'वेलेंटाइन डे' का नाम सुनते ही इसके विरोधियों के मन में अश्लीलता और प्रेमी-प्रेमिका की असहज छवि मन में उभरती है। प्रेम में अश्लीलता कब, कैसे और कहाँ से आ गई, इस पर कभी कोई नहीं सोचता। प्रेम जीवन की शाश्वत्ता है, हर युग में इसे स्थान और सम्मान मिला है। हम किसी भी धर्म या मज़हब की बात करें, सभी प्रेम की बात करते हैं। प्रेम के बिना न जीवन सम्भव है न सभ्य समाज; फिर भी प्रेम को लेकर जाने कितनी बहस छिड़ गई है।
प्रेम किसी भी रिश्ते से हो सकता है, किसी से भी हो सकता है, कभी भी हो सकता है, शरीरी और अशरीरी हो सकता है, आध्यात्मिक हो सकता है, इंसान का ईश्वर से हो सकता है। क्यों हम किसी दायरे में रखकर सोचते हैं? शायद प्रेम को किसी रिश्ते से जोड़ने का परिणाम है कि प्रेम की परिभाषा ही नहीं बल्कि भाषा भी बदल गई है। आज प्रेम का रिश्ता अश्लील और ग़ैरसामाजिक माना जाने लगा है। दो इंसान के बीच अगर प्रेम है तो उसे आश्चर्यजनक ढंग से चारित्रिक पतन कहा जाता है, या प्रेम की परिभाषा को शरीर के इर्द-गिर्द ही सीमित कर दिया जाता है।
वेलेंटाइन डे हो या पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित कोई परम्परा, हम सभी पाश्चात्य संस्कृति को दोष दे देते हैं, अपनी ग़लती नहीं समझते। पाश्चात्य संस्कृति से बहुत कुछ हम सीखते हैं, लेकिन उसका रूप बिगाड़ देते हैं और फिर जब स्थिति अपने हाथ से बाहर हो जाती है तब हम उस संस्कृति पर दोष मढ़ देते हैं।
पाश्चात्य संस्कृति में तो प्रेम के लिए मात्र एक दिन माना गया है, जबकि हमारी संस्कृति में सावन का पूरा महीना प्रेम को समर्पित है। किसी भी युग की बात करें, प्रेम जीवन का अहम् हिस्सा रहा है। शिव को पाने के लिए पार्वती और सती ने कठोर तपस्या की। राधा-कृष्ण का प्रेम अमर है। प्रेम की पराकाष्ठा की जब बात होती है, तब कृष्ण और मीरा का नाम लिया जाता है।
फाल्गुन महीने में आने वाले त्योहार होली को रंग के साथ हँसी-ठिठोली का त्योहार भी माना जाता है। यह सिर्फ़ परम्परा ही नहीं; बल्कि हमारी संस्कृति और हमारे ग्रन्थ में है। कृष्ण और गोपियों की हँसी-ठिठोली व रास-लीला उस युग में जायज़ था। आज भी होली के अवसर पर अपनी प्रेमिका या पत्नी को रंग लगाना मन की सबसे बड़ी मुराद होती है।
किसी भी बात की अति हो या उस पर पाबंदी या बंदिश, तो हमेशा विकृति आ जाती है। वेलेंटाइन डे 25 साल पहले भी मनाया जाता रहा होगा; लेकिन मुझे नहीं याद कि मध्यम वर्ग तक इसकी बहुत ज़्यादा पहुँच थी। मुमकिन है बड़े घरानों में या कुछ ख़ास तबक़ों के बीच इसकी पैठ रही होगी। जैसे-जैसे बाज़ारीकरण और वैश्वीकरण बढ़ता गया, घर-घर में यह पहुँच गया।
आज वेलेंटाइन डे पर न सिर्फ़ विवाद छिड़ गया है, बल्कि दो गुट बन गए हैं। एक पक्ष प्रेम को जीवित रखने के लिए उस संत की याद में इस एक दिन को जीता है, तो दूसरा पक्ष अतार्किक बहस छेड़ इस दिन को जश्न के रूप में मनाने वालो का न सिर्फ़ उत्पीड़न करता है, बल्कि तोड़-फोड़कर अपने ही देश की संपत्ति नष्ट करता है।
प्रेम के लिए अब न समय है किसी के पास न सोच का इतना विस्तृत दायरा।वक़्त के साथ इंसानी मन भी संकुचित हो गया है। अब न फागुन महीने का वह फगुनाहट छाता है, न सावन महीने में प्रिय से मिलन की व्याकुलता। जीवन का हर आयाम सिमटकर किसी तरह जीवन यापन भर रह गया है।
ऐसे में अगर एक दिन प्रेम को समर्पित कर दिया जाए, तो जीवन में उमंग का एक दिन तो ज़रूर मिलता है। मेरा मानना है कि जीवन का होना और मिटना, महज़ क्षणभर की बात है। तो क्यों न जितने समय हम जीवन में हैं, प्रेम से और प्रेममय जिया जाए तथा एक दिन ही क्यों हर दिन वेलेंटाइन डे मनाया जाए। वेलेंटाइन संत विदेशी थे, तो उनकी परम्परा न मानकर अपनी संस्कृति और परम्परा को मानकर निभाते हुए पूरा साल प्रेम को समर्पित कर दें!
वेलेंटाइन डे पर प्रेम के सभी संतों और प्रेम-पीपासुओं को बधाई!
-जेन्नी शबनम (14.2.2010)
-जेन्नी शबनम (14.2.2010)
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17 comments:
प्रेम जीवन की शाश्वत्ता है, हर युग में इसे स्थान और सम्मान मिला है| हम किसी भी धर्म या मज़हब की बात करें सभी प्रेम की हीं बात करते हैं| प्रेम के बिना न जीवन संभव है न सभ्य समाज, फिर भी प्रेम को लेकर जाने कितनी बहस छिड़ गई है|
Bahut sundar lekh. Pyar to bus pyar hai, jisne ise samjh liya uske jiwan ki naiya assani se paar lagti hai..
Bahut badhai
वैलेंटाईन डे बहुराष्ट्रीय कंपनियों का एक "माल बेचू " प्रोपगंडा के सिवा कुछ नहीं.
रोटी, कपडा, मकान के बाद जीवन की सबसे अनिवार्य आवश्यकता प्रेम ही है. फिर क्या प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए दिन मुक़र्रर होना चाहिए?
क्या भारत में इस तथाकथित "त्यौहार" के आगमन से पहले युवक-युवतियां प्रेम नहीं करते थे??
बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा प्रायोजित मीडिया दुष्प्रचार क्या इसे सिर्फ युवक - युवतियों के यौनाचार के रूप में पेश नहीं करता?
टेलीविजन पर यह भौंडा माल बेचू दुष्प्रचार मासूम बच्चों से उनका बचपन छीनकर उन्हें समय से पहले यौन जिज्ञासाओं और कुचेष्टाओं की ओर नहीं धकेल रहा?
यदि इन प्रश्नों का उत्तर "हाँ" है तो यह पर्व नहीं बल्कि सामाजिक विद्रूपता फैलाने का सिर्फ एक कुत्सित प्रयास है जिससे फ़ायदा सिर्फ इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों को होने वाला है जबकि इसके दुष्परिणाम पूरे देश और समाज को भुगतने पड़ेंगे.
prem जीवन का शाश्वत सत्य है। सारी कायनात ishwar के prem का प्रतिबिम्भ है। दिनकर प्रतिदिन अपनी प्रियसी धरा पर किरण पुष्पों की वर्षा करता है और अखंड सौभाग्य वती की आशीष से धरा नित्य नई दुल्हन के समान संवर जाती है।
आज के वेलान्तायन का विरोध करने वाले तब क्या करेंगे जब युवा पीढ़ी कल गुज़र गया किस डे मनाने लगेंगे।
बदलाव ही जीवन है
Very nice Shabnam!Keep it up.
prem aur prem ke dikhawe me to fark hota hai n.....kahte hain n ki naam na do sirf ehsaas hai,rooh se mahsoos karo
अब न फाल्गुन महीने का वो फगुनाहट छाता है न सावन महीने में प्रिय से मिलन की व्याकुलता| जीवन का हर आयाम सिमट कर बस किसी तरह जीवन यापन भर रह गया है|
सही कहा है।
फिर भी इस एक दिन के लिये बहुत बहुत बधाई शुभकामनायें
Bahut sahee sandesh deta hai aapka ye lekh ........aapkee har baat se mai sahmat hoo .........Aapka ye lekh bahut pasand aaya .
valentine-day का अर्थ मात्र प्रेमी-प्रेमिका का दिन ? किसने कहा ?
ये दिन है प्यार का ,प्यार के इज़हार का .
क्या प्यार एक लड़का एक लडकी के बीच ही होता है ,बस ?
अभी सेकड़ो लोग तर्क देने को खड़े हो जायेंगे, जी हाँ ये बस 'इन दो' के लिए होता है. चलिए हम तो विस्तार दे सकते हैं ना इस दिन को
मैं अपने बेटे ,बेटी,भाई -भाभी ,दोस्त ,पडोसी ,स्टाफ -मेम्बर्स सब को विश करती हूँ ,सबके साथ मनाती हूँ.
प्यार की परिभाषा को दायरों में मत बांधिए .
फिर देखिये कोई खराबी नही इसमें
जेन्नी जी कितनी सच्ची बात कही है आपने....क्यों हम एक प्यार जैसी चीज़ को इतना विकृत बना देते हैं...क्यों नहीं उसको सिर्फ प्यार के रूप में देख सकते..
क्या हुआ ये अगर विदेशी त्यौहार है ..क्यों कोई और विदेशी चीज़ नहीं अपने हमने? क्यों लोग ये पैंट कमीज छोड़ कर धोती कुरता नहीं पहनते.? क्यों सफ़र करते हैं ट्रेन से हवाई जहाज से क्यों नहीं बेलगाडी में चलते,? .क्यों अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाते हैं ..? फिर एक इस प्रेम दिवस के लिए ही इतनी रुद्दिवादिता क्यों?
क्या हम अपनी माँ,पिता,भाई ,बहन,दोस्तों से प्यार नहीं करते ,क्या उनके साथ एक दिन प्यार का नहीं मना सकते हम
sach kaha jenny ji.. pyaar ko pyaar hi rehne do koi naam na do.. bahut sateek rachna kahi hai, badhai
Dr. Jenny Ji, Namaste!
Thanks for updating me on your new posting, that too on Valentine's Day. Wow!
Do you know the tradition of Valentine Jenny Ji? It is hardly prevalent in our country for the last..........20 years or so. You can say that the Media with its vast scope has brought it.
The story (Myth/legend) told about Valentine is that One CHRISTIAN Saint named Valentine used to aid CHRISTIAN couples romance- love- marry. He was brought to prison to be tortured during the reign of CLAUDIUS-II. He was executed for not renouncing the christian faith outside the Flaminian Gate on Feb.14.
Pope Gelasius marked Feb 14 as a celebration in honour of his martyrdom in 496 AD.
From the above known history/myth about Valentine (Certainly not known to the people celebrating it), where does the message of Love come from the Christian Saint or his deeds (If at all the story is to be accepted)? The story is in tune with other Europian Christian traditions where people have been persecuted for Christianity/Non- Christianity.
There is nowhere a message of universal love or Human love or even romance.
Why to talk of Love- Romance in the name of Valentine then..............................?
Regards.
Jai
ek Dam satye baat kahi Di aapne,
actually ye galat insani soch aur unke dekhne ka najriya hai,
i agreed wid u di, well said
sahi ........sach baat
bahut sundar
manushy ke paas roti n ho kamij n ho
par pyaar to hota hi
jaese dharti ka adhkansh hissa jal hai
vaise hi vykti ke svtntr vaiktitv
ke 75%
...ke 100% me ...
prem ke jal se bhara huva bahataa man hai
achchha likha hai aapane
जेन्नी जी!
सामायिक विषय पर आपका लेख बहुत सी भ्रांतियों को दूर करता है, जो प्रेम को लेकर लोगों के मन में हैं...मैं तो बस! यही कहूँगी.....
यहाँ कोई हार और जीत नहीं...
प्रीति की कोई रीति नहीं....
बस! प्रेम पगे सब होंहि ठगे...
ऐसी और कोई प्रतीति नहीं....
फिर काहे दिवस मँह बाँधि रहे...
ऐसी तौ प्रेम की नीति नहीं ....
आपके बौद्धिक लेखन के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ......
PYAAR KA HAR DIN HAI SAHI PREM KE LIYE......HAR DIN BADHAAI HAI, PREM TO MANN KE AANGAN HAR DIN UTSAW MANATA HAI.......YAH EK YAAD THI,JISE KHEL BANA diya gaya hai.......
aaj bhi prem kahta hai-'pyaar ki daastaan tum suno to kahen , kya karega sunke jahan tum suno to kahen
जेन्नी जी कितनी सच्ची बात कही है आपने....क्यों हम एक प्यार जैसी चीज़ को इतना विकृत बना देते हैं...क्यों नहीं उसको सिर्फ प्यार के रूप में देख सकते..
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