते हैं।
जब किसी की बहुत आवश्कता होती तब उसका न होना कितना पीड़ाजनक होता है इसकी अनुभूति हमें है। हमारी अपनी सीमाएँ हैं, मृत्यु के क्रूर हाथों के समक्ष असहाय हैं।
काश आप जैसी बेटियाँ सभी की हों , जो आज भी आपने पिता के साथ इतनी गहनता से सम्बद्ध हैं ।
मन बहुत उदास हो गया है। कुछ दिनों के पश्चात् ही पिता जी की पुण्य-तिथि है।
आपकी माता जी ने जो संघर्ष किए हैं , उन्हें नमन !
--अशोक लव
jenny di...
ReplyDeleteafsos ho raha ki ise itne late se kyun padha.
babu ji to babu ji hote hain di..unka sthan koi nahee le sakata hai. har shabd me jo sneh mujhe dikh raha tha usse mai aapke papa ko mehsus kar rahaa tha. unka wyktitw unke vichar anukarneey hain.
pata nahee kyun mujhe aosa lag raha hai ki padhne k baad mera aatmwishwaas aur badh gaya hai, ek urjaa mehsus kar raha hun apne andar.
bahut bahut shukriya di sajha karane k liye.
पुरुष के बिना जीना समाज में कितना मुश्किल होता है ये अनुमान न था उस समय| जब पापा की मृत्यु हुई मेरी मम्मी मात्र ३२ साल की थी| सामजिक, मानसिक, आर्थिक और साथ हीं पारिवारिक परेशानी को झेलते हुए मम्मी को देखती रही|
ReplyDeleteउस समय मुझे कुछ समझ न आता था, शायद ये उस जमाने का फ़र्क था| जबकि आज के बच्चे १०-१२ साल में हीं बहुत समझदार हो जाते हैं|
यूँ तो मेरी दादी, मम्मी के सभी सहकर्मी और मेरे ननिहाल के सभी लोग बहुत सहयोगी रहे हैं, साथ हीं पापा के सभी मित्र चाहे वो राजनीतिक जीवन से जुड़े हों या सामाजिक, सदैव हमारा साथ दिए|
हर वो वक़्त जब मम्मी का सामाजिक बहिष्कार होता था, किसी शुभ धार्मिक आयोजन से मम्मी को दूर कर दिया जाता था, या कोई बिचारी समझ हमपर तरस खाता था, पापा की हर बार बहुत याद आती थी| अब भी जब मन दुखी होता है किसी भी बात से पापा हीं याद आते हैं|
हर बार पूछती हूँ सवाल पापा से... क्यों गए तुम? या तुम जाते तो कमसे कम थोड़ा रुक कर हमारे होश आने तक ठहर जाते|
बहुत सी बातें हैं जो सिर्फ तुमसे हीं कह सकते, या सिर्फ तुम हीं कर सकते...फिर पापा बताओ किससे कहें?
३२ साल बीत गए पर कभी कभी लगता है जैसे अभी अभी की तो बात है, तुम यूनिवर्सिटी से साइकिल से आओगे और साथ में अमरुद, गाजर और पेड़ा लाओगे और पुकारोगे...जेन्नी...
jab bahut kuchh kehne ko hota he to kha nhi jata ,jab bahut jyada rone ka mn ho to roya nhi jata .....aapke bachpan se lekar kishory awstha tk jo bhi parivarik or samajik halat rhe ..use aapne ba -khoobi sanjoya he ..........gouravsaali itihas he aapke privar ka..our jindgi se ek jung bhi...hr ghtnaa ka balman pr kya prbhaav padta he yeh dayri ke pnne padhne ke baad jana ja sakta he ..aapke pita ji ke adrsh mulyon or maa ji ki jeevt,ta...ko mera shat shat naman prnaam
__ जेन्नी शबनम __ १८.०७.२०१०
जेन्नी बहन इस पोस्ट को पढ़कर पता चला कि आपकी लेखनी हीरे मोती क्यों उगलती है !श्रद्धा पूर्वक नमन ऐसे महापुरुष को जिनकी आप बेटी हैं और उस माँ को भी जिसने कठोर जीवन बिताया ।
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